कुछ लेख संस्कृत की ऐतिहासिकता पर

हद तो ये है कि कुछ लोगो को ये ही नही पता कि इरान की प्राचीन भाषा अवेस्तन और संस्कृत एक ही भाषाई समूह की लैग्वैज है।
और वे खुद को भाषाशास्त्री कहते है। 
ना केवल लोग्वैज बल्कि माईथोलोजी मे भी समानता है और सोश्यल स्ट्रेक्चर मे भी।
#असुर

इरान की प्रचीन भाषा है अवेस्तन, बिलकुल संस्कृत जैसी है। दोनो मे भेद कर पाना मुश्किल है। अवेस्तन मे अक्सर " स" को " ह" बोला जाता है। जैसे हिन्दी - सप्ताह और फारसी - हफ्ताह। संस्कृत - सप्त सिन्धु , अवेस्तन - हफ्थ हिन्दू ।

अवेस्तन मे भगवानो के लिये 'अहुर' शब्द प्रयोग होता है। अब संस्कृत के लिए ह को स बना दो तो ये ' असुर' हो गया। https://en.m.wikipedia.org/wiki/Ahura

अवेस्तन मे राक्षसों के लिये ' देव' शव्द का प्रयोग होता है। अपने यहां देव क्या है दुनिया जानती है। 

अवेस्तन माइथोलोजी मे भी देवो के नाम इन्द्र, यम , वरूण आदि ही है। और इन्द्र को पुरन्दर ( किलो को ध्वस्त करने वाला) ही बोला गया है।

देव - असुर संग्राम वास्तव मे भारतीय और इरानी आर्यों के बीच होने वाली लड़ाईया थी।।

पारसियों  मे हिन्दू  जैसा जनेऊ संस्कार होता है जिसे नवजोत कहते है।


पारसियो के ग्रंथ  जिन्दावस्था है यहा जिंद का अर्थ छंद होता है जैसे सावित्री छंद या छंदोग्यपनिषद आदि|
 
पारसी भी सनातन की तरह चतुर्थ वर्ण व्यवस्था को मानते है-
1) हरिस्तरना (विद्वान)-ब्राह्मण
2) नूरिस्तरन(योधा)-क्षत्रिए
3) सोसिस्तरन(व्यापारी)-वैश्य
4) रोजिस्वरन(सेवक)-शुद्र

पारसियो मे भी अग्नि सबसे पवित्र मानी जाती है। गाय भी पवित्र मानी जाती है।

 अजातशत्रु पण्डित


२६०० वर्ष पहले तक १८ प्रकार की लिपियाँ थीं, जिन्हें ब्राह्मी कहा जाता था।
भारत की ब्राह्मी लिपि में ४६ मातृ अक्षर थे।
(व्याख्याप्रज्ञप्ति,समवाय-सूत्र, प्रज्ञापना-सूत्र,)
Chess Board के खानों की सँख्या के बराबर ६४ अक्षर वेद में होते हैं। ६४-४६=१८ अक्षर ऐसे हैं जिनका जनसामान्य उपयोग नहीं करता था।

जैनों के 'पन्नवणा सूत्र' और 'समवायांग सूत्र' में १८ लिपियों के नाम दिए हैं जिनमें पहला नाम बंभी (ब्राह्मी) है। उन्हीं के भगवतीसूत्र का आरंभ 'नमो बंभीए लिबिए' (ब्राह्मी लिपि को नमस्कार) से होता है।
ललित-विस्तर का ६४,  अक्षर संख्या है.

