लोग जिन्हें सनकी-पागल कह कर नकार देते हैं बारहा वो ही इतिहास बदल देते हैं।



 जी हाँ, Never Underestimate The Power of One, वाले इस कहावत को मेरी आज वाली कहानी के हीरो सार्थक करते आपको नज़र आएंगे। बात हो रही है यहाँ 'फ़ॉरेस्ट मैन पद्मश्री जादव मोलाई पायेंग 'की। शायद आप में से कुछ लोगों ने इनके बारे में सुन रखा हो या इन पर बनी शॉर्ट फिल्म देख रखी हो। 

इनकी कहानी की शुरुआत साँपों के मरने से होती है। जब मोलाई कोई सोलह साल के थे तो उन्होंने ब्रह्मपुत्रा नदी के एक बंज़र टापू पर कई साँपों को मरे देखा। साथ ही साथ उन्होंने ने अपने इर्द-गिर्द जंगली जानवरों की संख्या को भी घटता महसूस किया। उन्होंने अपने गाँव के बड़े-बुजुर्गों से इसका कारण जानना चाहा। उनलोगों ने मोटा-मोटी इतना ही बताया की जंगल कट रहे हैं इसलिए ये सब हो रहा है। जादव ये जवाब सुन कर विचलित हो गए। उन्होंने ने गांव वालों से कहा कि हमें इनके संरक्षण के लिए कुछ करना चाहिए। गांव वाले उनका मज़ाक बनाने लगे। इस पर उन्होंने पूछा, "तो क्या किसी दिन अगर हम इंसान भी ऐसे मरने लगेंगे तब भी कोई कुछ नहीं करेगा?" इसका जवाब किसी के पास नहीं था तब। 

जादव अपने सवालों को लेक कर अब वन-विभाग के पास पहुँच गए। वन-विभाग वाले पला झाड़ते हुए बोले कि बंज़र जमीन है इस पर कुछ भी उगाना संभव नहीं है मगर वो अड़े रहे अपनी बात पर। आखिर में एक अधिकारी ने बांस के 20 पौधे दिए और बोला इसे लगा कर देखो, जो ये लग जायेगा तो आगे की सोचेंगे। 

अब उन नन्हें बांस के पेड़ों को लगा कर दिन-रात जादव उसकी देखभाल करने में जुट गए। मेहनत रंग लायी वो बांस के पेड़ लग गए और साथ में रास्ता दिखने लगा जादव को। इसके बाद जब 1980 में जब वन विभाग ने वहां वृक्षारोपण की परियोजना शुरू की तो जादव उससे एक मज़दूर के रूप में जुड़ गए। पांच साल बाद जब परियोजना ख़त्म हो गयी और बाकी सभी कर्मचारी चले गए तब भी जादव ने अपना काम जारी रखा। वे नए पोधे लगाते रहे और पेड़ों की देखरेख करते रहे।इस तरह तीस वर्षों तक काम करते हुए मोलाई ने लगभग १३६० एकड़ (५५० हेक्टेयर) का जंगल उगा दिया जो की न्यूयार्क के सेन्ट्रल पार्क से भी बड़ा है।

उनके उगाये इस जगंल का नाम भी उन्हीं के नाम पर रखा गया है 'मोलाई फॉरेस्ट'। जहाँ अब करीब ३०० एकड़ में बांस के जंगल है और बाकी जगह तरह तरह के पेड़ जैसे वल्कोल, अर्जुन, एजर, गुलमोहर, कोरोई, मोज आदि लगे हैं। ये जंगल इतना घना ऊगा है कि अब ये घर बन गया है, बंगाल टाइगर्स, हाथियों, हिरणों, खरगोशों और तरह-तरह के पक्षियों का। 

जब उनके इस काबिलेतारीफ़ काम का पता जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के पर्यावरण विज्ञान विभाग को चला तो उन्होंने २२ अप्रेल २०१२ को जादव जी को उसकी अतुलनीय उपलब्धि के लिए सार्वजनिक सभा में सम्मानित किया। JNV के उप-कुलपति सुधीर कुमार सोपोरी ने जादव पयंग को "फॉरेस्ट मॅन ऑफ इंडिया" (भारत का वन नायक) की उपाधि प्रदान की। और सिर्फ इतना ही नहीं इनकी इस बहुमूल्य उपलब्धि के लिए उन्हें 2015  में पद्मश्री पुरस्कार भी दिया गया। 

अब आप सोच रहे होंगे कि इतने पुरस्कारों से सम्मानित यह इंसान कोई लक्ज़ेरियस ज़िंदगी जी रहा होगा, तो बिलकुल ग़लत सोच रहे हैं। अपने एक इंटरव्यू में जादव जी ने कहा है,"मेरे साथी इंजीनियर बन गये हैं और शहर जा कर बस गये हैं। मैने सब कुछ छोड़ इस जंगल को अपना घर बनाया है। अब तक मिले विभिन्न सम्मान और पुरस्कार ही मेरी असली कमाई है जिससे मैं अपने को इस दुनिया का सबसे सुखी इंसान महसूस करता हूँ। "

 जादव भारत के पूर्वोत्तर राज्य असम के 'मीशिंग' आदिवासी जनजाति का सदस्य है| वह अब भी अपनी पत्नी और ३ बच्चों के साथ जंगल में एक झोंपड़ी में रहते हैं।  उनके बाड़े में गायें और भैंसें हैं, जिनका दूध बेचकर वह अपनी रोज़ी-रोटी चलाते है, यही उनके परिवार की आय का एकमात्र साधन है। 

ये अलग बात है कि अब तक उनकी ज़िंदगी पर कई डक्युमेंट्री फिल्में और एक किताब भी लिखी जा चुकी है मगर इससे उनको कितना आर्थिक लाभ पहुंचा है और उनके जीवनशैली में क्या बदलाव आया है यह सोचने वाली बात है। वैसे भी जब हम सफ़लता और दुनिया को बदलने की बात करते हैं तो अम्बानी और स्टीव जॉब्स का ख़्याल सबके जहन में आता है लेकिन उसके बारे में शायद ही कोई सोचता है या जानता है जिसने न जाने कितने टन ऑक्सीजन हमें और हमारी आने वाली पीढ़ियों को मुफ़्त में उपलब्ध करवाया है। 

विडंबना शायद इसे ही कहते हैं, सोचियेगा!

साभार पूजा प्रणति राय के फेसबुक पेज से।

Hr. deepak raj mirdha
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लोग जिन्हें सनकी-पागल कह कर नकार देते हैं बारहा वो ही इतिहास बदल देते हैं। लोग जिन्हें सनकी-पागल कह कर नकार देते हैं बारहा वो ही इतिहास बदल देते हैं। Reviewed by deepakrajsimple on November 07, 2017 Rating: 5

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