400 वर्ष पूर्व जब ईस्ट इंडिया कंपनी के तथाकथित व्यापारी भारत आये तो वे भारत से सूती वस्त्र, छींटज़ के कपड़े, सिल्क के कपड़े आयातित करके ब्रिटेन के रईसों और आम नागरिकों को बेंचकर भारी मुनाफा कमाना शुरू किया।
ये वस्त्र इस कदर लोकप्रिय हुवे कि 1680 आते आते ब्रिटेन की एक मात्र वस्त्र निर्माण - ऊन के वस्त्र बनाने वाले उद्योग को भारी धक्का लगा और उस देश में रोजगार का संकट उतपन्न हो गया।
इस कारण ब्रिटेन में लोगो ने भारत से आयातित वस्त्रों का भारी विरोध किया और उनकी फैक्टरियों में आग लगा दी।
अंततः 1700 और 1720 में ब्रिटेन की संसद ने कैलिको एक्ट -1 और 2 नामक कानून बनाकर ब्रिटेन के लोगो को भारत से आयातित वस्त्रों को पहनना गैर कानूनी बना दिया।
1757 में यूरोपीय ईसाईयों ने बंगाल में सत्ता अपने हाँथ में लिया, तो उन्होंने मात्र जमीं पर टैक्स वसूलने की जिम्मेदारी ली, शासन व्यवस्था की नहीं। क्योंकि शासन में व्यवस्था बनाने में एक्सपेंडिचर भी आता है, और वे भूखे नँगे लुटेरे यहाँ खर्चने नही, लूटने आये थे। इसलिए टैक्स वसूलने के साथ साथ हर ब्रिटिश सर्वेन्ट व्यापार भी करता था, जिसको उन्होंने #प्राइवेट_बिज़नेस का सुन्दर सा नाम दिया। यानि हर ब्रिटिश सर्वेंट को ईस्ट इंडिया कंपनी से सीमित समय काल के लिये एक कॉन्ट्रैक्ट के तहत एक बंधी आय मिलती थी, लेकिन प्राइवेट बिज़नेस की खुली छूट थी ।
परिणाम स्वरुप उनका ध्यान प्राइवेट बिज़नस पर ज्यादा था, जिसमे कमाई ओहदे के अनुक्रम में नहीं , बल्कि आपके कमीनापन, चालाकी, हृदयहीनता, क्रूर चरित्र, और धोखा-धड़ी पर निर्भर करता था । परिणाम स्वरुप उनमें से अधिकतर धनी हो गए, उनसे कुछ कम संख्या में धनाढ्य हो गए, और कुछ तो धन से गंधाने लगे ( stinking rich हो गए) । और ये बने प्राइवेट बिज़नस से - हत्या बलात्कार डकैती, लूट, भारतीय उद्योग निर्माताओं से जबरन उनके उत्पाद आधे तीहे दाम पर छीनकर । कॉन्ट्रैक्ट करते थे कि एक साल में इतने का सूती वस्त्र और सिल्क के वस्त्र चाहिए, और बीच में ही कॉन्ट्रैक्ट तोड़कर उनसे उनका माल बिना मोल चुकाए कब्जा कर लेते थे।
अंततः भारतीय घरेलू उद्योग चरमरा कर बैठ गया, ये वही उद्योग था जिसके उत्पादों की लालच में वे सात समुन्दर पार से जान की बाजी लगाकर आते थे।क्योंकि वहां से आने वाले 20% सभ्य ईसाई रास्ते में ही जीसस को प्यारे हो जाते थे।
ईसाई मिशनरियों का धर्म परिवर्तन का एजेंडा अलग से साथ साथ चलता था।
