फासिज्म और वामपंथ का रिश्ता


वामपंथियों के डिक्शनरी में, फासिस्ट एक गाली है । जिनका वामपंथी विरोध कराते हैं उन्हें वे फासिस्ट कहकर गालियां देते हैं । खासकर हिन्दू राष्ट्रवादियों का उल्लेख करते वक़्त पहले उन्हें फासिस्ट कहा जाता है बाद में उनका नाम लिया जाता है । नाम लेना ऑप्शनल है, फासिस्ट कहना कंपलसरी । 

अगर आप इन्हें पूछें कि फासिस्ट क्या होते थे, तो एक दो शब्द मुंहपर फेंके जाएँगे लेकिन उससे ज्यादा आप को बताया जाएगा कि फासिस्ट कौन होते थे । नात्ज़ी जर्मनी और हिटलर फासिस्ट थे, और युद्ध में उसका साथी मुसोलिनी भी फासिस्ट था । मुसोलिनी खुद को फासिस्ट ही कहता था, हिटलर और नात्जीयोंको फासिस्ट कहा गया जिस उपाधि का इन्कार या स्वीकार करने को वे तो रहे नहीं । 

फासिस्ट क्या होता है ? यह शब्द Fasces से आता है जो सत्ता का प्रतीक एक लकड़ियों की गठरी के बीच एक परशु है । उसका चित्र देखेंगे तो प्रतीकात्मकता समझ में आएगी कि परशु का मुख्य दंड चारों तरफ से आच्छादित  होने से उसकी ताकत बढ़ती है । फासीवाद की कई नेगेटिव बातें हैं । जैसे कि तानाशाही, अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता नकारना इत्यादि । बाकी भी कई नेगेटिव मुद्दे हैं लेकिन अगर हम कम्युनिस्टों की सत्ता जहां थी उसका अभ्यास देखते हैं तो यही सब दुर्गुण वहाँ भी मौजूद हैं । तो फिर कम्युनिस्ट फासिस्टों को क्यों गरियाते हैं ? 

एक कारण समझ में आता है कि फासिस्ट राष्ट्रवादी होते थे, उनके लिए राष्ट्र सर्वोपरि होता था । इसके बनिस्बत कम्युनिस्ट अंतर्राष्ट्रीयत - internationalism में मानते हैं । पहले रशिया अब चाइना के कम्युनिस्ट नहीं मानते । कम्यूनिज़्म का क़िबला उनके पास है, बाकी तो लाल उम्मति हैं जिनको अपने अपने मुल्कों में ठरकी मरकस का लाल इल्हाम गालिब करना है । तो स्वाभाविक है कि फासिस्ट और कम्युनिस्टों में ३६ का आंकड़ा होगा । 

इसी तर्क को आगे ले जाये तो यह भी कह सकते हैं कि कोई भी राष्ट्रवादी, कम्युनिस्टों को शायद पसंद बिलकुल नहीं करेगा, लेकिन केवल कम्युनिस्टों को नापसंद करने से वो फासिस्ट नहीं बनता इससे तो आप सहमत होंगे । अब यही मजे की बात है । अपनी विचारधारा से भिन्न मत रखनेवाले लोग इन्हें पसंद नहीं होते ।  इसलिए उन्हें हटाने के लिए उन्हें बदनाम करना आवश्यक हो जाता है इनके लिए ।  क्योंकि ये अपने हर पाप में सब को भागीदार बनाते हैं इसीलिए उस काम को न्याय ठहराना उनका पहला कदम होता है । इसीलिए वे कोई कारण खोजते हैं कि उसे किसी न किसी तरह फासिस्ट करार दिया जाये । अगर आप को यहाँ फासिस्ट की जगह काफिर या मुश्रिक ये  शब्द याद आते हैं तो आप सही सोच रहे हैं, इसी सोच के साम्य को लेकर मैं कम्यूनिज़्म को नास्तिकिस्लाम कहता हूँ । 

कारण खोजते खोजते कम्युनिस्टों ने फासीवाद का दायरा बढ़ा दिया । अगर आप को समलैंगिकता पसंद नहीं है तो आप फासीवादी हैं - लेकिन नोट कीजिये, कोई भी कम्युनिस्ट इस्लाम की कोई आलोचना नहीं करता जो इस मुद्दे पर मृत्युदंड देने की जो अधिकृत भूमिका रखता है, मृत्युदंड देता भी है  । किन्तु आप अगर समलैंगिकों का सम्मान करने में रुचि नहीं रखते या फिर चाहते हैं कि आप का बेटा या बेटी गे या लेस्बियन न बनें और ऐसे लोगों के संपर्क में न आए, तो आप को भी ये फासीवादियों में गिनेंगे । 

अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता के तहत विरोधी मत रखने की इनकी व्याख्या अजीबोगरीब  है । पार्टी लाइन से अलग मत रखनेवाले को ये un-person बना देंगे, purge भी करेंगे । लेकिन भारत की बर्बादी के नारे देना उनके नजर में अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता है । अगर आप इन नारों से क्रोधित होते हैं तो आप फासीवादी हैं । 

लेकिन मजे की बात यह है कि जिन नात्जीयों को ये फासीवादी कहते हैं वे नात्जी खुद को समाजवादी मानते थे। पक्ष के नाम में भी यही उद्घोषणा थी । उसका नाम था National Socialist German Workers' Party और हिटलर अपने समाजवाद को असली और कम्यूनिज़्म को फर्जी यहूदी बोलशेविज़्म कहता था । Gottfried Feder जो एक अर्थचिंतक थे, उनकी एक किताब "सूदखोरी की गुलामी नष्ट करें"  Manifesto For The Abolition Of Interest Slavery नेट पर यहाँ http://tinyurl.com/zmjernw मुफ्त उपलब्ध है । यह जरा भी आवश्यक नहीं है कि उनके विचारों से सहमत होना है, लेकिन उन्होने कम्युनिज़्म के  साथ साथ पूंजीवाद की भी धज्जियां उड़ाई है । कम्युनिस्ट कभी नही चाहेंगे कि कोई ऐसे भी सोचे । 

वैसे एक ब्रिटिश सांसद डेनियल हन्नान का यह लेख भी मस्त है - वामियों को जब याद दिलाओ कि उनके समाजवाद की जड़ें तो नात्जी हैं, तो कैसे धुआँ उठने लगता है - Leftists Become Incandescent When Reminded of the Socialist Roots in Nazism - http://tinyurl.com/hwc2lof 
Jonah Goldberg की पुस्तक Liberal Fascism भी इन लिबरलों का नकाब खींचती है कि ये खुद को लिबरल कहलनेवाले ही कैसे असल में फासीवादियों से कोई अलग नहीं हैं । लिंक नहीं , फ्री नहीं । 

लेकिन चूँकि फासिस्ट विश्वयुद्ध  हार गए, वामियों ने मौके का पूरा फायदा उठाया । उन्होने किए हुए अत्याचारों की कहानियाँ प्रसृत की और पूरे विश्व में उन व्यक्तियों को नहीं लेकिन फासीवाद को ही एक गंदी गाली बना दिया । मीडिया में तो वामी घुसपैठ सर्वविदित है, इसलिए किसी को अगर कोई जाना माना वामी फासीवादी बोल देता हैं तो पूरा लश्कर ए मीडिया उस बात को तवज्जो देता है । आदमी या उसकी संघटना फासीवादी के नाम से बदनाम हो जाती है, उनके वास्तव में फासीवादी होने की जरूरत नहीं । 

किसी का हनन करना है तो पहले उसका चरित्र हनन करना अच्छा होता है, जनता की सहानुभूति उसे नहीं मिलती यह वामियों का आजमाया हथकंडा है । इसीलिए उनसे जो भी लड़े उसको वे पहले फासीवादी कहेंगे । साथ साथ संघी भी बोल देंगे अगर व्यक्ति हिन्दू हो । संघ से कोई नाता होने की जरूरत नहीं, इन्होने संघी बोल दिया तो बाकी मीडिया के लिए उतना ही काफी है ।

फ़ासिज़्म क्या होता है ?

जर्मनी में रहने वाले एक यहूदी दार्शनिक थीओड़ोर लेसींग ने 1925 में वाइमर सत्ता के दमनकारी नीतियों के विरोध में आवाज उठाई । 

देखने जाएँ तो यह आवाज हिंडेनबर्ग सरकार के विरोध में उठाई गयी थी लेकिन उसका असली निशाना नाजियों की उभरती हुई ताकत पर था। लेसींग ने सरकार को नाज़ियों को तवज्जो देने के लिए दोष दिया था। 

