वेदोक्त संज्ञा "त्रि-सप्त" अति अद्भुत् एवं रहस्यपूर्ण है। George Ivanovich Gurdjieff (GIG) नामक योगी ने Enneagram नामक रेखाचित्र द्वारा इसका सैद्धान्तिक ज्ञान अपने शिष्यों को दिया था। इनका जन्म 19वीं शती ईस्वी में Armenia देश में हुआ था जिसका प्राचीन नाम संभवतः अर्यमा लोक था। संभवतः इसके निकटवर्ती काकेशस, कुर्दिस्तान, कैस्पियन, सीरिया, यमन आदि क्रमशः प्राचीन काल के ककुद्लोक (जहाँ का वंशविशेष ककुत्स्थ एवं उस वंश में जन्मे काकुत्स्थ अथवा काकुत्स्थ्य कहलाते थे), कद्रूलोक (नागलोक=एक पर्वतीय देश ; नग=पर्वत, नाग=पर्वतीय), कश्यपलोक, असुरलोक, यमलोक आदि थे।
GIG को Enneagram का ज्ञान एक अभारतीय गुप्त विद्यालय में प्राप्त हुआ था। उन्होंने बताया कि Enneagram का ज्ञान सहस्रों वर्ष प्राचीन है किन्तु इसे सामान्य जनता से सदैव छिपाकर रखा गया था। उक्त गुप्त विद्यालय के दीक्षित शिष्यों को ही परम्परया इसका ज्ञान प्राप्त हो सकता था। उन्होंने यह भी बताया कि वे प्रथम व्यक्ति हैं जो Enneagram के ज्ञान को उक्त विद्यालय के बाहर प्रकट कर रहे हैं। संभवतः उक्त विद्यालय की अनुमति से ही वे ऐसा कर रहे थे। उन्होंने बताया कि ब्रह्माण्ड (universe) के दो आधारभूत नियम हैं जिनमें प्रथम है - "तीन का नियम" (Law of three) एवं द्वितीय है - "सात का नियम" (Law of seven) अथवा "अष्टक का नियम" (Law of octave)।
"तीन का नियम" बताता है कि एक अथवा दो बल किसी भी वस्तु को उत्पन्न नहीं कर सकते। किसी भी क्षेत्र में तृतीय बल की उपस्थिति अनिवार्य है क्योंकि तृतीय बल की सहायता से ही प्रथम दोनों बल वह उत्पन्न कर सकते हैं जिसे वस्तु कहा जा सकता है। इन तीन बलों को क्रमशः "सक्रिय अथवा सकारात्मक" (active or positive), "निष्क्रिय अथवा नकारात्मक" (passive or negative) व "समञ्जक" (neutralizing) कहा जा सकता है। GIG के अनुसार "तीन के नियम" का अधूरा विवरण सांख्य दर्शन के उपलब्ध भारतीय ग्रन्थों में प्राप्त होता है जिनमें इन तीन बलों के व्यवहार की प्रकृति को स्थायी की भाँति प्रकट किया गया है जबकि वह अस्थायी है। तीनों बलों के नाम गौण हैं। वस्तुतः तीनों बल समानरूपेण सक्रिय होते हैं और केवल अपने मिलन-बिन्दु पर ही अर्थात् केवल क्षणविशेष में एक-दूसरे के सापेक्ष ही वे सक्रिय, निष्क्रिय व समञ्जक प्रतीत होते हैं। सांख्य दर्शन के उपलब्ध भारतीय ग्रन्थों में इन तीन बलों को रजोगुण, तमोगुण व सत्त्वगुण कहा गया है जो क्रमशः "रागद्वेषयुक्त कर्म", "अज्ञानयुक्त अकर्म" व "अकर्मण्यतायुक्त ज्ञान" के प्रेरक एवं क्रमशः उत्पत्ति, क्षय व स्थिति के कारक माने जाते हैं। प्रायः रजोगुण, तमोगुण व सत्त्वगुण को स्थायीरूपेण क्रमशः सक्रिय, निष्क्रिय व समञ्जक मान लिया जाता है जबकि रजोगुण, तमोगुण व सत्त्वगुण में से प्रत्येक कभी सक्रिय, कभी निष्क्रिय और कभी समञ्जक हो जाता है। मनुस्मृति के कर्मगति प्रकरण में त्रिगुणों के व्यवहार की प्रकृति को परिवर्तनशील कहा गया है न कि स्थायी। इतना ही नहीं "रजोगुण, तमोगुण व सत्त्वगुण" संज्ञाएं सभी क्षेत्रों में तीन बलों की सम्यक् परिभाषा प्रस्तुत नहीं कर पाती हैं और कभी-कभी असंगत अथवा अनावश्यक हो जाती हैं।
