1857 के बाद

1857 का समर शांत होने के बाद, भारतीय समाज में दो लहरें उठी ।

सब से बड़े समाज में याने हिंदुओं में तथाकथित सैकड़ों ही नहीं, हजारो वर्षों की  की कथित गुलामी और जुल्मों की कहानियाँ प्रसृत होने लगी और उनके लिए समाज के शीर्षस्थ वर्ग पर आरोप होने लगे  । ज्यों ज्यों स्वातंत्र्य का संघर्ष का रंग गहराने लगा, त्यों त्यों इन आवाजों कि तीव्रता, संख्या और उनकी कहानियाँ भी बढ़ने लगी और उन्होने एक narrative of hatred  का रूप ले लिया । 

इधर मुसलमान भी अलगावी रंग में आ गए थे  । वैसे वे तो भारतीयता में घुले कब थे जो उन्हें अलग करने के लिए मेहनत करनी पड़ती?

लेकिन इन दो लहरों के उठने से स्वातंत्र्य संघर्ष की नैया हिचकोले जरूर खाने लगी । देशभावना की जगह  द्वेषभावना बढ़ने लगी  । अगर विश्व युद्ध में इंग्लैंड जर्जरित हो कर बोरिया बिस्तर न समेटता तो क्या हो सकता था?

क्या आप जानते हैं कि हिन्दू समाज के जिस हिस्से को उकसाया  किया जा रहा था वही हिंदुओं का मुसलमानी हिंसा के समय सही रक्षक और प्रखर योद्धा रहा था? अब उसी को उकसाकर हिन्दू विरोधी कर देने से क्या हो जाता? और इस में अलगाव के रंग में आए मुसलमानों को हिंसा के लिए उकसाना और उनसे  targeted हत्याएँ करवाना कितना मुश्किल था?

फिर अंग्रेज़ उन्हें भी दबा देते, कितनी भी हिंसक भीड़ हो, सुसज्ज और प्रशिक्षित सैन्य के सामने टिक नहीं सकती। हिंदुओं के दिमागी सेनानियों का भीड़ के हाथों कत्ल करवाकर बाकी समाज को जीवनदान दे कर उसका तारणहार बनना कितना मुश्किल था? और पचास या फिर सौ साल राज चलाना भी मुश्किल न था।

वैसे कभी ये सोचा है कि जिसे दरिद्री बताया जाता है उस समाज को जागृत करने के लिए क्या communication efforts लगे होंगे? क्या खर्च हुआ होगा उन पर - कहानियाँ लिखवाना,  उन्हें छापना , वितरित करवाना ? साक्षरता  कम थी तो कहाँ से आए होंगे पढ़ कर सुनानेवाले?  या बस प्रचारक? किसने sponsor किया होगा ये? समाज अगर दरिद्री था तो यह पैसे किसने दिये और किस हेतु से दिये ?

एक  सवाल पूछता हूँ - समाज में अगर इतनी विद्वेष की विषमता होती कि जनसामान्य शीर्ष वर्ग से नफरत करने लगते  - तो  राजाओं पर प्रजानन खुशी से जान निछावर क्यों करते? पन्ना दाई, जीवा नाई,  झलकारी बाई कौन थे? 

और ये जो सब बता चुका हूँ अब तक, क्या उसे divide & rule नहीं कहते?

अपने इतिहास के साथ ढेरों घपले हुए तो हैं यह तो अब सब जानते ही हैं । जरूरी है कि शोध हो, व्यक्तिरेखाओं का पुनर्मूल्यांकन हो । पापक्षालन और प्रायश्चित्त भी हो लेकिन सत्य सामने आए । 

बे लिहाज !

क्योंकि #भारत_बदल_रहा_है

✍🏻आनंद राजाध्यक्ष


1 सितंबर 1857 को सारा देश अँग्रेज़ों की गुलामी से आज़ाद हो गया था. पूरे देश में तिरंगा फहरा रहा था कहीं भी युनियन जेक नही था. हर एक रियासत इस देश की आज़ाद हो चुकी थी. इस पूरी लड़ाई में 4.5 से 5 करोड़ भारतीयों ने अँग्रेज़ों के खिलाफ भाग लिया. ये लड़ाई कितनी बड़ी थी इस बात का अंदाज़ा लगाना आसान नही है. 5 करोड़ लोग यदि हसीए और तलवारों से भी लड़ रहे हों तो इतने औजार ब्नाने के लिए कितना लोहा लगा होगा. किसी ने तो लोहे को भट्टियों  में गलाकर औजार बनाए होंगे. मैने जब इतिहास खोजा तो पाया की  कच्चे लोहे से हसियान , तलवार और बंदूक के नाल बनाने का काम जिन लोगों ने किया उन्हें हम बंजारा जाति  के लोग कहते हैं. जो गाँव गाँव  अपना एक छोटा  सा आशियाना बनाकर रहते है.जो अपना पक्का घर कभी नही बनाते और किसी भी शहर या गाँव  के बाहर बस जाते हैं. उनकी एक छोटी  से बैलगाड़ी होती है जो उनकी जिंदगी ढोती  है. जहाँ ये गाडी खड़ी होती हैं वहीं ये गाँव  वास जाता है. थोड़े दिन रहने के बाद वो दूसरे गाँव  में चले जाते हैं. एक वार इन बंजार जाति के लोगों से मैने पूछा  की आप अपना पक्का घर बनाकर क्यों नही रहते. तो उन्होने मुझे बताया की जब हमारे राजा ने कभी अपना घर नही बनाया तो हम अपना घर कैसे बना सकते हैं. तो मैने उनसे पूछा आप का राजा कौन था? तो उन्होने कहा महाराजा राणा प्रताप हमारे राजा थे जिन्होने जिंदगी भर अपने लिए घर नहीन  बनाया तो हम कैसे बना सकते हैं. हम उनके वंशज है और हम तब तक अपनी जिंदगी ऐसे ही गुज़ारेंगे जब तक हमारे राजा के प्राण हम में किसी मैं नही आते; पुनर्जनम नही होता. ऐसे बंजारा जाति के लोगो जिन्होने लाखों टन लोहा गलाया और हसिया, तलवार और बंदूके बनाकर क्रांतिकारियों को दी. फिर मन में प्रश्न आता है की इतना सारा लोहा ख रीदने के लिए पैसे कहाँ से आए? किसी ने तो पैसे दिए होंगे. तो समाज के व्यापारियों और उद्योगपतियों ने पैसे दिए . अँग्रेज़ों के सरकारी दस्ताबेज बताते हैं की 1857 की क्रांति में 480 करोड़ रुपये खर्च हुए थे. उस जमाने के 480 करोड़ रुपये को आज हम गिनना चाहें तो 300 से गुणा  करना पड़ेगा. इतनी बड़ी रकम व्यापारियों और उद्योगपतियों ने दान में दी.

 

 

 

तो अँग्रेज़ों की संसद में बहस ये हुई की इतनी बड़ी पूंजी आई कहाँ से. भारतवासियों ने ये पैसा कमाया था; वो कहीं से लूट के नही लाए थे . तीन  हज़ार साल से भारत के व्यापारी और उद्योगपति दूसरे देशों में अपना माल बेचने  जया करते थे और बदले में सोना और चाँदी कमा कर के लाते  थे ।

- राजीव दीक्षित के व्याख्यान से

Hr. deepak raj mirdha
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1857 के बाद 1857 के बाद Reviewed by deepakrajsimple on November 09, 2017 Rating: 5

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