प्राचीन भारत मे मानचित्र निर्माण
पुराणों में दो प्रकार के द्वीपों का वर्णन है-एक पृथ्वी के महादेश तथा दूसरे सूर्य के चारों तरफ ग्रहों की परिक्रमा से बने हुये क्षेत्र। ये ही वलयाकार या वृत्ताकार हैं (पृथ्वी से देखने पर)। पृथ्वी के व्यास को १००० योजन माना गया है (प्रायः १२.८ किमी. का १ योजन), अतः आकाश में पृथ्वी सहस्र-दल पद्म या सहस्रपाद है। ३ प्रकार की पृथ्वी है और सबमें द्वीपों, पर्वतों नदियों के नाम उसी प्रकार हैं जैसे पृथ्वी ग्रह पर हैं। ३ पृथ्वी हैं-सूर्य-चन्द्र दोनों से प्रकाशित पृथ्वी ग्रह, सूर्य का प्रकाश क्षेत्र (३० धाम तक (ऋक् १०/१९८/३), सूर्य प्रकाश की अन्तिम सीमा जहां वह विन्दु मात्र दीखता है (सूर्य सिद्धान्त १२/८२, ऋक् १/२२/२०-विष्णु सूर्य का परमपद)। हर पृथ्वी की तुलना में उसका आकाश उतना ही बड़ा है, जितना मनुष्य की तुलना में पृथ्वी ग्रह।रविचन्द्रमसोर्यावन्मयूखैरवभास्यते। स समुद्रसरिच्छैला पृथिवी तावती स्मृता॥३॥ यावत् प्रमाणा पृथिवी विस्तारपरिमण्डला। नभस्तावत् प्रमाणं वै व्यासमण्डलतो द्विज॥४॥ (विष्णु पुराण, २/७)
स्पष्टतः १००० योजन व्यास की पृथ्वी पर १६ करोड़ योजन पुष्कर द्वीप नहीं हो सकता है। पृथ्वी के द्वीपों का अनियमित आकार है, वृत्ताकार नहीं है।
कई लोग अमेरिका, आस्ट्रेलिया आदि को छोड़ कर पृथ्वी के ७ द्वीपों का वर्णन करते हैं। किन्तु तुर्की की नौसेना के पास एक पुराना नक्शा था जिसमें अण्टार्कटिका के २ स्थल भाग तथा दोनों अमेरिका का नक्शा था। यह नौसेना प्रमुख ने नाम पर पिरी रीस नक्शा कहा जाता है। इसी के आधार पर कोलम्बस ने अमेरिका यात्रा की योजना बनाई थी। यदि अमेरिका नहीं होता तो उसे योजना की तुलना में भारत पहुंचने के लिये १०-१२ गुणा अधिक जाना पड़ता।
एसिया जम्बू द्वीप, अफ्रीका कुश द्वीप, यूरोप प्लक्ष, उत्तर अमेरिका क्रौञ्च, दक्षिण अमेरिका पुष्कर तथा आस्ट्रेलिया शक (या अग्नि कोण में अग्नि या अंग द्वीप) था। आठवां अण्टार्कटिका अनन्त या यम (जोड़ा) द्वीप था।
नक्शा बनाने के लिये उत्तर और दक्षिण गोलार्धों को ४-४ भाग में नक्शा बनता था, जिनको भू-पद्म का ४ दल कहा गया है। उत्तर भाग के ४ नक्शे ४ रंग में बनते थे जिनको मेरु के ४ पार्श्वों का रंग कहा है। उज्जैन के दोनों तरफ (पृर्व से पश्चिम) ४५-४५ अंश भारत दल है। विषुव से ध्रुव तक आकाश के ७ लोकों की तरह ७ लोकों का विभाजन है-विन्ध्य तक भू, हिमालय तक भुवः, हिमालय स्वर्ग (त्रिविष्टप्), चीन महः (महान् से हान् जाति), मंगोलिया जनः, साइबेरिया तपस् (स्टेपीज), ध्रुव वृत्त सत्य लोक हैं। भारत के पश्चिम केतुमाल, पूर्व में भद्राश्व, तथा विपरीत दिशा में कुरु दल हैं।
