आर्थिक केंद्र रहे हैं हमारे मंदिर

आर्थिक केंद्र रहे हैं हमारे मंदिर

लेखक:- अजीत कुमार
लेखक सेंटर फॉर सिविलाइजेशनल स्टडीज में शोधार्थी हैं।

हिंदू मंदिर सदा से ही समाज तथा भारतीय सभ्यता के केंद्रबिंदु के रूप में स्थापित रहे हैं। मंदिर आध्यात्मिक तथा अन्य धार्मिक गतिविधियों के साथ-साथ विविध प्रकार के समाजोपयोगी गतिविधियों के भी प्रमुख केंद्र रहे हैं। इतिहास बताता है कि प्राचीन काल से लेकर अट्ठारहवीं और उन्नीसवीं शताब्दी तक ये मंदिर ज्ञान-विज्ञान, कला आदि के साथ-साथ महत्वपूर्ण आर्थिक गतिविधियों के संचालक तथा नियामक थे। भारत के आर्थिक इतिहास में मंदिरों की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। यह तो हम आज भी देख सकते हैं कि हमारे मंदिर अकूत धन-सम्पदा के भंडार हैं। तिरूपति मंदिर की वार्षिक आय की बात हो या फिर प्राचीन पद्मनाभ मंदिर से मिला खजाना हो, मंदिरों में धन का प्रवाह तब से लेकर आज तक अविरल चलता आ रहा है।

प्राचीन तथा मध्यकाल में मंदिर बैंक की भूमिका भी निभाते रहे हैं। लोग मंदिरों में अपनी बहुमूल्य वस्तुएं तथा पैसा जमा करते थे। मंदिरों के प्रति अगाध निष्ठा तथा मंदिर के न्यासियों के द्वारा अपनी भूमिका का समुचित निर्वहन के कारण लोग अपनी जमा-पूंजी को वहां सबसे अधिक सुरक्षित समझते थे। व्यापारिक निगम भी मंदिरों के रख-रखाव तथा सुचारू रूप से सञचालन के लिए नियमित अंतराल पर दान देते रहते थे। राजा भी अपने कोष को मंदिर में सुरक्षित रखते थे तथा आपातकाल में मंदिरों से उधार भी लिया करते थे। कौटिल्य ने अर्थशास्त्रा में देवताध्यक्ष का विधान किया है तथा मंदिरों की सम्पदा को राज सम्पदा के रूप में रखा है। आपातकाल में राजा उस सम्पदा का प्रयोग कर सकता था। दक्षिण भारत में मंदिर कृषि-विकास सिंचाई आदि के महत्वपूर्ण स्तम्भ थे। चोल और विजयनगर साम्राज्य में कृषि-विकास तथा सिंचाई योजना के लिए अलग से विभाग नहीं थे। ऐसी योजनायें मंदिरों तथा अन्य स्वतंत्रा इकाइयों द्वारा संचलित की जाती थी। इसी दौरान स्थानीय क्षेत्रों के विकास में मंदिरों द्वारा भूमिका निभाए जाने का वर्णन हमें अभिलेखों से प्राप्त होता है।

के वी रमण श्री वरदराजस्वामी मंदिर, कांची पर वर्ष 1975 के अपने शोध पत्रा में मंदिर को जमींदार के रूप में तथा निर्धनों को राहत पहुंचाने वाली संस्था के रूप में भी स्थापित करते हैं। बड़े मंदिर सैकड़ों लोगों को रोजगार के अवसर प्रदान करते रहे हैं। के वी रमण अपने शोध पत्रा में मंदिर से जुड़े राजमिस्त्राी, कुम्हार, गाड़ीवान, मशालवाहक, रसोइयों तथा लुहारों की जुड़े रहने की बात करते हैं। सहस्रबाहु मंदिर से प्राप्त अभिलेख बड़े स्तर पर लकड़ी के काम करने वाले, अभियंताओं तथा अनेक प्रकार के लोगो की नियुक्ति को प्रमाणित करते हैं। इसी प्रकार आर नागास्वामी अपने शोधपत्रा में दक्षिण भारतीय मंदिरों को प्रमुख नियोक्ता के रूप में स्थापित करते हैं। इससे स्पष्ट होता है कि मंदिरों में केवल पूजा-पाठ ही नहीं हुआ करता थे, अन्य आर्थिक गतिविधियां भी चलती थीं।

