श्रवण कुमार की जाति
धर्मग्रंथों के चुनिन्दा उद्धरण देकर हिन्दुओं में व्याप्त तथाकथित जातीय भेदभाव को प्राचीन एवं शास्त्र सम्मत सिद्ध करने का वामपंथी एवं प्रचारक मजहबों के विद्वानों द्वारा निरंतर प्रयास होता रहा है | कभी एकलव्य के अंगूठे की बात हो अथवा किसी शम्बूक की दंतकथा हो, चुन चुन कर ऐसे संदर्भ निकाले जाते हैं जिनके माध्यम से हिन्दू समाज की एकता एवं समरसता पर प्रहार किया सके और बड़ी चालाकी से उन कथाओं एवं प्रसंगों को नकार दिया जाता है जो कि हिन्दू विभाजक एजेंडे के विरुद्ध होते हैं | ऐसे ही एक प्रसंग से परिचित होईये जो आँखें खोलने वाला है |
मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान् श्रीराम आदर्श पुत्र माने जाते हैं किन्तु भारतीय जन मानस श्रेष्ठ पुत्र की श्रेणी में जिस व्यक्ति का नाम श्रीराम से भी पहले रखता है वो एक शूद्र माता एवं वैश्य पिता की संतान श्रवण कुमार हैं | यह कोई कहने वाली बात नहीं है कि भारतीय समाज में श्रवण कुमार का क्या स्थान है| रामायण महाकाव्य में जिनका एक छोटा सा उल्लेख मात्र है वो श्रवण कुमार एक आदर्श पुत्र के रूप में रामायण के महानायक से प्रतिस्पर्धा करते हैं |
श्रवण कुमार का उल्लेख वाल्मीकि रामायण के अयोध्याकाण्ड के तिरसठवें सर्ग में आता है जब राजा दशरथ श्रीराम के वियोग में अपने पूर्व पाप कर्मों को याद करते हैं | उन्हें याद आता है कि एक बार पशु समझ कर बिना देखे ही शब्दवेधी वाण चलाकर उन्होंने नदी से जल भर रहे एक युवक की हत्या कर दी थी | उस युवक का करुण विलाप सुनकर राजा को अपनी भूल का ज्ञान हुआ कि जिसे वो नदी का जल पी रहा पशु समझ रहे हैं वो एक तपस्वी युवक था जो अपने अंधे माता -पिता के लिए जल भरने आया था | राजा को अपने कार्य पर पश्चाताप तो होता है किन्तु पुत्र की हत्या से दुखी अंधे वृद्ध दम्पति राजा को शाप दे जाते हैं कि जिस प्रकार हम पुत्र वियोग में तड़प –तड़प कर प्राण त्याग रहे हैं, तुम्हारी मृत्यु भी ऐसे ही होगी |
इस पूरे प्रसंग में, श्रवण कुमार जो कि वैश्य पिता एवं शूद्र माता कि संतान बताये गये हैं, के लिए अनेकों बार तपस्वी, ऋषि, ब्रम्ह्वादी एवं मुनिकुमार जैसे शब्दों का प्रयोग हुआ है | राजा दशरथ, श्रवण के पिता को भगवन एवं महात्मन जैसे शब्दों से संबोधित करते हैं | राजा दशरथ की पुत्र-वियोग में मृत्यु भी उसी शूद्र तपस्विनी एवं वैश्य तपस्वी के शाप का फल था| अतः अगली बार जब किसी प्रकार के जातीय भेदभाव अथवा कटुता के लिए हिन्दू धर्म को जिम्मेदार ठहरता कोई लेख पढ़ें तो विश्वास करने से पूर्व लिखने वाले की नियत एवं मूल संदर्भ ग्रन्थ अवश्य जाँच लें |
@vinay dubey
बाइबिल की वर्णव्यवस्था ही सही है ,भारतियों के लिए।
मीनाई , विमला और गुणादो ----यह ऑस्ट्रेलिया की तीन पहाड़ियों के नाम हैं। इन नामों से क्या लगता है ??? तथाकथित यूरेशिया मूल के आर्य वहां गए थे या ये भारतीय मूलनिवासियों के नाम हैं जो समय की धार के साथ बहते बहते, ऑस्ट्रेलिया पहुँच गए थे। है न अजब कहानी बिलकुल "अहिल्या" की तरह कि इन तीनो बहनो को भी इनके बाप ने पत्थर की शिला में तब्दील कर दिया था और इससे पहले कि वो इन्हे वापिस नारियों में बदलता उसकी मृत्यु हो गयी। बहरहाल चाहे ये कहानी आर्यों ने बनायीं या वहां के मूलनिवासियों ने लेकिन ऑस्ट्रेलिया में मूलनिवासी 200 साल बाद ( 1802 में ऑस्ट्रेलिया की खोज हुई थी ) मिल जुल कर विदेशियों के साथ समृद्ध जीवन बिता रहे हैं। और 150 सालों से भारत के मूलनिवासी आर्यों / विदेशियों को यूरेशिया भेजने का दिवास्वपन देख रहे है। क्यों ???