उत्तर के अन्य ३ दल को ३ तल कहते हैं। भारत के पश्चिम अतल (उसके बाद का समुद्र अतलान्तक), पूर्व में सुतल, उससे पूर्व पाताल हैं। भारत के दक्षिण तल या महातल (दोनों को कुमारिका खण्ड कहते थे, आज भी उसे भारत महासागर कहते हैं), अतल के दक्षिण तलातल, पाताल के दक्षिण रसातल, तथा सुतल के दक्षिण वितल हैं। गोल पृथ्वी का समतल नक्शा बनाने पर ध्रुव प्रदेश में अनन्त माप हो जाती है। उत्तरी ध्रुव जल में होने के कारण (आर्यभट) वहां कोई समस्या नहीं है, पर दक्षिणी ध्रुव स्थल पर है, जिसका अलग से नक्शा बनाना पड़ता है। अनन्त माप होने के कारण यह अनन्त द्वीप है।
स्वायम्भुव मनु के समय के ४ नगर परस्पर ९० अंश पर थे-इन्द्र का अमरावती (भारत का पूर्वी नगर, किष्किन्धा काण्ड के अनुसार ७ द्वीपों वाले यव द्वीप का पूर्व भाग), पश्चिम में यम की संयमनी (यमन, अम्मान, सना आदि), पूर्व में वरुण की सुखा, विपरीत दिशा में सोम की विभावरी।
वैवस्वत मनु के समय से अन्य ४ सन्दर्भ नगर हुये-लंका या उज्जैन, पूर्व में यमकोटिपत्तन (यम द्वीप अण्टार्कटिका जैसा जोडा द्वीप न्यूजीलैण्ड के दक्षिण पश्चिम, पश्चिम में रोमकपत्तन (मोरक्को के पश्चिम समुद्र तट पर), विपरीत में सिद्धपुर।
उज्जैन या लंका से ६-६ अंशके अन्तर पर ६० कालक्षेत्र थे जो सूर्य क्षेत्र, लंका या मेरु कहे जाते हैं। लंका का समय पृथ्वी का समय था अतः उसके राजा को कुबेर कहते थे (कु = पृथ्वी, बेर = समय) उसी देशान्तर पर उज्जैन में महाकाल हैं। इसके पूर्व पहला कालक्षेत्र पर कालहस्ती है। उसी रेखा पर चिदम्बरम्, केदारनाथ आदि हैं। इससे ठीक १८० अंश पूर्व मेक्सिको का सूर्य पिरामिड है। किष्किन्धाकाण्ड (४०/५४, ६४) के अनुसार पूर्व के अन्त का चिह्न देने के लिये वहां ब्रह्मा ने द्वार बनाया था। उज्जैन से ४२ अंश पूर्व क्योटो (जापान की पुरानी राजधानी), ४२ अंश पश्चिम हेलेस्पौण्ट, ७२ अंश पश्चिम लोर्डेस (फ्रांस पूर्व सीमा), ७८ अंश पश्चिम स्टोनहेन्ज (लंकाशायर) आदि हैं।
कैलिफोर्निया = कपिलारण्य कैसे? सूर्यसिद्धान्त के अनुसार ०० देशान्तर लंका (प्राचीन लंका लक्कादीव-मालदीव के बीच था, वर्तमान श्रीलंका सिंहल है) या उज्जैन सेगुजरता था। उससे ९० अंश पूर्व यम-कोटि-पत्तन था। यमल = जोड़ा, यम दक्षिण दिशा का स्वामी है, सबसे दक्षिण ध्रुव प्रदेश है जहां जोड़े भूखण्ड हैं अतः यह यमद्वीप है। स्मतल पार् नक्शा बनाने से इसका आकार ध्रुव के पास अनन्त हो जायेगा अतः इसे अनन्त द्वीप भी कहते थे (भागवत आदि पुराणों में)। इसके निकट मुख्य भूमि न्यूजीलैण्ड भी जोड़ा भूमि है अतः यह यमकोटि (कोटि = सीमा) है। इसका दक्षिणी पश्चिमी कोटि पत्तन (बन्दरगाह) था जो उज्जैन से ९० अंश पूर्व है। उससे पुनः ९० अंश पूर्व सिद्धपुर है। यह पूर्व दिशा का अन्त होगा अतः इसका चिह्न देने के लिये ब्रह्मा ने एक द्वार (पिरामिड) बनाया था (रामायण, किष्किन्धा काण्ड ४०/५४, ६४)। सम्भवतः इसे सूर्य मन्दिर कहते थे (मेक्सिको में)। सिद्धपुर नाम से अनुमान हुआ कि यहां के लोग सिद्ध कहे जाते थे। गीता में भगवान् ने अपने को सिद्धों में कपिल मुनि कहा है, अतः यह कपिल का अरण्य हुआ-कपिलारण्य = कैलिफोर्निया। उज्जैन से ९० अंश पश्चिम रोमकपत्तन था-पत्तन = बन्दरगाह,अतः यह मोरक्को के प्श्चिमी भाग के समुद्र तट पर होगा। यहां के लोग बाद में इटली में बसे अतः उसे रोम कहा गया। इसी कारण यहां के हनिबाल ने रोम पर आक्रमण किया था। (सूर्य सिद्धान्त १२/३८-४२)-भूवृत्तपादे पूर्वस्यां यमकोटीति विश्रुता। भद्राश्ववर्षे नगरी स्वर्णप्राकारतोरणा॥३८॥