सिंथिया टैलबोट अपने शोधपत्रा में दक्षिण भारतीय मंदिरों को शिल्पियों तथा कलाकारों को रोजगार प्रदान करने वाली तथा किसानों और चरवाहों को जमीन और ऋण प्रदान करने वाली संस्था के रूप में स्थापित करते हैं। मंदिरों की आय के प्रमुख स्रोत राजाओं, व्यापारियों तथा किसानों से प्राप्त होने वाला दान रहा है।

उल्लेखनीय है कि भारत कृषि और वाणिज्यप्रधान देश होने के साथ-साथ धर्मप्रधान देश भी है। यहाँ हर महीने कुछ ऐसे व्रत-त्यौहार होते हैं जिनमे सब लोग अपने सामर्थ्य के अनुरूप दान करते हैं। प्रख्यात आर्थिक इतिहासकार अंगस मेडीसन के अनुसार प्राचीन काल से अट्ठारहवीं शताब्दी तक भारत विश्व की सबसे बड़ी अर्थअव्यवस्था रहा है। भारत को सोने की चिड़िया कहा जाता रहा है। भारत में एक प्रचलित कहावत है 'सबै भूमि गोपाल की' अर्थात यहाँ लोग अपने को सम्पति का मालिक नहीं बल्कि उसका न्यासी अथवा देख रेख करने वाला मानते रहे हैं और अपनी इसी वृति के कारण दान भी बहुत उदारता से करते रहे हैं। इसके कारण मंदिरों में अकूत संपत्ति जमा होती गई।

मंदिरों को मिलने वाले दान में मुख्यतः जमीन, स्वर्ण आदि आभूषण तथा अनाज रहे हैं। साहित्य के अलावा अभिलेखों से भी हमें मंदिरों को मिलाने वाले दान की पर्याप्त जानकारी प्राप्त होती है। एम जी एस नारायणन और केशव वेलुठाट के अनुसार दक्षिण भारतीय मंदिर स्वर्ण, रजत तथा अन्य बहुमूल्य धातुओं के गोदाम बन चुके थे। राजा मंदिरों को दानस्वरुप जमीन या गाँव प्रदान करते थे जो मंदिरों की नियमित आय के साधन थे। दक्षिण भारत के एक-एक मंदिर के पास 150 से 300 गावों की जमींदारी थी। मंदिर प्रबंधन जमीन को किसानो को खेती करने के लिए जमीन देता था और उपज का एक निश्चित भाग हर फसल की उपज के बाद किसान से ले लेता था। यही मंदिरों की आय का एक नियमित तथा महत्वपूर्ण भाग था।

भारतीय मंदिर अपने आय का बहुतांश कृषि विकास, सिंचाई योजनाओं तथा अन्य आर्थिक क्रियाओं में निवेश करते थे। तिरुपति मंदिर इसका एक प्रमुख उदहारण है जिसने विजयनगर साम्राज्य के काल में अनुदान के रूप में प्राप्त संसाधनों का प्रयोग कृषि के विकास के लिए किया था। तिरुपति मंदिर द्वारा सिंचाई योजनाओं को सुचारु रूप से चलाने में विजयनगर साम्राज्य से प्राप्त राजकीय अनुदान का महत्वपूर्ण योगदान था।

वर्ष 1429 के एक अभिलेख के अनुसार विजयनगर सम्राट देवराय द्वितीय ने विक्रमादित्यमंगला नामक गाँव तिरुपति मंदिर को दान किया था जिसके राजस्व से मंदिर के धार्मिक कार्य सुचारू रूप से चलते रहे। बाद में 1495 में के रामानुजम अयंगार ने अपने कुल अनुदान 65 हजार पन्नम में से तेरह हजार पांच सौ पन्नम विक्रमादित्यमंगलम गाँव में सिंचाई योजना पर काम करने लिए दिया था।