क्योंकि तथाकथित आर्यों ने वेदों और मनुस्मृति में लचीली और परिवर्तनीय वर्णव्यवस्था का प्रावधान किया था। लेकिन बाबा इस्लाम और बाइबल की वर्णव्यवस्था पढ़ना भूल गए। एक बार फिर संक्षेप में वेदो और मनुस्मृति में वर्णव्यवस्था की परिभाषा दोहरा देता हूँ, फिर बाइबिल की वर्णव्यवस्था को उद्घृत करता हूँ -----
"शूद्रो ब्राह्मणतामेति ब्राह्मणश्चैति शूद्रताम्। क्षत्रियाज्जातमेवं तु विद्या द्वैश्यात्तथैव च।"----
अर्थात श्रेष्ठ -अश्रेष्ठ कर्मो के अनुसार शूद्र ब्राह्मण और ब्राह्मण शूद्र हो जाता है। जो ब्राह्मण ,क्षत्रिय वैश्य और शूद्र के गुणों वाला हो वह उसी वर्ण का हो जाता है।
मुसलामानों की वर्णव्यवस्था के बारे में भान ही नहीं है अधिकांश लोगों को, जो की निम्न हैं।
1.) अशराफ़ श्रेणी में मुसलमानों कि उच्च बिरादरियां—जैसे कि सय्यद, शेख़, मुग़ल, पठान और मल्लिक/मलिक आदि वर्गीकृत की गई हैं!
2.) अजलाफ़ श्रेणी में मुसलमानों ने अपनी तथाकथित 'शूद्र / शुद्दर' तबके की या वैश्यकर्म प्रधान जातियां वर्गीकृत की हैं जैसे – तेली, जुलाहे, राईन, धुनिये , रंगरेज इत्यादि शामिल की जा सकती हैं!
3.) अरज़ाल श्रेणी में तथाकथित रूप से "मुसलमानों के दलित" या "अतिशूद्र मुस्लिम जातियां" हैं जैसे कि मेहतर, भंगी, हलालखोर, बक्खो, कसाई, इत्यादि!
लेकिन बाइबिल में जैसी वर्णव्यवस्था लिपिबद्ध की गयी है, क्या कभी मनुस्मिृति को न पढ़ कर सुनी सुनाई बातों पर यकीन करके कोसने वालों और मुल्लों और ईसाईयों के हाथों में खेलने वालों ने पढ़ी है क्या कभी ???
हिंदी में बाइबिल के जिस अध्याय में इसका विवरण दिया गया है उसका नाम है "प्रवक्ता ग्रन्थ" और अंग्रेजी में इसे SIRACH कहते है। इसमें लोकाचार के संदर्भ में विभिन्न रिश्तों पर मनुस्मृति की तरह नियम बताये गये हैं। ( हिंदी और इंग्लिश बाइबिल में सूक्तियों के क्रम में थोड़ा सा अंतर है )
"प्रवक्ता ग्रन्थ" 38:25 --- अवकाश मिलने के कारण ही शास्त्री को प्रज्ञा ( Wisdom) प्राप्त होती है। जो काम धंधों में नहीं फँसा रहता वाही प्रज्ञ (knowledgeable) बन सकता है।
38:26 --- जो हल चलाता और घमंड से पैना माँजता है ,जो बैलों को जोतता है और उनके कामों में लगा रहता है, जो अपने साँड़ों की ही बात करता है उसे प्रज्ञा कैसे प्राप्त हो सकती है ?
38:28 ---- यही हाल प्रत्येक शिल्पकार और हर कारीगर का है जो दिन रात अपने काम में लगा रहता है .......
38:29 ----- यही हाल लोहार का है, जो अपनी निकाई के पास बैठ कर मन लगा कर लोहे का काम करता है ………………
38:32 ---- यही हाल कुम्हार का है ,जो अपने चाक के पास बैठ कर उसे अपने पैरों से घुमाता रहता है ..........
38 :36 इनके बिना कोई नगर नहीं बसाया जा सकता।
Now read the next points carefully ----
38 :37 --- इनके बिना न तो कोई रह सकता है और न कोई आ जा सकता है, किन्तु नगर परिषद में इनसे परामर्श नहीं लिया जायेगा। इन्हे सार्वजानिक सभाओं में प्रमुख स्थान नहीं दिया जायेगा।
38:38 --- ये न्यायधीश के आसान पर नहीं बैठेंगे। ये न तो संहिता के निर्णय समझते है और न ही शिक्षा एवं न्याय के क्षेत्र में योग देते हैं। शासकों में से इनमे से कोई नहीं।
38:39 --- किन्तु ये ईश्वर की सृष्टि बनाये रखते हैं। इनका काम ही इनकी प्रार्थना है।
इसी तरह से 39: 1 से 15 तक पढ़े लिखे वर्ग( भारतीय भाषा में ब्राह्मण ) के गुण एवं कर्म बताये गए हैं। उदहारण --
39 :1 ----- उस व्यक्ति की बात दूसरी है ,जो पूरा ध्यान लगा कर सर्वोच्च प्रभु की संहिता का मनन करता है ;जो प्राचीन काल के प्रज्ञा साहित्य का और नबियों के उद्गारों का अध्ययन करता है।
इसी प्रकार नौकरों को कैसे रखना चाहिए उसकी एक बानगी देखिये !