ललितविस्तर में कथित ६४ लिपियाँ
शुद्धोदनपुत्र को जब पढ़ने भेजा गया तब यह प्रश्न किया गया कि कौन सी लिपि पढ़ाई जाये? लिखने के लिये लिपिफलक अर्थात् वही पाटी ही थी।
अथ बोधिसत्त्व उरगसारचन्दनमयं लिपिफलकमादाय दिव्यार्षसुवर्णतिरकं समन्तान्मणिरत्नप्रत्युप्तं विश्वामित्रमाचार्यमेवमाह-कतमां मे भो उपाध्याय लिपिं शिक्षापयसि। ब्राह्मीखरोष्टीपुष्करसारिं अङ्गलिपिं वङ्गलिपिं मगधलिपिं मङ्गल्यलिपिं अङ्गुलीयलिपिं शकारिलिपिं ब्रह्मवलिलिपिं पारुष्यलिपिं द्राविडलिपिं किरातलिपिं दाक्षिण्यलिपिं उग्रलिपिं संख्यालिपिं अनुलोमलिपिं अवमूर्धलिपिं दरदलिपिं खाष्यलिपिं चीनलिपिं लूनलिपिं हूणलिपिं मध्याक्षरविस्तरलिपिं पुष्पलिपिं देवलिपिं नागलिपिं यक्षलिपिं गन्धर्वलिपिं किन्नरलिपिं महोरगलिपिं असुरलिपिं गरुडलिपिं मृगचक्रलिपिं वायसरुतलिपिं भौमदेवलिपिं अन्तरीक्षदेवलिपिं उत्तरकुरुद्वीपलिपिं अपरगोडानीलिपिं पूर्वविदेहलिपिं उत्क्षेपलिपिं निक्षेपलिपिं विक्षेपलिपिं प्रक्षेपलिपिं सागरलिपिं वज्रलिपिं लेखप्रतिलेखलिपिं अनुद्रुतलिपिं शास्त्रावर्तां गणनावर्तलिपिं उत्क्षेपावर्तलिपिं निक्षेपावर्तलिपिं पादलिखितलिपिं द्विरुत्तरपदसंधिलिपिं यावद्दशोत्तरपदसंधिलिपिं मध्याहारिणीलिपिं सर्वरुतसंग्रहणीलिपिं विद्यानुलोमाविमिश्रितलिपिं ऋषितपस्तप्तां रोचमानां धरणीप्रेक्षिणीलिपिं गगनप्रेक्षिणीलिपिं सर्वौषधिनिष्यन्दां सर्वसारसंग्रहणीं सर्वभूतरुतग्रहणीम्। आसां भो उपाध्याय चतुष्षष्टीलिपीनां कतमां त्वं शिष्यापयिष्यसि?
और इसके बाद अक्षर ज्ञान कराया गया जिसमें 
अ से क्ष तक का कथन है। (ऋकार लृकार नहीं बताये गये).
अ से क्ष तक अक्षर । 'र' विस्तार को सूचित करता है।
'आखर' शब्द खन् धातु से बनता है। आखर खोदे जाते थे। शिलाओं पर , धातु पर ।
'आखर' शब्द प्राचीन है। वेद में है।

समुद्रा स्तत्र चत्वारो दर्विणा आहृताः पुरा ।
(वामनपुराणम् ४१)
लोमहर्षण बता रहे हैं कि प्राचीनकाल में ऋषि #दर्वि वहाँ(सरस्वती-अरुणा संगम के निकट) चार समुद्रों को ले आये थे।
दर्वि शब्द पर विचार करने से अनुमान होता है कि दारु(लकड़ी) से निर्मित दार्वि, दार्वी, दर्वि शब्द निष्पन्न होते हैं।
दर्वी का सामान्यतः करछुल अर्थ लिया जाता है।
दर्वि का समुद्र से सम्बन्ध कहे जाने से समुद्रतटवर्ती क्षेत्र दर्विड या द्रविड होगा। द्राविडी भाषा में रेफ का विपर्यय प्रधान है।
भारत भूमि का दक्षिणी भाग भी दर्वी समान ही है। करछुल से आलोडन किया जाता है, भारत का दक्षिणी भूभाग अथाह समुद्र रूपी कड़ाही में करछुल की भाँति पड़ा हुआ दीखता है।
हिन्दी का डब्बी शब्द दर्वी का ही देशज रूप है।