इन अत्याचारों के खिलाफ 90 साल बाद 1857 की क्रांति होती है, और भारत की धरती गोरे ईसाईयों के खून से रक्त रंजित हो जाती है ।
हिन्दू मुस्लमान दोनों लड़े ।
मुस्लमान दीन के नाम, और हिन्दू देश के नाम ।
तब योजना बनी कि इनको बांटा कैसे जाय। मुसलमानों से वे पूर्व में भी निपट चुके थे, इसलिए जानते थे कि इनको मजहब की चटनी चटाकर , इनसे निबटा जा सकता है।
लेकिन हिंदुओं से निबटने की तरकीब खोजनी थी।
1857 के 30 साल बाद इंटेरमीडिट पास जर्मन ईसाई मैक्समुलर को प्लाट करते है ब्रिटिश इस काम के लिए, जिसने अपनी पुस्तक लिखने के बाद अपने नाम के आगे MA की डिग्री स्वतः लगा लिया ( सोनिया गांधी ने भी कोई MA इन इंग्लिश लिटरेचर की डिग्री पहले अपने चुनावी एफिडेविट में लगाया था)। 1900 में उसके मरने के बाद उसकी आत्मकथा को 1902 में पुनर्प्रकाशित करवाते समय मैक्समुलर की बीबी ने उसके नाम के आगे MA के साथ पीएचडी जोड़ दी।
अब वे फ़्रेडरिक मष्मील्लीण (Maxmillian) की जगह डॉ मैक्समुलर हो गए। और भारत के विश्वविद्यालयों में प्रोफेसर लोग आज भी उनको संदर्भित करते हुए डॉ मैक्समुलर बोलते हैं।
इसी विद्वान पीएचडी संस्कृतज्ञ मैक्समुलर ने हल्ला मचाया किभारत में #आर्यन बाहर से नाचते गाते आये। आर्यन यानि तीन वर्ण - ब्राम्हण , क्षत्रिय , वैश्य, जिनको बाइबिल के सिद्धांतों को अमल में लाते हुए #सवर्ण कहा गया।
जाते जाते ये गिरे ईसाई लुटेरे तीन वर्ण को भारतीय संविधान में तीन उच्च (? Caste) में बदलकर संविधान सम्मत करवा गए।
आज तक किसी भी भारतीय विद्वान ने ये प्रश्न नही उठाया कि मैक्समुलर कभी भारत आया नहीं, तो उसने किस स्कूल से, किस गुरु से समस्कृत में इतनी महारत हासिल कर ली कि वेदों का अनुवाद करने की योग्यता हसिल कर ली।
हमारे यहाँ तो बड़े बड़े संस्कृतज्ञ भी वेदों का भाष्य और टीका लिखने की हिम्मत नहीं जुटा पाते।
हम सदैव पॉलिटिशियन्स के चरित्र चित्रण में लगे रहते हैं.
लेकिन इस देश का नीति नियंता बेरोक्रेसी है, जिसको ईस्ट इंडिया कंपनी ने गठित किया था. जिनके लिए उन्होंने नियम बनाया था कि - सर्विस और पेंशन के साथ साथ #प्राइवेट_बिज़नेस भी कर सकता है।
क्या भारत के आजाद होने के सत्तर साल में इस सिस्टम में कोई व्यतिक्रम उतपन्न हुवा ?
एकदम सॉलिड तरीके से चल रहा है।
लेखपाल से दिक्पाल तक सब पब्लिक सर्वेंट पब्लिक के मॉलिक बनकर प्राइवेट बिज़नेस कर रहै हैं.
प्राइवेट बिज़नेस अर्थात सेवा के बदले में किसी भी भांति से मेवा खाना.
#परमानेंट_कौन है ?
पॉलिटिशियन या बेऔरोक्रेटे ?