33:25 ---गधे के लिए चारा ,लाठी और बोझ; दास के लिए रोटी , दंड और परिश्रम।
33 :26--- नौकर को काम में लगाओ और तुम को आराम मिलेगा।
33:27 ----जुआ ( बैल के गले में डालने वाला)और लगाम गर्दन झुकाती है। कठोर परिश्रम नौकर को अनुसाशन में रखता है।
33 28 --- टेढ़े नौकर के लिए यंत्रणा और बेड़ियां। उसे काम में लगाओ, नहीं तो वो अलसी हो जायेगा।
बहुत से नवबौद्ध या छद्मनामधारी हिन्दू देवी देवताओं के फोटोशॉप करके अश्लील चित्र डाल रहे हैं और अश्लील टिप्पणियां कर रहे हैं उनके लिए बाइबिल के इसी अध्याय में लिखा है --
23:20 ---जो अश्लील बातचीत का आदी बन गया है, वो ज़िन्दगी भर सभ्य नहीं बनेगा।
वैसे जिनके लिए मैं यह पोस्ट लिख रहा हूँ ,पता नहीं वे इससे कोई सबक लेंगे भी या नहीं लेकिन बाइबिल ने उनके लिए भी लिखा है।
22:7 --- मूर्ख को शिक्षा देना फूटे घड़े के ठीकरे जोड़ने जैसा है।
22:8 अनसुनी बात करने वाले, से बात करना गहरी नींद में सोने वाले को जगाने जैसा है। ---अन्त में वो पूछेगा ;"बात क्या है ??"
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विवेक मिश्रा जी
जात कि जाति ???
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माँगी नावं न केवट आना ,कहत तुम्हार मर्म मैं जाना ।
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निषाद कहत सुनइ रघुराई ,मैं न लेहूँ प्रभु तेरी उतराई
हमरे कुल की रीति दयानिधि,संत मिले त करब सेवकाई ।
रीति छोड़ उनरीति न करिहौं ,मैं न लेहूँ प्रभु तेरी उतराई।
नदी नावं के हमहि खेवैया, औ भवसागर के श्री रघुराई ।
तुलसी दास यही वर मांगू , उहवाँ न लागै प्रभु मेरी उतराई ।
--जात पांत न्यारी, हमारी न तिहारी नाथ ,
कहबे को केवट , हरि निश्चय उपचारिये
तू तो उतारो भवसागर परमात्मा
औ मैं तो उतारूँ , घाट सुर सरि किनारे नाथ ।
नाइ से न नाइ लेत , धोबी न धुलाई लेत
त तेरे से उतराई लेत, कुटुंब से निकारिहयों।
जैसे प्रभु दीनबंधु ,तुमको मैं उतारयो नाथ ।
तेरे घाट जैहों नाट मोको भी उतारियों
उहवाँ न लागै प्रभु मेरी उतराई ।
मैं न लेहूँ प्रभु तेरी उतराई----चुन्नू लाल मिश्रा केवट राम संवाद /
जात कि जाति ???
...एक जात शब्द को तुलसी दास ने बताया था ,,जिसमें केवट ने कहा कि --रामचन्द्र जी आप और मैं एक ही जात के हैं ,,मैं नदी कि नावं खेता , और आप भवसागर की नाव खेते हो , हमारी जात एक ही है ,जैसे नाउ नाउ से , और धोबी धोबी से पारिश्रमिक नहीं लेता , तो वैसे एक केवट दूसरे केवट से कैसे पारिश्रमिक ले सकता है । और लिया तो मुझे कुटुंब से बाहर कर दिया जाएगा /यहाँ तक तो ठीक था ।
लेकिन जब डॉ अंबेडकर जॉन मुइर ,मैक्समूलर ,और M A शेरिंग पादरी , जैसे संस्कृतविज्ञों इंडोलॉजिस्ट से संस्कृत ग्रंथो को संस्कृत सीख कर, 1946 " शूद्र कौन थे " , जैसे ग्रन्थ की रचना करते हैं , और उसकी उत्पत्ति वेदों में खोजने निकल जाते हैं , तो हमारी मंशा पर भले ही सवाल न खड़े होते हों , लेकिन मेरे तथ्यपरकता पर तो संदेह की सुई घूम ही जाएगी
.आज न सही, कल सही ..............
उसी तरह पुर्तगालियों द्वारा ,, 1600 AD में जात के लिए के लिए Caste शब्द का प्रयोग किया गया । 1901 में जनगणनां Caste के आधार पर पहली बार करता है , और 2000 से ज्यादा जातियां , "नेसल बेस इंडेक्स " और सोशल hiearchy , के आधार पर .।
उसने एक "unfailing लॉ ऑफ़ caste " बनाया और बताया कि "भारत में नाक कि चौड़ाई उसके सामजिक स्टेटस के inversely proportionate होती है ।
दूसरी मह्हत्वपूर्ण बात ये है कि सोशल hierarchy के क्रम जो उसने लिस्ट बनाई उसको अल्फबेटिकल क्रम में न रखकर सोशल hierarchy के आधार पर ऊपर से नीचे कि और लिस्टिंग किया ।
यहीं से उस ऊंची और निचली या अगड़ी और पिछड़ी जातियों के एक नए सिद्धांत की रचना होती है , जिसके आधार पर सरकारें आज भी काम कर रहीं है ।हाल ही में जाटों को पिछड़ी जाति की लिस्ट में शामिल किया जाना सिर्फ इसी नजरिये से व्याख्यायित होता है ।
डॉ आंबेडकर खुद इस आधार को निराधार बताते हुए खंडन करते हैं , तो शायद एक ही तथ्य स्पस्ट होता है , कि वे तात्कालिक समय के एंथ्रोपोलॉजी जैसे विषयों में तो एक्सपर्ट थे ,लेकिन जब उन्होंने इतिहास की तरफ नजर उठाई तो , शायद कहीं फर्जी संस्कृत विदों के जाल में उलझ कर रह गये ।
और जब हमारे देश के विद्वान जो कॉपी एंड पेस्ट के , आधार पर न जाने कितनी पीएचडी ,लेते और देते रहते हैं , उन्होंने caste का अनुवाद जाति में करते हैं , तो आधुनिक भारत की तस्वीर सामने आती है।
A L Basham जैसे लोग शायद इसी को जाति की तरलता और rigidity ऑफ़ caste सिस्टम के नाम से बुलाये ।
लेकिन ये तो किसका काम है , आपको बता ही दिया लेकिन मानसिक रोग के मरीज तथाकथित दलित चिंतक इसको भी ब्राम्हण वाद के जिम्मे , ठोंक देते हैं ।
डॉ आंबेडकर को ये छूट दी जा सकती है , की उनके पास सूचना के श्रोत सीमित थे , इसलिए जिस भी निष्कर्ष पर वे पहुंचे , अगर वे होते , तो शायद उसको रेक्टिफी करते ।
लेकिन इन दलित चिंतकों को क्या कहा जाय ??