अस्तु, "सात का नियम" बताता है कि ब्रह्माण्ड तरंगों से निर्मित (consisting of vibrations) है। ये तरंगें ब्रह्माण्ड के निर्माणकारी पदार्थ के सूक्ष्मतम से स्थूलतम समस्त प्रकारों, पक्षों व घनत्वों में ओत-प्रोत होती हैं। ये विविध स्रोतों से आरम्भ होती हैं और एक-दूसरे को काटती हुई, सम्मिलित करती हुई, सशक्त करती हुई, क्षीण करती हुई, बाधित आदि करती हुई विविध दिशाओं में बढ़ती हैं। इस सम्बन्ध में 18वीं शती ईस्वी के Europe द्वारा स्वीकृत सामान्य दृष्टि के अनुसार तरंगें सतत होती हैं अर्थात् आरोही अथवा अवरोही तरंगें सामान्यतया अबाधरूपेण बढ़ती हुई मानी जाती हैं जब तक कि तरंगों के उत्पादक आरम्भिक प्रेरण का बल (the force of original impulse) क्रियाशील रहता है और माध्यम के प्रतिरोध पर हावी रहता है। जब प्रेरण का बल चुक जाता है और माध्यम का प्रतिरोध हावी होने लगता है तब तरंगें स्वभावतः क्षीण होने लगती हैं और समाप्त हो जाती हैं। किन्तु जब तक स्वाभाविक क्षीणता का यह क्षण नहीं आ जाता, तरंगें समानरूपेण व क्रमिकरूपेण (uniformly and gradually) विकसित होती जाती हैं और प्रतिरोध के अभाव में अन्तहीन भी हो सकती हैं। इस प्रकार का "तरंगों का सातत्य" (continuity of vibrations) हमारी भौतिकी की आधारभूत धारणाओं (fundamental propositions of our physics) में से एक है, यद्यपि इसे कभी भी स्पष्टरूपेण निष्पन्न नहीं किया गया क्योंकि इसका विरोध भी कभी नहीं किया गया। कतिपय नवीनतम परिकल्पनाओं में इस धारणा का हिलना आरम्भ हो चुका है। तथापि वास्तविक जगत् में तरंगों की प्रकृति के विषय में अथवा तरंगों की हमारी संकल्पना के विषय में उचित दृष्टि से भौतिकी अभी बहुत दूर ही है। इस सम्बन्ध में प्राचीन ज्ञान की दृष्टि आधुनिक विज्ञान की दृष्टि के विरुद्ध है क्योंकि प्राचीन ज्ञान तरंगों के बोध के आधार में "तरंगों के असातत्य के सिद्धान्त" (principle of the discontinuity of vibrations) को स्थापित करता है।
"तरंगों के असातत्य का सिद्धान्त" बताता है कि प्रकृति में आरोही अथवा अवरोही समस्त तरंगों का निश्चित व अनिवार्य गुणधर्म है - समानरूपेण नहीं अपितु आवर्ती त्वरण व मन्दन के साथ विकसित होना (to develop not uniformly but with periodical acceleration and retardation)। और भी स्पष्टरूपेण कहा जाए तो इस सिद्धान्त के अनुसार तरंगों में आरम्भिक प्रेरण का बल पूर्वोक्त कथनानुसार समानरूपेण नहीं अपितु बारी-बारी प्रबल व दुर्बल होता है। प्रेरण