याम्यायां भारते वर्षे लङ्का तद्वन् महापुरी। पश्चिमे केतुमालाख्ये रोमकाख्या प्रकीर्तिता॥३९॥
उदक् सिद्धपुरी नाम कुरुवर्षे प्रकीर्तिता (४०) भूवृत्तपादविवरास्ताश्चान्योन्यं प्रतिष्ठिता (४१)
वाल्मीकि रामायण किष्किन्धा काण्ड, अध्याय ४०-त्रिशिराः काञ्चनः केतुमालस्तस्य महात्मनः॥५३॥पूर्वस्यां दिशि निर्माणं कृतं तत् त्रिदशेश्वरैः॥५४॥
पूर्वमेतत् कृतं द्वारं पृथिव्या भुवनस्य च। सूर्यस्योदयनं चैव पूर्वा ह्येषा दिगुच्यते ॥६४॥
महाराष्ट्र नामकरण कैसे? भारत एक राष्ट्र है जो पृथु, इन्द्र, वैवस्वत मनु, इक्ष्वाकु, मान्धाता से लेकर भीष्म और युधिष्ठिर तक विख्यात था जिनका सम्वाद महाभारत, भीष्मपर्व, अध्याय १०में है-
अत्र ते वर्णयिष्यामि वर्षं भारत भारतम्। प्रियमिन्द्रस्य देवस्य मनोर्वैवस्वतस्य च॥५॥
पृथोश्च राजन्वैन्यस्य तथेक्ष्वाकोर्महात्मनः। ययातेरम्बरीषस्य मान्धातुर्नहुषस्य च॥६॥
तथैव मुचुकुन्दस्य शिबेरौशीनरस्य च। ऋषभस्य तथैलस्य नृगस्य नृपतेस्तथा॥७॥
अन्येषां च महाराज क्षत्रियाणां बलीयसाम्। सर्वेषामेव राजेन्द्र प्रियं भारत भारतम्॥८॥
भारतवर्ष की श्रेष्ठता विष्णु पुराण २/३ में है जहां केवल भारत को कर्म भूमि कहा गया है-
उत्तरं यत्समुद्रस्य हिमाद्रेश्चैव दक्षिणम्। वर्षं तद्भारात्ं नाम भारती यत्र सन्ततिः॥१॥
नवयोजन साहस्रो विस्तारोऽस्य महामुने। कर्मभूमिरियं स्वर्गमपवर्ग च गच्छताम्॥२॥
महेन्द्रो मलयः सह्यः शुक्तिमानृक्षपर्वतः। विन्ध्यश्च पारियात्रश्च सप्तात्र कुलपर्वताः॥३॥
अतः सम्प्राप्यते स्वर्गो मुक्तिमस्मात्प्रयान्ति वै। तिर्यक्त्वं नरकं चापि यान्त्यतः पुरुषा मुने॥४॥
इतः स्वर्गश्च मोक्षश्च मध्यं चान्तश्च गमते। न खल्वन्यत्र मर्त्यानां कर्मभूमौ विधीयते॥५॥
पुरुषैर्यज्ञपुरुषो जम्बूद्वीपे सदेज्यते। यज्ञैर्यज्ञमयो विष्णुरन्यद्वीपेषु चान्यथा॥२१॥
अत्रापि भारतं श्रेष्ठं जम्बूद्वीपे महामुने। यतो हि कर्मभूरेषा ह्यतोऽन्या भोगभूमयः॥२२।।
गायन्ति देवाः किल गीतकानि धन्यास्तु ते भारतभूमिभागे। स्वर्गापवर्गास्पदमार्गभूते भवन्ति भूयः पुरुषाः सुरत्वात्॥२३॥
इन वर्णनों के अनुसार भारत को ही राष्ट्र या महाराष्ट्र कहना चाहिये था, इस नाम के राज्य को अंगराष्ट्र या मुख्य अंग कहना उचित होता। मध्ययुग में यहां के राज्य को राष्ट्रकूट कहते थे। महाराष्ट्र नाम का प्रथम उल्लेख पद्मपुराण के भागवत माहात्म्य में है-अहं भक्तिरिति ख्याता इमौ मे तनयौ मतौ। ज्ञान वैराग्यनामानौ कालयोगेन जर्जरौ॥४५॥
उत्पन्ना द्रविडे साहं वृद्धिं कर्णाटके गता। क्वचित् क्वचित् महाराष्ट्रे गुर्जरे जीर्णतां गता॥४८॥
तत्र घोर कलेर्योगात् पाखण्डैः खण्डिताङ्गका। दुर्बलाहं चिरं जाता पुत्राभ्यां सह मन्दताम्॥४९॥