त तेरे से उतराई लेत कुटुंब से निकारिहो।
Outcastes - कुटुंब से निकारिहों।
तू तो उतारो भवसागर परमात्मा
औ मैं तो उतारूँ , घाट सुर सरि किनारे नाथ ।
नाइ से न नाइ लेत , धोबी न धुलाई लेत
त तेरे से उतराई लेत, कुटुंब से निकारिहयों ।
इसीको ईसाई विद्वानों ने ..Outcasts का नाम दिया । हिन्दू समाज में समाज को नियंत्रित करने के लिए एक व्यवस्था थी - जो उन मान्यताप्राप्त परम्पराओं का पालन नहीं करेगा उसको _"कुटुंब से निकारिहों " यानी जात-बाहर कर दिया जाता था । यानि उनको भिक्षा मांगकर अपना गुजारा करना पड़ता था । उनकी सारी व्यक्तिगत अधिकारों से वंचित कर कुटुंब और समाजबहिस्कृत कर दिया था ।
इस बात का वर्णन डॉ बुचनन ने अपनी पुस्तक में १८०७ में भी किया है - कि शूद्रों को अपने कुटुंब को संचालित करने के लिए ,उस समाज के बुजुर्ग आपसी सलाह के उपरांत किसी को सजा भी दे सकते थे ।
ये सामाजिक व्यवस्था ईसाइयत फैलाने में सबसे बड़ी बाधा थी । इसबात का जिक्र संस्कृत विद्वान मॅक्समुल्लर और पादरी M A शेरिंग दोनों ने लिखा है ।
इस लिए इस कुप्रथा का दानवीकरण करना ही पड़ेगा। और वही हुवा --इसी को outcasts कहा डॉ आंबेडकर ने ,,और आगे चलकर वर्ण व्यवस्था में एक और अंग के रूप में लिखा -"अवर्ण " ।
अब बांटे प्रमुखता से -
(१) जब इन -"कुटुंब से निकारिहों " को धनसम्पत्ति बाल बच्चे पत्नी ,सब का त्याग करना पड़ता था ,तो इनके वंश कैसे आगे बढ़ेंगे कैसे डॉ आंबेडकर के द्वारा वर्णित पांचवे वर्ण का निर्माण होगा ??
(२) ईसाई संस्कृत विद्वानों ने बताया वर्ण - यानि चमड़ी का रंग । तो ये नहीं बताया कि कौन सा रंग गोरा काला नीला पीला या सतरंगी ?? किस रंग का सवर्ण समाज था ??
(३) ....पांचवा वर्ण - अवर्ण । ये भी नहीं बताया कि इसका क्या मतलब होता है - बदरंग कि बिना रंग का ?? या discouloured , जो ईसाई mythology
में वर्णित अनंतकाल तक स्लेवरी में रहने के लिए नूह द्वारा श्रापित Ham के वंशज - जिसके पाप के कारण गॉड ने उसके वंशजों को "काला" रंग दे दिया ?