का बल एक विशेष समय तक ही अपनी प्रकृति को बदले बिना कार्य करता है तथा तरंगें केवल एक विशेष समय तक ही नियमितरूपेण विकसित होती हैं जो प्रेरण की प्रकृति, माध्यम, दशाओं आदि द्वारा नियत होता है। किन्तु एक विशेष क्षण आने पर प्रेरण में एक प्रकार का परिवर्तन आता है और तरंगें इसका आज्ञापालन बन्द कर देती हैं और थोड़े समय के लिए वे मन्द हो जाती हैं और एक विशेष सीमा तक अपनी प्रकृति अथवा दिशा को बदल लेती हैं ; उदाहरणार्थ एक विशेष क्षण आने पर आरोही तरंगें और भी शनैः शनैः आरोहण करना आरम्भ कर देती हैं तथा अवरोही तरंगें और भी शनैः शनैः अवरोहण करना आरम्भ कर देती हैं। आरोही तथा अवरोही दोनों ही तरंगों में इस अस्थायी मन्दन के उपरान्त तरंगें पुनः पूर्वप्रक्रिया में आ जाती हैं और एक विशेष क्षण के आने तक, जब पुनः उनके विकास में एक बाधा (check) आती है, एक विशेष समय के लिए समानरूपेण आरोहण अथवा अवरोहण करती हैं। इस सम्बन्ध में यह ध्यातव्य है कि संवेग की समानरूपेण क्रियाशीलता की अवधियाँ समान (equal) नहीं हैं और तरंगों के मन्दन के क्षण समरूप (symmetrical) नहीं हैं। एक अवधि छोटी है और दूसरी लम्बी।
तरंगों के आरोह व अवरोह के मन्दन के क्षणों अथवा बाधाओं के निश्चयार्थ तरंगों के विकास की रेखाएँ आवर्तों में विभक्त की जाती हैं जो समय के एक निश्चित विभाग में तरंगों की संख्या के द्विगुणन अथवा अर्धन (doubling or halving) को व्यक्त करते हैं। यह ज्ञात व स्थापित हो चुका है कि तरंगों की एक निश्चित संख्या और उसके दोगुने के मध्य के आवर्त में दो स्थान हैं जहाँ तरंगों की वृद्धि में मन्दन आता है। एक आरम्भ के निकट है किन्तु आरम्भ में नहीं। दूसरा लगभग अन्त में आता है। तरंगों के मन्दन अथवा आरम्भिक दिशा से उनके विचलन को नियमित करने वाले ये नियम प्राचीन विज्ञान को ज्ञात थे। ये नियम भली-भाँति व शुद्धरूपेण एक सूत्र अथवा रेखाचित्र में GIG के समय तक सुरक्षित रखे गए थे। इस सूत्र (Enneagram) में वह आवर्त, जिसमें तरंगों की संख्या द्विगुणित हो जाती है, आठ असमान चरणों में विभक्त किया गया है जो तरंगों में वृद्धि की दर को व्यक्त करते हैं। अष्टम चरण तरंगों की द्विगुणित संख्या के साथ प्रथम चरण को पुनरावृत्त करता है। इन चरणों को क्रमशः सा, रे, ग, म, प, ध, नि, सा अथवा do, re, mi, fa, sol, la, si, do द्वारा व्यक्त किया जाता है जिनमें प्रथम अन्तराल ग-म (mi-fa) के मध्य में तथा द्वितीय अन्तराल नि-सा (si-do) के मध्य में आता है। इन अन्तरालों का भराव अतिरिक्त धक्कों (additonal shocks) से होता है अन्यथा प्रत्येक अन्तराल में तरंग की दिशा परिवर्तित हो जाती है। तरंगों के द्विगुणन का यह आवर्त अथवा तरंगों की एक निश्चित संख्या और उसके दोगुने के मध्य विद्यमान तरंगों के विकास की यह रेखा "अष्टक" (octave) अर्थात् "अष्टनिर्मित" (composed of eight) कहलाती है। संगीत का seven tone musical scale "अष्टक के सिद्धान्त" पर ही आधारित है।
