असंख्य सूर्य और बाहुबली का टेलिस्कोप


Yashark के मन में प्रश्न उठा की गैलिलियो के बाद टेलिस्कोप आया है तो राजमौली की बाहुबली के दृश्य में दूरदर्शी का प्रयोग किस ऐतिहासिक आधार पर हुआ? यह निर्देशक की कल्पना मात्र है या कुछ और? अघोरी को ध्यान आया कि प्राचीन भारत में प्रकाश और दूरदर्शी यंत्रों का इतिहास हमें समझना चाहिए ताकि कई भ्रम दूर हो सकें। पश्चिम विश्व में एक बड़ा भ्रम यह है कि कांच के बिना परावर्तन और सम्बंधित प्रकाशीय क्रियाएं नही हो सकती और ये कांच का इतिहास अरबों से शुरू मानते हैं।

भीलवाड़ा के जैन मंदिरों की यात्रा करोगे तब समझोगे की अनेक चट्टानें इतनी सुंदरता से तराशी गई हैं कि उनके आरपार देखा जा सकता है, शीशे के स्थान पर उनका प्रयोग हो सकता है। मुगलों के आगमन से युगों पूर्व चांदी और तांबे की सतहों से दर्पण का प्रयोग होता रहा है, रोचक बात तो यह है कि कांच भी गणित की तरह हमारे यहां से ही अरबों तक गया पर वह विषय बाद में। यदि बाहुबली फिल्म के कथानक के काल को देखें तब अभ्रक और सिलिकेट जैसी चट्टानों के लेंस भारत में बहुतायत बनाए जाते थे।

अब लोग पूछेंगे की अघोरी प्रमाण क्यों नहीं देता की खुदाई में कहीं कोई लेंस मिला हो, तो वीरों- प्रमाण इसलिए नही मिल सकता कि चट्टानों में दीर्घकाल में लवणों और ऑक्सीजन के diffusion से उनके रिफ्रेक्टिव इंडेक्स में परिवर्तन आता है, केवल हीरा इसका अपवाद है क्योंकि उसका घनत्व अधिक है अतः आपेक्षिक आयु अत्यधिक है। तभी तो निर्माण के उपरांत भीलवाड़ा के मंदिरों की पारदर्शिता में उत्तरोत्तर कमी आई है।

देश के अनेक स्थानों पर बनी वेधशालाओं(जंतर मंतर) में होने वाले अध्ययनों में इसी तरह के लेंस और दर्पणों का उपयोग होता था। तो प्रश्न है कि इन बड़े उपकरणों से हमने क्या खोजा? वैदिक संहिताओं(विशेषकर तैत्तिरीय) में नक्षत्रों और विशुवों(equinox) की गणना का अद्भुत वर्णन है, अनेक नक्षत्रों का वर्णन ऐसा है जिसका अस्तित्व हाल तक यूरोपियों को पता नही था। अपनी झेंप मिटाने के लिए आजकल अनेक फ़्रांसिसी विद्वान यह कहते हैं भारत में खगोलविद्या चीनियों से सीखी, जबकि अनेक चीनी दस्तावेज पहले से कहते मिले हैं कि हमारे ज्ञान के सूत्र भारतीय हैं। पहले विदेशियों से पता करो की ज्ञात युग का प्रथम वसंत विषुव(equinox of Orion) ईसा से 4000 वर्ष पूर्व हुआ था और फिर वेदों में वर्णित तिथियों से मेल कर लो।

आर्यभट्ट, वराहमिहिर और भास्कर द्वारा अनेकों नक्षत्रों और पिंडों का अद्भुत अध्ययन ही प्रमाण है कि गणित के साथ साथ हमे परावर्तन और अपवर्तन के उपकरण और उनके गणितीय सिद्धांतों की सूक्ष्मताएँ भी ज्ञात थीं।
जब बाइबल और कुरान एक ही सूरज में उलझे थे तब हमारे ग्रंथों ने कहा था कि सूर्य भी एक तारा है, तभी रात्रि के आकाश में असंख्य सूर्य एकसाथ चमकते हैं-
सर्व दिशानाम, सूर्या:, सूर्या:, सूर्या:।

इदम राष्ट्राय 

बोंगा शब्द देवता , पूजा के अर्थों में है । प्रधान अर्थ देवता है.
कुछ विद्वान् बोंगा से बंग और बंगाल नाम को उत्पन्न कहते हैं.
जनजातीय समुदायों में बोंगा नाम से कई पर्व और देव हैं .
संथाल जनजाति में 'सिंग बोंगा'  सिंह बोंगा की पूजा होती है, सिंह बोंगा > सूर्य देवता । 
सिंह राशि का स्वामी सूर्य है , क्या संथालों द्वारा सूर्य देवता को
सिंग बोंगा कहने का अर्थ सिंह का देवता है ?