अभी मैं कल .Chandra Bhan Prasad जी जैसे एक विद्वान दलित चिंतक की timeline पर गया , तो उनके अनुसार मैकाले --" भारतीय इतिहास में शूद्रो और दलितों की शिक्षा का सूत्रधार था "/
मैं उनको अल्पज्ञ और अविज्ञ तो नहीं कह सकता , हाँ अनभिज्ञ या धूर्त और खड़ड़यंत्रकारी अवश्य कह सकता हूँ । क्योंकि जिन अंग्रेजों के प्रति आप इतने कृतज्ञ हैं , वे इतने ईमानदार अवश्य थे की जो डेटा उन्होंने एकत्रित किये तात्कालिक भारतीय समाजिक और सांस्कृत व्यवस्थाके सन्दर्भ में , वे इंडियन ऑफिस लाइब्रेरी लन्दन में अभी भी संरक्षित हैं ।
वही डेटा ये भी कहता है कि -" - " १८३० के आसपास मैकाले की शिक्षा पद्धति लागू होने के पहले- भारतीय स्कूलों में अंग्रेज कलेक्टरों द्वारा इकट्ठे किये डेटा के अनुसार - शूद्र छात्रों की संख्या ब्राम्हण छात्रों से चार गुना थी" ।
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डॉ त्रिभुवन सिंह
धर्मग्रंथों के चुनिन्दा उद्धरण देकर हिन्दुओं में व्याप्त तथाकथित जातीय भेदभाव को प्राचीन एवं शास्त्र सम्मत सिद्ध करने का वामपंथी एवं प्रचारक मजहबों के विद्वानों द्वारा निरंतर प्रयास होता रहा है | कभी एकलव्य के अंगूठे की बात हो अथवा किसी शम्बूक की दंतकथा हो, चुन चुन कर ऐसे संदर्भ निकाले जाते हैं जिनके माध्यम से हिन्दू समाज की एकता एवं समरसता पर प्रहार किया सके और बड़ी चालाकी से उन कथाओं एवं प्रसंगों को नकार दिया जाता है जो कि हिन्दू विभाजक एजेंडे के विरुद्ध होते हैं | ऐसे ही एक प्रसंग से परिचित होईये जो आँखें खोलने वाला है |
मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान् श्रीराम आदर्श पुत्र माने जाते हैं किन्तु भारतीय जन मानस श्रेष्ठ पुत्र की श्रेणी में जिस व्यक्ति का नाम श्रीराम से भी पहले रखता है वो एक शूद्र माता एवं वैश्य पिता की संतान श्रवण कुमार हैं | यह कोई कहने वाली बात नहीं है कि भारतीय समाज में श्रवण कुमार का क्या स्थान है| रामायण महाकाव्य में जिनका एक छोटा सा उल्लेख मात्र है वो श्रवण कुमार एक आदर्श पुत्र के रूप में रामायण के महानायक से प्रतिस्पर्धा करते हैं |
श्रवण कुमार का उल्लेख वाल्मीकि रामायण के अयोध्याकाण्ड के तिरसठवें सर्ग में आता है जब राजा दशरथ श्रीराम के वियोग में अपने पूर्व पाप कर्मों को याद करते हैं | उन्हें याद आता है कि एक बार पशु समझ कर बिना देखे ही शब्दवेधी वाण चलाकर उन्होंने नदी से जल भर रहे एक युवक की हत्या कर दी थी | उस युवक का करुण विलाप सुनकर राजा को अपनी भूल का ज्ञान हुआ कि जिसे वो नदी का जल पी रहा पशु समझ रहे हैं वो एक तपस्वी युवक था जो अपने अंधे माता -पिता के लिए जल भरने आया था | राजा को अपने कार्य पर पश्चाताप तो होता है किन्तु पुत्र की हत्या से दुखी अंधे वृद्ध दम्पति राजा को शाप दे जाते हैं कि जिस प्रकार हम पुत्र वियोग में तड़प –तड़प कर प्राण त्याग रहे हैं, तुम्हारी मृत्यु भी ऐसे ही होगी |
इस पूरे प्रसंग में, श्रवण कुमार जो कि वैश्य पिता एवं शूद्र माता कि संतान बताये गये हैं, के लिए अनेकों बार तपस्वी, ऋषि, ब्रम्ह्वादी एवं मुनिकुमार जैसे शब्दों का प्रयोग हुआ है | राजा दशरथ, श्रवण के पिता को भगवन एवं महात्मन जैसे शब्दों से संबोधित करते हैं | राजा दशरथ की पुत्र-वियोग में मृत्यु भी उसी शूद्र तपस्विनी एवं वैश्य तपस्वी के शाप का फल था| अतः अगली बार जब किसी प्रकार के जातीय भेदभाव अथवा कटुता के लिए हिन्दू धर्म को जिम्मेदार ठहरता कोई लेख पढ़ें तो विश्वास करने से पूर्व लिखने वाले की नियत एवं मूल संदर्भ ग्रन्थ अवश्य जाँच लें |
@vinay dubey
बाइबिल की वर्णव्यवस्था ही सही है ,भारतियों के लिए।
मीनाई , विमला और गुणादो ----यह ऑस्ट्रेलिया की तीन पहाड़ियों के नाम हैं। इन नामों से क्या लगता है ??? तथाकथित यूरेशिया मूल के आर्य वहां गए थे या ये भारतीय मूलनिवासियों के नाम हैं जो समय की धार के साथ बहते बहते, ऑस्ट्रेलिया पहुँच गए थे। है न अजब कहानी बिलकुल "अहिल्या" की तरह कि इन तीनो बहनो को भी इनके बाप ने पत्थर की शिला में तब्दील कर दिया था और इससे पहले कि वो इन्हे वापिस नारियों में बदलता उसकी मृत्यु हो गयी। बहरहाल चाहे ये कहानी आर्यों ने बनायीं या वहां के मूलनिवासियों ने लेकिन ऑस्ट्रेलिया में मूलनिवासी 200 साल बाद ( 1802 में ऑस्ट्रेलिया की खोज हुई थी ) मिल जुल कर विदेशियों के साथ समृद्ध जीवन बिता रहे हैं। और 150 सालों से भारत के मूलनिवासी आर्यों / विदेशियों को यूरेशिया भेजने का दिवास्वपन देख रहे है। क्यों ???