भौतिकी में प्रकाश पैमाना (light scale) और रासायनिकी में तत्त्वों की आवर्ती पद्धति (periodic system of elements) "अष्टक के सिद्धान्त" से अतिनिकटरूपेण सम्बद्ध हैं, यद्यपि आधुनिक विज्ञान को यह सम्बन्ध पूर्णतया स्पष्ट नहीं हो पाया है। किसी अष्टक के अन्तरालों में उचित अतिरिक्त धक्कों के आयोजनार्थ "तीन का नियम" सहायक सिद्ध होता है। इस प्रकार "तीन के नियम" व "सात के नियम" के मिलन से सृष्टि सम्भव हो पाती है। Enneagram में इन दोनों नियमों के मिलन की रूपरेखा प्रकट की गई है।
Enneagram तीन आकृतियों के मिलन से निर्मित होता है - एक वृत्त, एक समबाहु त्रिभुज व एक विशिष्ट षड्भुज जिसकी चार भुजाएँ एक-दूसरे को तीन स्थानों पर काटती हैं। ये तीनों आकृतियाँ क्रमशः ब्रह्माण्ड (अथवा किसी इकाई), "तीन के नियम" व "सात के नियम" को सूचित करती हैं। ध्यातव्य है कि Enneagram एक सार्वत्रिक प्रतीक (universal symbol) है। समस्त ज्ञान Enneagram में रखा जा सकता है और Enneagram की सहायता से इसे व्याख्यायित भी किया जा सकता है। इस सम्बन्ध में एक मनुष्य जो कुछ Enneagram में रखने में समर्थ है केवल वही वह जानता है अर्थात् समझता है। जो कुछ वह Enneagram में नहीं रख सकता, उसे वह नहीं समझता। जो मनुष्य इसका उपयोग करने में समर्थ है उसके लिए Enneagram पुस्तकों व पुस्तकालयों को नितान्त अनावश्यक बना देता है। सब कुछ Enneagram में रखा व पढ़ा जा सकता है। एक मनुष्य मरुस्थल में बिल्कुल अकेला हो सकता है और वह रेत पर Enneagram बना सकता है और इसमें ब्रह्माण्ड के शाश्वत नियम पढ़ सकता है। और प्रत्येक बार वह कुछ नवीन सीख सकता है, जो वह पहले नहीं जानता था। यदि दो मनुष्य मिलें, जो पृथक् गुप्त विद्यालयों में रहे हों, तो वे Enneagram को बनाएँगे और इसकी सहायता से वे तत्काल निर्धारित कर लेंगे कि उनमें से कौन अधिक जानता है और कौन विकास के किस पायदान पर खड़ा है अर्थात् कौन वरिष्ठ है, कौन गुरु है और कौन शिष्य।
Enneagram एक सार्वत्रिक भाषा (universal language) का आधारभूत चित्राक्षर (fundamental hieroglyph) है जो उतने ही विविध अर्थ रखता है जितने मनुष्यों के विकास के तल हैं। Enneagram "शाश्वत गति" (perpetual motion) है, वही शाश्वत गति जिसे मनुष्यों ने अनादि काल से खोजा है और कभी नहीं पाया। और यह स्पष्ट है कि क्यों वे शाश्वत गति को नहीं खोज पाए। जो उनके भीतर था उसे उन्होंने अपने बाहर खोजा और उन्होंने शाश्वत गति को उसी भाँति निर्मित करने का प्रयास किया जिस भाँति एक यन्त्र निर्मित किया जाता है, जबकि वास्तविक शाश्वत गति, अन्य शाश्वत गति का एक भाग है और उससे पृथक् रूपेण इसका निर्माण सम्भव नहीं। Enneagram शाश्वत गति का योजनाबद्ध रेखाचित्र है। किन्तु निश्चित ही यह जानना आवश्यक है कि इसे कैसे पढ़ा जाए। इस प्रतीक का बोध और इसका उपयोग करने का सामर्थ्य मनुष्य को महती शक्ति प्रदान करता है। यह "शाश्वत गति" है और यही अल्केमिस्टों का "पारस पत्थर" (philosopher's stone of alchemists) है।