नाजी तत्काल समझ गए और हरकत में आ गए । हनोवर यूनिवर्सिटी जहां लेसींग अध्यापन करते थे, वहाँ उन्होने एक लेसींग विरोधी समिति बनाई और छात्रों को कहा कि उनके लेक्चर्स का बहिष्कार करें । अगला कदम था जब वे उनके लेक्चर्स में जा धमके और शोर मचाकर लेक्चर्स चलने नहीं दिये । लेसींग को वहाँ से त्यागपत्र देना पड़ा। 

इसके बारे में लेसींग ने लिखा कि वे छात्रों द्वारा किए गए इस अपमान को रोकने के लिए  कुछ नहीं कर सके । बिलकुल असहाय थे "against the murderous bellowing of youngsters who accept no individual responsibilities but pose as spokesman for a group or an impersonal ideal, always talking in the royal 'we' while hurling personal insults … and claiming that everything is happening in the name of what's true, good and beautiful."

यह नाजी स्टाइल का फ़ासिज़्म था 1920 में । 

29 जनवरी 2016 को Rajiv Malhotra जी का मुंबई के टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल सायंसेस (TISS) में भाषण था । वहाँ वामपंथी 'छात्रों' ने हुड़दंग मचाया । उस वक्त उसके क्लिप्पिंग्स आए थे । काफी उग्र हुए थे, और यह इंस्टीट्यूट आभिजात्य वर्ग के लिए प्रख्यात है । 

वामपंथ हमेशा हिंसक और असहिष्णु रहा है और साथ साथ मुखर तथा वाचाल भी । उनके पास शालीनता के मुखौटे पहने हुए वक्ता भी मिलेंगे जो इतने निरीह या मरियल लगेंगे कि क्या कहने । ये शब्दों के योद्धा होते हैं। कुछ योद्धा होते हैं और कुछ  हत्यारे भी होते हैं । ये पारले दर्जे के कमीने होते हैं जो  लेखक, अध्यापक आदि भी होते हैं और शिक्षा, साहित्य, पत्रकारिता और कला के क्षेत्र में  वाम की अधिसत्ता फैलाने का काम करते हैं । इसके तहत ये औसत या उससे भी निचले दर्जे के लोगों को पुरस्कार से प्रतिष्ठित बनाते हैं ताकि वे अपनी यह उधार की प्रतिष्ठा इनके बचाव में ला सके । और यह सब काम ये हमारे आप के पैसों से करते हैं । 

इनको सपोर्ट करनेवाले 'कार्यकर्ता' वही होते हैं जो सेनबारी, मारीचझझपी आदि कांडों को अंजाम देते हैं । ज्योति बसु, बैरिस्टर थे, हमेशा बेदाग सफ़ेद वस्त्र पहनते थे, और आभिजात्य वर्ग से थे । हमेशा स्कॉच से कम पीते न थे और गरीबों के हितों की बस बाते करते थे । सेनबारी, मरिचझपी आदि कांड  उनके ही समय के हैं । 

इतिहास देखें तो इस्लाम से भी खूंखवार कोई हैं तो वामपंथी हैं । दोनों में एक बात कॉमन है और वो यही है कि अच्छे शब्दों पर अपनी मोनोपोली स्थापित करना। ताकि इनका विरोधी याने उन शब्दों का विरोधी, उन शब्दों के तहत इंगित तत्वों का विरोधी । उन तत्वों की ढाल के आड़ में ये वार करते हैं । 

वाम करता क्या है तो गैर कम्युनिस्ट तंत्र में  गैरतमंद गरीब को बेगैरत भुक्खड़ बना देता है और उसे कहता है कि यही तेरा हक़ है । हर जान कीमती हो जाती है जिसके लिए माहौल गरमाया जाता है । देश कम्युनिस्ट हो जाये तो फिर जान की कोई कीमत नहीं । सौ साल से कम समय में कम्युनिस्टों ने जितनी अपने ही  देशवासियों की हत्याएँ की हैं उस अनुपात में तो इस्लाम ने भी काफिरों की हत्याएँ नहीं की हैं । 

फिर भी वामियों की मानो तो हिन्दू फासिस्ट है । बस इसलिए फासिस्ट है क्योंकि वो वामपंथी parasite नहीं होता।

साभार -आनंद राजाध्यक्ष


Hr. deepak raj mirdha
yog teacher , Acupressure therapist and blogger
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फासिज्म और वामपंथ का रिश्ता फासिज्म और वामपंथ का रिश्ता Reviewed by deepakrajsimple on October 28, 2017 Rating: 5

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