क्योंकि तथाकथित आर्यों ने वेदों और मनुस्मृति में लचीली और परिवर्तनीय वर्णव्यवस्था का प्रावधान किया था। लेकिन बाबा इस्लाम और बाइबल की वर्णव्यवस्था पढ़ना भूल गए। एक बार फिर संक्षेप में वेदो और मनुस्मृति में वर्णव्यवस्था की परिभाषा दोहरा देता हूँ, फिर बाइबिल की वर्णव्यवस्था को उद्घृत करता हूँ -----
"शूद्रो ब्राह्मणतामेति ब्राह्मणश्चैति शूद्रताम्। क्षत्रियाज्जातमेवं तु विद्या द्वैश्यात्तथैव च।"----
अर्थात श्रेष्ठ -अश्रेष्ठ कर्मो के अनुसार शूद्र ब्राह्मण और ब्राह्मण शूद्र हो जाता है। जो ब्राह्मण ,क्षत्रिय वैश्य और शूद्र के गुणों वाला हो वह उसी वर्ण का हो जाता है।
मुसलामानों की वर्णव्यवस्था के बारे में भान ही नहीं है अधिकांश लोगों को, जो की निम्न हैं।
1.) अशराफ़ श्रेणी में मुसलमानों कि उच्च बिरादरियां—जैसे कि सय्यद, शेख़, मुग़ल, पठान और मल्लिक/मलिक आदि वर्गीकृत की गई हैं!
2.) अजलाफ़ श्रेणी में मुसलमानों ने अपनी तथाकथित 'शूद्र / शुद्दर' तबके की या वैश्यकर्म प्रधान जातियां वर्गीकृत की हैं जैसे – तेली, जुलाहे, राईन, धुनिये , रंगरेज इत्यादि शामिल की जा सकती हैं!
3.) अरज़ाल श्रेणी में तथाकथित रूप से "मुसलमानों के दलित" या "अतिशूद्र मुस्लिम जातियां" हैं जैसे कि मेहतर, भंगी, हलालखोर, बक्खो, कसाई, इत्यादि!
लेकिन बाइबिल में जैसी वर्णव्यवस्था लिपिबद्ध की गयी है, क्या कभी मनुस्मिृति को न पढ़ कर सुनी सुनाई बातों पर यकीन करके कोसने वालों और मुल्लों और ईसाईयों के हाथों में खेलने वालों ने पढ़ी है क्या कभी ???
हिंदी में बाइबिल के जिस अध्याय में इसका विवरण दिया गया है उसका नाम है "प्रवक्ता ग्रन्थ" और अंग्रेजी में इसे SIRACH कहते है। इसमें लोकाचार के संदर्भ में विभिन्न रिश्तों पर मनुस्मृति की तरह नियम बताये गये हैं। ( हिंदी और इंग्लिश बाइबिल में सूक्तियों के क्रम में थोड़ा सा अंतर है )
"प्रवक्ता ग्रन्थ" 38:25 --- अवकाश मिलने के कारण ही शास्त्री को प्रज्ञा ( Wisdom) प्राप्त होती है। जो काम धंधों में नहीं फँसा रहता वाही प्रज्ञ (knowledgeable) बन सकता है।
38:26 --- जो हल चलाता और घमंड से पैना माँजता है ,जो बैलों को जोतता है और उनके कामों में लगा रहता है, जो अपने साँड़ों की ही बात करता है उसे प्रज्ञा कैसे प्राप्त हो सकती है ?
38:28 ---- यही हाल प्रत्येक शिल्पकार और हर कारीगर का है जो दिन रात अपने काम में लगा रहता है .......
38:29 ----- यही हाल लोहार का है, जो अपनी निकाई के पास बैठ कर मन लगा कर लोहे का काम करता है ………………
38:32 ---- यही हाल कुम्हार का है ,जो अपने चाक के पास बैठ कर उसे अपने पैरों से घुमाता रहता है ..........
38 :36 इनके बिना कोई नगर नहीं बसाया जा सकता।
Now read the next points carefully ----
38 :37 --- इनके बिना न तो कोई रह सकता है और न कोई आ जा सकता है, किन्तु नगर परिषद में इनसे परामर्श नहीं लिया जायेगा। इन्हे सार्वजानिक सभाओं में प्रमुख स्थान नहीं दिया जायेगा।
38:38 --- ये न्यायधीश के आसान पर नहीं बैठेंगे। ये न तो संहिता के निर्णय समझते है और न ही शिक्षा एवं न्याय के क्षेत्र में योग देते हैं। शासकों में से इनमे से कोई नहीं।
38:39 --- किन्तु ये ईश्वर की सृष्टि बनाये रखते हैं। इनका काम ही इनकी प्रार्थना है।
इसी तरह से 39: 1 से 15 तक पढ़े लिखे वर्ग( भारतीय भाषा में ब्राह्मण ) के गुण एवं कर्म बताये गए हैं। उदहारण --
39 :1 ----- उस व्यक्ति की बात दूसरी है ,जो पूरा ध्यान लगा कर सर्वोच्च प्रभु की संहिता का मनन करता है ;जो प्राचीन काल के प्रज्ञा साहित्य का और नबियों के उद्गारों का अध्ययन करता है।
इसी प्रकार नौकरों को कैसे रखना चाहिए उसकी एक बानगी देखिये !