भारतवर्ष में Caste सिस्टम का कोई ऐतिहासिक इतिहास और लेखन 1857 के पहले नहीं मिलता , हाँ वर्ण व्यवस्था अवश्य थी / अंग्रेजों के शाशन काल में Caste सिस्टम एक आयातित सोच और फलसफा है / आज जो लोग भी आधुनिक लेखक है उनको Caste सिस्टम और वर्ण व्यवस्था में कोई अंतर हैं शायद उससे अवगत नहीं है /
भारतवर्ष कि प्राचीनतम और आज तक चलने वाली मूल भाषा संस्कृत है/ संस्कृत ग्रंथों में जाति शब्द का कोई उल्लेख नहीं है , लेकिन अमरकोश के अनुसार जाति शब्द का अर्थ कुछ वन औसधि और सामान्य जन्म भर है / हाँ जात का वर्णन अवश्य है , और १६ संस्कारों में जातकर्म भी एक कर्म कांड का हिस्सा है / जात शब्द का अर्थ उत्पत्ति, पैदाइश, कुल परिवार, क्षेत्रीय सम्बद्धता , और गोत्र आदि होता है , साथ ही साथ ये व्यवसाय या पेशे का भी द्योतक होता है /
कुल देवता की पूजा हमारे यहाँ हर सांस्कृतिक विधान में होती है। यही थी जात।
जात एक परिवर्तन शील व्यवस्था थी ।
कौटिल्य के अनुसार एक ही मान के चार पुत्रों में ब्राम्हण क्षत्रिय वैस्या या शूद्र किसी भी वर्ण में व्यक्ति शामिल हो सकता था , और जीवन यापन के लिए उसी वर्ण के अनुरूप व्यवसाय चुन सकता था / इसके लिए कौटिल्य ने #स्वधर्मो शब्द का प्रयोग किया है अर्थात अपने स्वाभाव या एप्टीट्यूड के अनुसार जीवन यापन हेतु कर्म का चुनाव।
लेकिन आज के ज्ञानी चाहते हैं कि सचिन तेंदुलकर क्रिकेट न खेले बल्कि वेद पढ़े।
लेकिन जब 1901 कि जनगणना में रिसले ने सोशल hiearchy और अन्थ्रोप्लोग्य के अनुसार २००० से ज्यादा ज्यातियों और ४० से ज्यादा नश्लों को चिन्हित और सूचीबद्ध किया तो आप व्यवास चाहे जो चुन लें लेकिन जाति / caste आपका पीछा नहीं छोड़ेगा / ज्ञातव्य हो कि १८०७ में फ्रांसिस बुचनन ने caste या ट्रेड के नाम पर मात्र १८२ castes कि लिस्ट बनाई थी /
'वंडर ठाट वास इंडिया ' के लेखक A L Basham के अनुसार -" Caste शब्द का उल्लेख होते ही हिन्दू समाज कि व्यवस्था अपने आप ही मस्तिस्क में तिरोहित होने लगती है /बीसवीं शताब्दी के समाजशास्त्रयों ने स्पस्ट रूप से लिखा है कि Caste सिस्टम यूरोपीय समाज का आवश्यक और कानूनी रूप से महत्वपूर्ण अंग था / लेकिन कालांतर ने लेखकों ने इस तथ्य को चालकीपूर्वक छिपा दिया इस तरह Caste सिस्टम मात्र भारतीय हिन्दू समाज का चरित्र बन गया / (1)
A L Basham के अनुसार सोलहवीं सदी में जब पुर्तगाली भारत में आये तो उन्होंने देखा कि भारतवासी कई समूहों में बनते हुए हैं जिनको उन्होंने Castas के नाम से सम्बोधित किया जिसका एकमात्र मतलब था ट्राइब कुल परिवार / लेकिन ये शब्द ऐसा हिट हुवा कि जैसे हिन्दू समाज के साथ चिपक गया / caste शब्द का प्रयोग वे वारं और कासते दोनों ही के लिए सामान भाव से करते थे / प्राचीन भारत में वर्ण का स्पस्ट उल्लेख मिलता है लेकिन caste का नहीं / यदि caste कि परिभाषा एक ऐसे मानव समूह का वर्णन करना है जो रहन सहन खान पान शादी व्याह तथा व्यवसाय कि दृस्टि से समान है तो इसका वर्णन प्राचीन भारतवर्ष में नहीं मिलता है / (२)
अब एक प्रश्न है कि यदि caste System भारत कि एक्सक्लूसिव व्यवस्था है तो पुर्तगाली और बाद में अन्य यूरोपियों को इस शब्द और यसस्टम का ज्ञान कैसे हुवा था /हिन्दुओं और हिन्दू धर्म को ईसाइयत से नीचे साबित करके शाषित वर्ग का मनोबल गिराने का यूरोपीय और ईसाई लेखकों का ये अन्यायपूर्ण और बर्बर दृष्टिकोण था /
तथ्यात्मक तौर पर caste System यूरोपीय और रोमन सभ्यता का एक आवश्यक अंग था ,लेकिन उसको भारतीय समाज पर आरोपित करने का जो खड़यन्त्र रचा गया , आज वीभत्स रूप में आपके सामने खड़ा है / कुछ यूरोपीय लेखको को ही उद्धृत करना चाहूँगा इस लेख के प्रमाण में :