तुला  - तराजू 

आश्विन व कार्तिक मासों में सूर्य क्रमशः कन्या व तुला राशि में स्थित होता है। तुला राशि का नाम तुला रखे जाने के पीछे आकाश का सम विभाग है, उत्तर गोल तथा दक्षिण गोल । शरद इषुव से सूर्य दक्षिण गोल में प्रवृत्त हो जाते हैं।
आश्विन मास का एक नाम इष है तथा कार्तिक मास का नाम ऊर्ज है। इषम् अन्न को भी कहते हैं तथा इष धातु इच्छा अर्थ में भी है। इष का अर्थ होगा द्युलोक से वर्षा द्वारा कामनाओं की पूर्ति। ऊर्ज का अर्थ होता है वह ऊर्जा जो गुरुत्वाकर्षण शक्ति के विपरीत दिशा में गति करके द्युलोक तक पहुंच जाती है। इस पृथिवी पर जितनी ओषधियां विद्यमान हैं, वह सब ऊर्ज का रूप हैं। वैदिक साहित्य में ऊर्ज को रथंतर कहा गया है। रथंतर का अर्थ है – यह पृथिवी जो द्युलोक से वर्षा के रूप में सारी कामनाओं को प्राप्त करती है, द्युलोक को बदले में क्या देती है। कहा गया है कि यह देवयजन देती है।  
पृथिवी से ऊर्ज के रूप में जो ऊर्जा द्युलोक को पहुंचती है, उसे धूम्र नाम भी दिया गया है। इसके कईं प्रकार कहे गए हैं। इसी तथ्य को कहने का दूसरा प्रकार यह है कि तुला का एक पक्ष अन्तर्मुखी चेतना है, एक बहिर्मुखी चेतना। इन दोनों की जहां संधि होती है, वहां तुला को स्थापित किया जाता है। वैदिक यज्ञ में दक्षिणाग्नि की स्थिति अन्तर्वेदी व बहिर्वेदी के मध्य में होती है। यह अन्तर्वेदी व बहिर्वेदी भी अन्तर्मुखी व बहिर्मुखी चेतना की प्रतीक हैं। 

शतपथ ब्राह्मण में इसे इस प्रकार से कहा गया है- अथ हैषैव तुला। यद्दक्षिणो वेद्यंतः। स यत्साधु करोति तदंतर्वेदि। अथ यदसाधु तद्बहिर्वेदि। तस्माद्दक्षिणं वेद्यंतमधिस्पृश्येवासीत। तुलायां ह वा अमुष्मिंल्लोक आदधति। यतरद्यंस्यति। तदन्वेष्यति। यदि साधु वाऽसाधु वेति। अथ य एवं वेद। अस्मिन् हैव लोके तुलामारोहति। अत्यमुष्मिँल्लोके तुलाधानं मुच्यते। साधुकृत्या हैवास्य यच्छति; न पापकृत्या। - मा.श. ११.२.७.३३
वृश्चिक राशि के बिच्छू के दोनों जबड़े ही तुला के पलड़े थे,  जिन्हें नासमझ योरोपिअनों ने सम्पात के अनुसार छोड़कर नई आकृति कल्पित कर ली।

बौद्धों के लङ्कावतारसूत्र के दसवें अध्याय से दो बातें -
लङ्का समुद्र से घिरा भूखण्ड , भारत से जाने वाले समुद्री मार्ग से नौका या पोत से जाते रहे। सूत्रकार मरीचि से परिचित है, वह मृगमरीचिका से भी परिचित है जो मरुभूमि में दृश्य होती है। समुद्र में भी मरीचिका होती है, गगन में दृश्य दिखाई देते हैं।
सूत्रकार ने चुम्बक का उल्लेख किया है, चुम्बक को अयस्कान्त कहा जाता था । ऐसा मान सकते हैं समुद्र यात्रा में दिक्शोधन चुम्बक से होता हो।

भ्रमते गोचरे चित्तमयस्कान्ते यथायसम्॥ १४॥

सूत्रकार कहता है कि दर्पण , जल , नेत्र , भाण्ड अर्थात् चिकने चमकदार पॉलिश वाले वरतन , धातु के वरतन (मिट्टी का हर वरतन भाण्ड नहीं कहा जा सकता) और मणि में बिम्ब दिखाई देता है।