33:25 ---गधे के लिए चारा ,लाठी और बोझ; दास के लिए रोटी , दंड और परिश्रम।
33 :26--- नौकर को काम में लगाओ और तुम को आराम मिलेगा।
33:27 ----जुआ ( बैल के गले में डालने वाला)और लगाम गर्दन झुकाती है। कठोर परिश्रम नौकर को अनुसाशन में रखता है।
33 28 --- टेढ़े नौकर के लिए यंत्रणा और बेड़ियां। उसे काम में लगाओ, नहीं तो वो अलसी हो जायेगा।
बहुत से नवबौद्ध या छद्मनामधारी हिन्दू देवी देवताओं के फोटोशॉप करके अश्लील चित्र डाल रहे हैं और अश्लील टिप्पणियां कर रहे हैं उनके लिए बाइबिल के इसी अध्याय में लिखा है --
23:20 ---जो अश्लील बातचीत का आदी बन गया है, वो ज़िन्दगी भर सभ्य नहीं बनेगा।
वैसे जिनके लिए मैं यह पोस्ट लिख रहा हूँ ,पता नहीं वे इससे कोई सबक लेंगे भी या नहीं लेकिन बाइबिल ने उनके लिए भी लिखा है।
22:7 --- मूर्ख को शिक्षा देना फूटे घड़े के ठीकरे जोड़ने जैसा है।
22:8 अनसुनी बात करने वाले, से बात करना गहरी नींद में सोने वाले को जगाने जैसा है। ---अन्त में वो पूछेगा ;"बात क्या है ??"
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विवेक मिश्रा जी
जात कि जाति ???
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माँगी नावं न केवट आना ,कहत तुम्हार मर्म मैं जाना ।
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निषाद कहत सुनइ रघुराई ,मैं न लेहूँ प्रभु तेरी उतराई
हमरे कुल की रीति दयानिधि,संत मिले त करब सेवकाई ।
रीति छोड़ उनरीति न करिहौं ,मैं न लेहूँ प्रभु तेरी उतराई।
नदी नावं के हमहि खेवैया, औ भवसागर के श्री रघुराई ।
तुलसी दास यही वर मांगू , उहवाँ न लागै प्रभु मेरी उतराई ।
--जात पांत न्यारी, हमारी न तिहारी नाथ ,
कहबे को केवट , हरि निश्चय उपचारिये
तू तो उतारो भवसागर परमात्मा
औ मैं तो उतारूँ , घाट सुर सरि किनारे नाथ ।
नाइ से न नाइ लेत , धोबी न धुलाई लेत
त तेरे से उतराई लेत, कुटुंब से निकारिहयों।
जैसे प्रभु दीनबंधु ,तुमको मैं उतारयो नाथ ।
तेरे घाट जैहों नाट मोको भी उतारियों
उहवाँ न लागै प्रभु मेरी उतराई ।
मैं न लेहूँ प्रभु तेरी उतराई----चुन्नू लाल मिश्रा केवट राम संवाद /
जात कि जाति ???
...एक जात शब्द को तुलसी दास ने बताया था ,,जिसमें केवट ने कहा कि --रामचन्द्र जी आप और मैं एक ही जात के हैं ,,मैं नदी कि नावं खेता , और आप भवसागर की नाव खेते हो , हमारी जात एक ही है ,जैसे नाउ नाउ से , और धोबी धोबी से पारिश्रमिक नहीं लेता , तो वैसे एक केवट दूसरे केवट से कैसे पारिश्रमिक ले सकता है । और लिया तो मुझे कुटुंब से बाहर कर दिया जाएगा /यहाँ तक तो ठीक था ।
लेकिन जब डॉ अंबेडकर जॉन मुइर ,मैक्समूलर ,और M A शेरिंग पादरी , जैसे संस्कृतविज्ञों इंडोलॉजिस्ट से संस्कृत ग्रंथो को संस्कृत सीख कर, 1946 " शूद्र कौन थे " , जैसे ग्रन्थ की रचना करते हैं , और उसकी उत्पत्ति वेदों में खोजने निकल जाते हैं , तो हमारी मंशा पर भले ही सवाल न खड़े होते हों , लेकिन मेरे तथ्यपरकता पर तो संदेह की सुई घूम ही जाएगी
.आज न सही, कल सही ..............
उसी तरह पुर्तगालियों द्वारा ,, 1600 AD में जात के लिए के लिए Caste शब्द का प्रयोग किया गया । 1901 में जनगणनां Caste के आधार पर पहली बार करता है , और 2000 से ज्यादा जातियां , "नेसल बेस इंडेक्स " और सोशल hiearchy , के आधार पर .।
उसने एक "unfailing लॉ ऑफ़ caste " बनाया और बताया कि "भारत में नाक कि चौड़ाई उसके सामजिक स्टेटस के inversely proportionate होती है ।
दूसरी मह्हत्वपूर्ण बात ये है कि सोशल hierarchy के क्रम जो उसने लिस्ट बनाई उसको अल्फबेटिकल क्रम में न रखकर सोशल hierarchy के आधार पर ऊपर से नीचे कि और लिस्टिंग किया ।
यहीं से उस ऊंची और निचली या अगड़ी और पिछड़ी जातियों के एक नए सिद्धांत की रचना होती है , जिसके आधार पर सरकारें आज भी काम कर रहीं है ।हाल ही में जाटों को पिछड़ी जाति की लिस्ट में शामिल किया जाना सिर्फ इसी नजरिये से व्याख्यायित होता है ।
डॉ आंबेडकर खुद इस आधार को निराधार बताते हुए खंडन करते हैं , तो शायद एक ही तथ्य स्पस्ट होता है , कि वे तात्कालिक समय के एंथ्रोपोलॉजी जैसे विषयों में तो एक्सपर्ट थे ,लेकिन जब उन्होंने इतिहास की तरफ नजर उठाई तो , शायद कहीं फर्जी संस्कृत विदों के जाल में उलझ कर रह गये ।
और जब हमारे देश के विद्वान जो कॉपी एंड पेस्ट के , आधार पर न जाने कितनी पीएचडी ,लेते और देते रहते हैं , उन्होंने caste का अनुवाद जाति में करते हैं , तो आधुनिक भारत की तस्वीर सामने आती है।
A L Basham जैसे लोग शायद इसी को जाति की तरलता और rigidity ऑफ़ caste सिस्टम के नाम से बुलाये ।
लेकिन ये तो किसका काम है , आपको बता ही दिया लेकिन मानसिक रोग के मरीज तथाकथित दलित चिंतक इसको भी ब्राम्हण वाद के जिम्मे , ठोंक देते हैं ।
डॉ आंबेडकर को ये छूट दी जा सकती है , की उनके पास सूचना के श्रोत सीमित थे , इसलिए जिस भी निष्कर्ष पर वे पहुंचे , अगर वे होते , तो शायद उसको रेक्टिफी करते ।
लेकिन इन दलित चिंतकों को क्या कहा जाय ??