1907 में John Oman Campbell - ने caste System के नाम पर हिन्दुओं को नीचे दिखने कि आलोचना की / ये गवर्नमेंट कॉलेज लाहौर में सोशल साइंस के प्रोफेसर थे / उन्होंने अपनी पुस्तक -" Bramhan Theist and Muslims of India " में लिखा -" जिस caste System को यूरोपियन आश्चर्य और गर्व के साथ आलोचना करते घूम रहे हैं कि यह अत्यंत बकवास और अस्वस्थ सामजिक परंपरा है ,जिसका विश्व में कोई अन्य उदाहरण नहीं मिलता , वे भूल जाते हैं कि जिस पक्षपात पूर्ण caste System कि आलोचना वो कर रहे हैं ,वह भारत के बाहर भी पायी जाती है , और वो अति सभ्य समझे जाने वाले पश्चिमी देशों में institutinalised है / हमें अपने मस्तिस्क को साफ़ रखना पड़ेगा कि ये एक undeniable तथ्य है कि यूरोप में भी कुछ hereditary caste distinctions हैं , जो पूर्व में कानूनी रूप से मेन्टेन कि जाती थी , और वे वहां आज भी विद्यमान हैं / हिन्दू caste System कि विशेषता इसका वंशानुगत होना है / इस सन्दर्भ में हमें अपनी याददाश्त को जगाना काफी रोचक होगा कि एक जमाना ऐसा भी था कि यूरोप में वंश दर वंश लोगों को अपने पैतृक पेशे को अपनाने को बाध्य कर दिया जाता था और उनको अपना पेश बदलने का अवसर ही नहीं दिया जाता था /
इंग्लॅण्ड के पुराने कानून के अनुसार लोगों को कोयले कि खदानों में या Dry salting के पेशे में पीढ़ी दर पीढ़ी काम करना पड़ता था / इस कानून को George ििि ने अठारवीं शताब्दी में ख़त्म किया यानि जो अंग्रेज हमारे साथ काम कर रहे है उनके पितरों कि आँखों के सामने कि बात है / उससे भी ज्यादा वंशानुगत पेश करने कि बाध्यता रूस में थी जहाँ पिछली शताब्दी तक गुलाम खेती किया करते थे / यूरोप में वंशानुगत गुलामी का बहित लम्बा एयर घृणित इतिहास रहा है / इसका और गहरा अध्ययन करने पर पता चलता है कि एरोप में "Rigid और Tyranical caste System " था जिसको चर्च और कानून दोनों से सुरक्षा प्राप्त थी /(३)
Edward Alsworth Ross ........ने यूरोप में प्रचलित रिजिड कासते सिस्टम को काफी विस्तार से वर्णित किया है जो कि उन्नीसवी शताब्दी के शुरुवात तक जारी थी /वे बताते हैं कि यूरोप में caste System रोमन साम्राज्य का एक हिस्सा था ,लेकिन यूरोप में उसका विस्तार रोमन सभ्यता के कारण नहीं बल्कि सामजिक ताकतों के आपसी टकराव के कारण हुवा था / (४)
प्रूसिया में व्यक्ति की ही नहीं जमीन पर भी जाति का अधिकार था / ऊँची जाति के लोगों कि जमीन नीची जाति के लोग नहीं खरीद सकते थे / लेकिन इस व्यवस्था को 1807 में Emancipation of Edict के द्वारा ख़त्म किया गया /(५)
ओमान ने इंग्राम को क्वोट करते हुए लिखा कि -" रोमन साम्राज्य में वंशानुगत पेशा अपनाने की बाध्यता पूर्व भारत में प्रचलित व्यवस्था से भिन्न नहीं थी / शासक वर्ग के लोग शासन के अनिवार्य अंग थे , और उनको दूसरे समूह (Collegia ) की लड़कियों से शादी की इजाजत नहीं थी / उसी तरह मुनिसिपल्टी और सैनिकों को भी वंशानुगत पेश अपनाने की बाध्यता थी /(६)
Reference :
(1) AL Basham -Wonder that was India P.148
(2)AL Basham -Wonder that was India P.149
(3) John Campbell Oman : "Caste in India " in his book : Bramhan Theist and Muslims in India 1907 P.63-64
(4) Ross 1922 P.322
(5)Ross 1922 P.182
(6) Ingram P.75
साभार
डॉ त्रिभुवन सिंह
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Reviewed by deepakrajsimple
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February 11, 2018
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