दर्पणे उदके नेत्रे भाण्डेषु च मणीषु च।

बिम्बं हि दृश्यते तेषु न च बिम्बोऽस्ति कुत्रचित्॥ १८६॥
तब काच के दर्पण बनने ही लगे थे।

साभार अत्रि विक्रमार्क अन्तर्वेदी


दर्पण - आदर्श, मुकुर और Mirror

दर्पण से सब कोई परिचित है,,, उपनिषद के एक संदर्भ से विदित होता है कि मुंह ठहरे हुए पानी में देखकर समझ लिया जाता था, देखने वाले को दर्शक किस रूप में देखते हैं। मगर, दर्पण हजारों सालों से हमें अपना रूप दिखाने का काम कर रहा है। यह प्रसाधन का उपस्‍कारक है और हमें उस मुख को दिखाता है जिसे हम आंखे रखकर भी देख नहीं पाते। बस, मुख, ग्रीवा और आगा-पीछा दिखाने का काम करता है ये दर्पण। इसको आदर्श भी कहा गया, आजकल हम मीरर (Mirror) कहकर सुंदरतम हमारे अपने ही शब्‍दों को भूल रहे हैं जबकि हमारे यहां आरसी, शीशा, आईना जैसे शब्‍द भी कम नहीं हैं। कहावतों में भी आरसी, आईने का जिक्र बहुत है।

कल्‍पसूत्र से ज्ञात होता है कि कभी दीवारों, खम्‍भों पर मणिखचित मुकुर होते थे, ये भवन की शोभा तो थे ही, आते-जाते कभी भी उनमें खुद को देखने के काम भी आते। मगर, पार्वती की जो प्रतिमा शिव के साथ बनती है, उसमें एक हाथ में उमा दर्पण लिए होती है। मत्‍स्‍यपुराण का यह निर्देश विष्‍णुधर्मोत्‍तरपुराण, मयमतम्, शैवागमों, देवतामूर्तिप्रकरणम् आदि में ज्‍यों का त्‍यौं आया है। (देखिये तस्‍वीर में उमा अपने हाथ में दर्पण उठाए है) मगर, ये दर्पण होते कैसे थे, कांच हमारे यहां उत्‍खननों में मिले हैं, चूना पत्‍थर को बहुत आंच देकर तपाया जाए तो कांच बन जाता है,, ये विधि हमने बहुत पहले ही जान ली थी।

मगर, मुखदर्शन वाले दर्पण का वर्णन वैखानस ग्रंथ में आया है। करीब आठवीं सदी के इस ग्रंथ में कहा गया है कि दर्पण प्रतिमा के मान जैसा हो या उसका आधा हो, मगर शोभास्‍पद होना चाहिए। यह वृत्‍ताकार होता था, मजबूत और कांस्‍य में मण्डित, महारत्‍नाें से खचित-जटित। इसके पांवों और नाल सहित बनाया जाता ताकि पकड़ा सके। प्राय: मुख देखने के योग्‍य दर्पण को मुख के प्रमाण के अनुसार ही बनाया जाता था।

'सिद्धान्‍त शेखर' ग्रंथ में कहा गया है कि दर्पण के लिए शुद्ध कांसे का प्रयोग किया जाता और यह पूरे चंद्रमा की आकृति का बनाया जाता था। यह छत्‍तीस अंगुल नाह या परिधि वाला या उसके अाधे प्रमाण का बनाया जाता था। इसकी नाल आठ अंगुल रखी जाती और उसका पद चार अंगुल प्रमाण का रखा जाता था। इसको नाना पट्टिकाओं से युक्‍त बनाया जाता था। मंदिराें के सौंदर्य के लिए बनाई जाने वाली नायिका प्रतिमाओं में मुखदर्शन करती दर्पणा देवांगनाओं का भी न्‍यास किया जाता रहा है.. है न दर्पण दुर्लभ,, कभी झूठ न बोलने वाला, मगर ये भी तो सच है कि वह उलटा ही दिखाता है।



साभार श्री कृष्ण जुगनू

Hr. deepak raj mirdha
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असंख्य सूर्य और बाहुबली का टेलिस्कोप असंख्य सूर्य और बाहुबली का टेलिस्कोप Reviewed by deepakrajsimple on November 10, 2017 Rating: 5

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