त तेरे से उतराई लेत कुटुंब से निकारिहो।
Outcastes - कुटुंब से निकारिहों।
तू तो उतारो भवसागर परमात्मा
औ मैं तो उतारूँ , घाट सुर सरि किनारे नाथ ।
नाइ से न नाइ लेत , धोबी न धुलाई लेत
त तेरे से उतराई लेत, कुटुंब से निकारिहयों ।
इसीको ईसाई विद्वानों ने ..Outcasts का नाम दिया । हिन्दू समाज में समाज को नियंत्रित करने के लिए एक व्यवस्था थी - जो उन मान्यताप्राप्त परम्पराओं का पालन नहीं करेगा उसको _"कुटुंब से निकारिहों " यानी जात-बाहर कर दिया जाता था । यानि उनको भिक्षा मांगकर अपना गुजारा करना पड़ता था । उनकी सारी व्यक्तिगत अधिकारों से वंचित कर कुटुंब और समाजबहिस्कृत कर दिया था ।
इस बात का वर्णन डॉ बुचनन ने अपनी पुस्तक में १८०७ में भी किया है - कि शूद्रों को अपने कुटुंब को संचालित करने के लिए ,उस समाज के बुजुर्ग आपसी सलाह के उपरांत किसी को सजा भी दे सकते थे ।
ये सामाजिक व्यवस्था ईसाइयत फैलाने में सबसे बड़ी बाधा थी । इसबात का जिक्र संस्कृत विद्वान मॅक्समुल्लर और पादरी M A शेरिंग दोनों ने लिखा है ।
इस लिए इस कुप्रथा का दानवीकरण करना ही पड़ेगा। और वही हुवा --इसी को outcasts कहा डॉ आंबेडकर ने ,,और आगे चलकर वर्ण व्यवस्था में एक और अंग के रूप में लिखा -"अवर्ण " ।
अब बांटे प्रमुखता से -
(१) जब इन -"कुटुंब से निकारिहों " को धनसम्पत्ति बाल बच्चे पत्नी ,सब का त्याग करना पड़ता था ,तो इनके वंश कैसे आगे बढ़ेंगे कैसे डॉ आंबेडकर के द्वारा वर्णित पांचवे वर्ण का निर्माण होगा ??
(२) ईसाई संस्कृत विद्वानों ने बताया वर्ण - यानि चमड़ी का रंग । तो ये नहीं बताया कि कौन सा रंग गोरा काला नीला पीला या सतरंगी ?? किस रंग का सवर्ण समाज था ??
(३) ....पांचवा वर्ण - अवर्ण । ये भी नहीं बताया कि इसका क्या मतलब होता है - बदरंग कि बिना रंग का ?? या discouloured , जो ईसाई mythology
में वर्णित अनंतकाल तक स्लेवरी में रहने के लिए नूह द्वारा श्रापित Ham के वंशज - जिसके पाप के कारण गॉड ने उसके वंशजों को "काला" रंग दे दिया ?
अभी मैं कल .Chandra Bhan Prasad जी जैसे एक विद्वान दलित चिंतक की timeline पर गया , तो उनके अनुसार मैकाले --" भारतीय इतिहास में शूद्रो और दलितों की शिक्षा का सूत्रधार था "/
मैं उनको अल्पज्ञ और अविज्ञ तो नहीं कह सकता , हाँ अनभिज्ञ या धूर्त और खड़ड़यंत्रकारी अवश्य कह सकता हूँ । क्योंकि जिन अंग्रेजों के प्रति आप इतने कृतज्ञ हैं , वे इतने ईमानदार अवश्य थे की जो डेटा उन्होंने एकत्रित किये तात्कालिक भारतीय समाजिक और सांस्कृत व्यवस्थाके सन्दर्भ में , वे इंडियन ऑफिस लाइब्रेरी लन्दन में अभी भी संरक्षित हैं ।
वही डेटा ये भी कहता है कि -" - " १८३० के आसपास मैकाले की शिक्षा पद्धति लागू होने के पहले- भारतीय स्कूलों में अंग्रेज कलेक्टरों द्वारा इकट्ठे किये डेटा के अनुसार - शूद्र छात्रों की संख्या ब्राम्हण छात्रों से चार गुना थी" ।
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डॉ त्रिभुवन सिंह
deepak raj mirdha
yog teacher , Acupressure therapist and blogger
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