११वें बुद्ध सुमेध ने प्रज्ञापारमिता का उपदेश किया था ...
नेपाली परम्परा के अनुसार मूल प्रज्ञापारमिता महायान सूत्र सवा लाख श्लोकात्मक है। पुन: एक लक्षात्मक, पच्चीस हज़ार, दस हज़ार और आठ हज़ार श्लोकात्मक प्रज्ञापारमितासूत्र भी प्रकाशित हैं। चीनी और तिब्बती परम्परा में इसके और भी अनेक प्रकार हैं।
179 ई. में इसका चीनी भाषा में अनुवाद हुआ था।

अपने को अलग और श्रेष्ठ दिखाने के लिये बौद्ध लोगों ने नये शब्दों का प्रयोग किया है। चण्डी पाठ तथा त्रिपुरा रहस्य के सुमेधा ऋषि का नाम सुमेधा बुद्ध कर दिया है। यह महेन्द्र गिरि पर रहते थे जहाँ राम के धनुष भड़्ग के बाद उनसे दीक्षा लेने परशुराम जी गये थे। अभी भी इस स्थान का नाम बौध है जो ओडिशा का एक जिला है। 10 महाविद्या का नाम 10 प्रज्ञा पारमिता कर दिया है।

संस्कृत भाषा का शब्द  केश जिससे केशर   केसर  केसरी केहरि केजर खेजर ..... आदि
सिंह को उसके रंग और अयाल के कारण केसरी कहा जाता है । 
कश्मीर में उगने वाला केसर तो केसर है ही ।
पहली शताब्दी में रोमन राजाओं ने इस शब्द को अपनाकर अपनी उपाधि में प्रयुक्त किया । 
रोमनों ने भी तो भारत से कुछ लिया ही है । 
फिर भी कुछ लोग यही कहते रहेंगे कि रोमनों से ही भारतवासियों ने सारा ज्ञान लिया है । 
जब वहाँ का सम्राट इतना कंगाल हो सकता है कि वह हमारे शब्दों की उपाधि अपने शीश धरे तो भला रोमनों को आता ही क्या होगा ? आखिर भारत की विशिष्टता का लोहा माना होगा रोमन सम्राट ने तभी तो इतना सम्मान दिया ।
नेट से उठाई गई यह जानकारी रोचक है .
CAESAR
GENDER: Masculine
USAGE: Ancient Roman
PRONOUNCED: SEE-zər (English)
Meaning & History
From a Roman cognomen which possibly meant "hairy", from Latin caesaries "hair". Julius Caesar and his adopted son Julius Caesar Octavianus (commonly known as Augustus) were both rulers of the Roman Empire in the 1st century BC. Caesar was used as a title by the emperors that came after them.

OTHER LANGUAGES: César (French), Cesare, Cesarino (Italian), Cezary (Polish), César (Portuguese), Cezar, Cézar (Portuguese (Brazilian)), Cezar (Romanian), César (Spanish)
यह भी कमाल है कि पोलेण्ड में केजरी शब्द है ।
राजस्थान का शासकीय वृक्ष है खेजरी/खेजडी
जिसे शमी कहते हैं ।  केशरी शब्द का ही रूप है केजरी /खेजरी/खेजड़ी
इसकी समिधा प्रयोग की जाती है , इसमें अग्नि का वास कहा जाता है ।
लकड़ी का रंग केसरिया ही होता है ।
दशहरा के दिन शमीपूजन की भी परम्परा है ।
मित्र श्री Girdharilal Goyal  जी ने बताया कि हरयाणा में एक गाँव है केजर नाम का , "केजरीवाल" उपाधि धारण करने वालों का सम्बन्ध इसी गाँव से है ।

समुद्रा स्तत्र चत्वारो दर्विणा आहृताः पुरा ।
(वामनपुराणम् ४१)
लोमहर्षण बता रहे हैं कि प्राचीनकाल में ऋषि #दर्वि वहाँ(सरस्वती-अरुणा संगम के निकट) चार समुद्रों को ले आये थे।
दर्वि शब्द पर विचार करने से अनुमान होता है कि दारु(लकड़ी) से निर्मित दार्वि, दार्वी, दर्वि शब्द निष्पन्न होते हैं।
दर्वी का सामान्यतः करछुल अर्थ लिया जाता है।
दर्वि का समुद्र से सम्बन्ध कहे जाने से समुद्रतटवर्ती क्षेत्र दर्विड या द्रविड होगा। द्राविडी भाषा में रेफ का विपर्यय प्रधान है।
भारत भूमि का दक्षिणी भाग भी दर्वी समान ही है। करछुल से आलोडन किया जाता है, भारत का दक्षिणी भूभाग अथाह समुद्र रूपी कड़ाही में करछुल की भाँति पड़ा हुआ दीखता है।
हिन्दी का डब्बी शब्द दर्वी का ही देशज रूप है।