इस प्रकार हम पाते हैं कि सिंचाई योजनाओं के माध्यम से कृषि योग्य भूमि का विकास भारतीय मंदिरों विशेषकर दक्षिण भारतीय मंदिरों के अनेक आर्थिक क्रियाकलापों में से एक था। अपने प्रभाव क्षेत्रा में हर मंदिर एक महत्वपूर्ण आर्थिक संस्था होता था। प्रसिद्ध भारतीय इतिहासकार नीलकंठ शास्त्राी के अनुसार मंदिर एक जमींदार, नियोक्ता, वस्तुओं तथा सेवाओं का उपभोक्ता तथा एक बैंक की भूमिका निभाता था। ग्यारहवीं सदी के एक अभिलेख के अनुसार शिक्षकों और पुजारियों के अतिरिक्त तंजौर मंदिर में 609 कर्मचारी कार्यरत थे। एक अन्य अभिलेख के अनुसार विजयनगर सम्राज्य के काल में तुलनात्मक रूप से एक छोटे मंदिर में 370 कर्मचारी कार्यरत थे। मंदिर स्थानीय उत्पादों के बड़े उपभोक्ता भी थे। अनेक अभिलेखों में इस बात के वर्णन हैं कि मंदिर व्यक्तिविशेष या ग्राम समाज को ऋण भी उपलब्ध कराता था तथा बदले में उनकी जमीन बंधक के रूप में रखता था। उसकी उपज ब्याज के रूप में प्रयोग करता था।

इस प्रकार हम पाते हैं कि मंदिरों के अन्य स्थानीय इकाइयों से भी गहरे आर्थिक संबध थे, न केवल दान प्राप्तकर्ता के रूप में बल्कि जमींदार, नियोक्ता, उपभोक्ता, तथा ऋण प्रदान करने वाली एक सुदृढ़ आर्थिक संस्था के रूप में भी। मंदिर धार्मिक केंद्र होने के साथ-साथ मजबूत आर्थिक केंद्र भी थे।

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एक जिग्यासा :
ईस्ट इंडिया कंपनी  और ब्रिटिस सरकार के हिंदुस्तान में राज्य कायम करने के पूर्व भारत में जो टैक्स सरकार वसूलती थी उसका एक हिस्सा लोकल म्युनिसिपलिटी को जन सामान्य की जरूरतों जैसे कुए बावड़ियों का निर्माण एवं देखरेख में तथा मन्दिर और उसके परिसर में चल रहे विद्यालयों की देख रेख में खर्च किया जाता था ।
जब ब्रिटिशर्स ने टैक्स बटोरना शुरू किया तो इस सिस्टम को खत्म किया और मंदिर को अलॉट प्रोपेर्टीज़ पर भी कबजा जमाया ।
लेकिन क्या उन्होंने मस्जिदों और वकफबोर्ड की प्रॉपर्टीज के साथ भी यही किया ?

✍🏻
डॉ त्रिभुवन सिंह

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आपकी जमीन के चकबंदी के जो नियम कानून होते हैं वो कब के हैं ? किसने बनाये थे ?

नहीं पता ?

ओह !! कोई बात नहीं चलिए हम बता देते हैं | जिल्लेइलाही अकबर के दरबार के नौ रत्नों के बारे में तो सुना ही होगा ? उनके नव-रत्नों में से एक थे राजा टोडरमल | भूमि सुधार के, दखल या लेन-देन के ज्यादातर नियम उनके बनाये हुए हैं | भारत में अब भी वही भूमि कानून इस्तेमाल होते हैं | ज्यादातर जगहों पर मामूली सुधारों के साथ वही नियम चलते हैं |

भारत पर ऐसे नियम कानूनों का असर देखना हो तो थोड़ा पीछे चलना होगा | भारत में शिया मुसलमानों कि गिनती कम है, ज्यादातर सुन्नी होते हैं | उत्तर प्रदेश में शिया मुस्लिमों कि कुछ आबादी है | हमारी कहानी भी वहीँ की है | ये कहानी काफ़ी पहले शुरू हुई थी | नहीं, हमारे दादा परदादा के ज़माने कि नहीं, ये उस से भी पुरानी कहानी है |

वाराणसी में एक जगह है दोषीपुरा, उस ज़माने में भारत पर फिरंगी हुकूमत थी और लार्ड लीटन गवर्नर जनरल थे | जिसे आज आप भारत का पहला स्वतंत्रता संग्राम कहते हैं, उसे बीते कुछ ही साल हुए थे और उसी दौर में करीब दो एकड़ जमीन को लेकर दोषिपुरा के शिया-सुन्नी समुदाय में विवाद छिड गया | ये मुकदमा 1878 में शुरू हुआ था |