बहुत लम्बे समय से Enneagram का ज्ञान गुप्तरूपेण संरक्षित रखा गया था और अब यदि यह सबके लिए उपलब्ध करा दिया गया है तो वह भी एक अपूर्ण एवं तार्किक रूप में जिसका व्यावहारिक उपयोग, किसी जानने वाले मनुष्य से प्राप्त निर्देशन के बिना, कोई नहीं कर सकता। Enneagram को समझने के लिए उसे गतिशील मानकर विचार करना चाहिए। गतिरहित Enneagram एक मृत प्रतीक है, जीवित प्रतीक गतिशील है।
अस्तु, वेदोक्त संज्ञा "त्रिसप्त" के दो अंश हैं -"त्रि" व "सप्त" जो क्रमशः "तीन के नियम" व "सात के नियम" के सूचक हैं। "त्रिसप्त" ही ज्ञात-अज्ञात अनेक पद्धतियों का आधार है। त्रि(3) व सप्त(7) का योगफल दश(10) है जो "दाशमिक पद्धति" (decimal system) का आधार है। Enneagram में त्रिभुज व षड्भुज के शीर्ष, वृत्त को 9 स्थानों पर स्पर्श करते हैं जो दाशमिक पद्धति के 9 अंकों के सूचक हैं तथा वृत्त "शून्य व दशमलव" का सूचक है। त्रिभुज के शीर्ष, वृत्त की परिधि पर अंकित केवल तीन से विभाज्य अंकों 3, 6 व 9 को ही स्पर्श करते हैं जिनकी संख्या भी 3 ही है। 1 से 6 तक के अंकों को क्रमशः 7 से विभाजित करने पर प्राप्त आवर्ती दशमलवांकों (periodic decimals) का क्रम सदा समान ही रहता है जो Enneagram में षड्भुज के अंकन से पूर्ण साम्य रखता है। त्रिभुज व षड्भुज की भुजाओं के कटान-बिन्दुओं की संख्या 12 है जो "द्वादशिक पद्धति" का आधार है। 3 व 7 के योगफल 10 का वर्गमूल, वृत्त की परिधि व व्यास के अनुपात (Pi) के निकट है। 3 व व्युत्क्रमित 7 का योगफल 3+1/7=22/7 ; Pi के अति निकट है।
प्रत्येक पूर्ण वस्तु में "त्रिसप्त" निहित है। "सप्तयुक्त" किन्तु "त्रिरहित" वस्तु अपूर्ण होती है। ध्यातव्य है कि "वैदिक त्रिसप्त" "Enneagram" को नहीं बताता जबकि "अवैदिक Enneagram" "त्रिसप्त" को स्पष्टरूपेण बताता। वैसे इस सम्भावना के लिए भी अवकाश है कि "प्राचीन वैदिक मनीषी, Enneagram से परिचित रहे हों !"
अस्तु, इस लेख का अधिकांश भाग George Ivanovich Gurdjieff (GIG) के शिष्य P.D.Ouspensky (PDO) द्वारा लिखित पुस्तक "In Search of the Miraculous : fragments of an unknown teaching" से ग्रहीत है।
साभार
प्रचण्ड प्रद्योत
Hr. deepak raj mirdha
yog teacher , Acupressure therapist and blogger
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सप्त सिद्धांत और triorigin
Reviewed by deepakrajsimple
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February 11, 2018
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