'शिवताण्डवस्तोत्रम्' के १२वें श्लोक में भगवान् सदाशिव के अनुराग में आप्लावित रावण का अंतःकरण कहता है कि पत्थर और रंग-बिरंगी शय्या में, सर्पमाल तथा मोतियों की माला में, बहुमूल्य रत्न एवं मिट्टी के ढेले में, मित्र और रिपु-पक्ष में, तृण व कमलनयनी कामिनी में, प्रजा व महाराजाधिराज में समान भाव रखता हुआ न जाने कब मैं सदाशिव की आराधना करूंगा ! ......
दृषद्+विचित्रतल्पयोः   ....
। 
जिस पत्थर की सिल द्वारा धान्य का पेषण किया जाता है, उसे यज्ञ की भाषा में दृषद् कहते हैं तथा बट्टे को उपल कहते हैं । दृषद् के संदर्भ में शतपथ ब्राह्मण १.२.१.१५ आदि में कहा गया है कि दृषद् पर्वती धिषणा है और उपल पार्वतेयी धिषणा है ।

कौटिल्य बता गये कि
यन्त्र-गोष्पण-मुष्टि-पाषाण-रोचनी-दृषदश्चाश्म-आयुधानि ।। ०२.१८.१५॥ 
यंत्रपाषाण, गोष्फणपाषाण, मुष्टिपाषाण, रोचनी और दृषद्—अश्म, ये सब आयुध कहलाते हैं।

चित्र में दृषद् के साथी हैं, पहले तीर्थों से यही बटोर बटोर लाकर पूजास्थल,  मन्दिर में रख दिया करते थे, घर में जब बहुत भगवान् हो गये और हर दिन स्नान कराने, तिलक आदि करने में बहुत समय लगने लगा तो एक दिन कहा कि अम्मां इन्हें सिरा आते हैं।
कश्मीरियत बहा आये।

परथन जो लोई में लगाकर बेला जाता है,  इससे रोटी बेलन और तिपाई में चिपकती नहीं है।
लोई का प्रथन (फैलाव) करने में सहायक सूखा आटा प्रथन क्रिया के कारण ही परथन कहलाता है।
प्रथि: प्रसरणे। 
प्रथनात् पृथ्वी इति आहुः । ( निरुक्त १-१३) जो दूर तक फैली है, उसे पृथ्वी माना जाता है।
एक मान्यता और है कि राजा पृथु ने भूमि को समतल करवा कृषि कार्य कराया तबसे भूमि पृथ्वी कही जाने लगी।

"संस्कृत अकेली ही, उज्ज्वलाति-उज्ज्वल है, पूर्णाति-पूर्ण है, आश्चर्यकारक है, पर्याप्त है, अनुपम है, साहित्यिक है, मानव का अद्भुत आविष्कार है; साथ साथ गौरवदायिनी है, माधुर्य से छलकती भाषा है, लचीली है, बलवती है, असंदिग्ध रचना क्षमता वाली है,पूर्ण गुञ्जन युक्त उच्चारण वाली है, और सूक्ष्म भाव व्यक्त करने की क्षमता रखती है।"

#ऑरोबिन्दो
 अत्रि विक्रमार्क अन्तर्वेदी


Hr. deepak raj mirdha
yog teacher , Acupressure therapist and blogger
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कुछ लेख संस्कृत की ऐतिहासिकता पर कुछ लेख संस्कृत की ऐतिहासिकता पर Reviewed by deepakrajsimple on November 09, 2017 Rating: 5

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