मामला कुछ यूँ था कि उस ज़माने में बनारस के महाराज कि जमीनें थी और उसमें से महाराज ने कुछ जमीन शिया मुसलमानों को दान कर दी | इस वजह से अब शिया उस जमीन पर अपना हक़ मानते हैं | लेकिन सुन्नी मुसलमानों का कहना है कि उस जमीन में सुन्नियों का कब्रिस्तान है | इसलिए वो ये जमीन शिया मुसलमानों को देने को तैयार नहीं |

दर्ज़नो अदालतों से गुजर चुके इस मामले का आज तक कोई हल नहीं निकला है | लगभग सभी अदालतों ने इस जमीन को शिया मुसलमानों का माना है | 1976 में ये मामला सुप्रीम कोर्ट जा पहुंचा | फिर 3 नवम्बर 1981 को सुप्रीम कोर्ट ने भी शिया मुसलमानों के हक़ में फैसला सुना दिया | अदालत ने हुक्म दिया की संपत्ति के चारों तरफ एक दिवार खड़ी कर दी जाये और कब्रें कहीं और हटा दी जाए |

सुन्नी कब्र हटाने को राज़ी नहीं हुए | उत्तर प्रदेश सरकार ने दंगे फैलने का खतरा बता कर शिया मुसलमानों कि मदद से इनकार कर दिया |

दोबारा जब अदालत का दरवाजा खटखटाया गया तो सर्वोच्च न्यायलय ने पूछा कि उसके हुक्म कि तामील क्यों नहीं हुई है ? उत्तर प्रदेश सरकार ने बात चीत के जरिये मामले को सुलझाने का प्रस्ताव रखा | जहाँ शिया कहते हैं कि जब मुमताज़ महल कि कब्र बुरहानपुर से हटाकर आगरा के ताजमहल में ले जाई जा सकती है तो फिर ये दो कब्रें क्यों नहीं हटाई जा सकती ? उधर सुन्नी कहते हैं कि इस जमीन का इस्तेमाल दोनों समुदाय मिलकर कर लें | हम वापिस नहीं देंगे |

शिया इस इलाके में गिनती में बहुत कम हैं | मगर उन्हें शायद ऐसी अदालतों पर भरोसा है जो पांच पांच सौ साल पुराने कानूनों पर चलती हैं ! समुदायों के बीच ये तनाव जहाँ डेढ़ सौ साल से जारी है, वहीँ उसी सर ज़मीने हिन्द कि सबसे ऊँची अदालतों में कार्यवाही अगली तारीख तक के लिए फिर से मुल्तवी की जाती है ...


मंदिर हिन्दुओं के नहीं होते | भारत में मंदिर सरकारी होते हैं | तमिलनाडु में हिन्दू रिलीजियस एंड चैरिटेबल एंडोमेंट (TN HR&CE) के जरिये मंदिरों पर कब्ज़ा किया गया है | ये अन्य मजहबों-रिलिजन पर लागू नहीं होता, इस से सिर्फ हिन्दू मंदिरों पर सरकारी कब्ज़ा होता है |

TN HR&CE मंदिरों के करीब 4.28 लाख एकड़ खेती लायक जमीन, 22,600 भवन और 33,600 "स्थलों" पर नियंत्रण करता है | वर्ष 2011 के दौरान इन संपत्तियों से कुल किराया होना था 303.64 करोड़ रुपये | सरकार ने यानि TN HR&CE ने इसमें से सिर्फ 36.04 करोड़ इकठ्ठा किया |

बाकी की रकम कहाँ जाती है पता नहीं | ये जो रकम इकठ्ठा होती है उसमें से कोई हिन्दू हितों के लिए खर्च की जाती है, या नहीं की जाती ये भी मालूम नहीं | आपके आस पास का कोई प्रसिद्ध मंदिर सोचिये और बताइये किसके नियंत्रण में है ?

मंदिर में दिया दान-चढ़ावा किसे जाता है, पंडित जी को या सरकार को ?


आनन्द कुमार

आर्थिक केंद्र रहे हैं हमारे मंदिर आर्थिक केंद्र रहे हैं हमारे मंदिर Reviewed by deepakrajsimple on February 26, 2018 Rating: 5

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