वृन्दावनं पुनः प्राप्य नवीनेव सुरूपिणी। जाताहं युवती सम्यक् श्रेष्ठरूपा तु साम्प्रतम्॥५०॥
(पद्म पुराण उत्तर खण्ड श्रीमद् भागवत माहात्म्य, भक्ति-नारद समागम नाम प्रथमोऽध्यायः)
यहां ब्रिटिश युग की शिक्षा के विपरीत भक्ति और ज्ञान का जन्म दक्षिण से हुआ और उसका प्रसार क्रमशः उत्तर की तरफ हुआ। बाहर से आकर आर्यों ने वैदिक सभ्यता को दक्षिण पर नहीं थोपा। आकाश में सृष्टि का आरम्भ अप् से हुआ-अप एव ससर्जादौ (मनुस्मृति १/८)। अप् = पदार्थ का समरूप विस्तार। उसमें गति होने से विभिन्न द्रव्यों का मिश्रण होता है और नया पदार्थ उत्पन्न होता है। द्रव्य के भीतर की इस मिश्रण गति को मातरिश्वा कहते हैं क्योंकि यह माता के समान अपने गर्भ में सृष्टि करता है। गति रूप होने से इसका अर्थ वायु भी है-तस्मिन्नपो मातरिश्वा दधाति (ईशावास्योपनिषद् ४)। इसी प्रकार दक्षिण भारत भी समुद्री यात्रा द्वारा विश्व के सम्पर्क में था अतः भारत सभी देशों के लिये आचरण का प्रमाण था। मलयालम-मलयेसिया। अनाम (आन्ध्र)-वियतनाम। कन्याकुमारी-केन्या। मुम्बई-मोम्बासा। अंग (पश्चिम बंग)-अंग या अग्नि द्वीप (आस्ट्रेलिया-वायुपुराण), चम्पा (भागलपुर)-चम्पा (कम्बोडिया) आदि। समुद्रीक्षेत्र से सभ्यता का विकास होने से इसे द्रविड़ कहा गया। यह व्यापार का केन्द्र था जहां पैसा भी द्रव्य की तरह बहता है, अतः द्रविड़ = धन, द्रव्य = पैसा।
ज्ञान का विस्तार कर्णाटक में हुआ। इसका मूल वेद है जो मनुष्य द्वारा विश्व का अनुभव है। अनुभव ५ ज्ञानेन्द्रियों द्वारा है, जिसमें प्रथम माध्यम शब्द है जो मूल तत्त्व आकाश का गुण है। अतः इसकी क्रिया श्रुति का अर्थ वेद है। श्रुति का ग्रहण कर्ण से होता है अतः इसके विकास का स्थान कर्णाटक हुआ। उसके बाद वैदिक ज्ञान का जहां तक विस्तार हुआ वह क्षेत्र महाराष्ट्र होगा-महः = प्रभाव क्षेत्र या विस्तार।
विस्तार का एक माध्यम लिपि है जिसका आरम्भ बृहस्पति ने किया। उनको गणपति या ब्रह्मणस्पति भी कहा गया है। गण-पति= वर्णों के या मनुष्यों के गण का पति। ब्रह्मणस्पति = ब्रह्मा द्वारा अधिकृत। इस कारण उनके स्थान को ऋग्वेद (२/२३) में महान, ज्येष्ठ कहा गया है-
गणानां त्वा गणपतिं हवामहे कविं कवीनामुपमश्रवस्तम्।
ज्येष्ठराजं ब्रह्मणां ब्रह्मणस्पत आ नः शृण्वन्नृतिभिः सीद सादनम्॥१॥
देवाश्चित्ते असुर्य प्रचेतसो बृहस्पते यज्ञियं भागमानशुः।
उस्राइव सूर्यो ज्योतिषा महो विश्वेपाभिज्जनिता ब्रह्मणामसि॥२॥
सुनीतिभिर्नयसि त्रायसे जनं यस्तुभ्यं दाशान्न तमंहो अश्नवत्।
ब्रह्मद्विषस्तपनो मन्युमीरसि बृहस्पते महि ते महित्वनम्॥४॥
बृहस्पते अति यदर्यो अर्हाद्द्युमद्विभाति क्रतुमज्जनेषु।
यद्दीदतच्छवस ऋतप्रजात तदस्मासु द्रविणं धेहि चित्रम्॥१५॥
ऋत का क्षेत्र उत्तर का समतल कृषिप्रधान भाग है, द्रविण समुद्र तट है। दोनों का समन्वय स्थान महाराष्ट्र हुआ जहां लिपि का एकीकरण हुआ। पहले शब्दों की रचना हुयी, तब लेखर्षभ इन्द्र ने उच्चारण स्थान के आधार पर उनको वर्णों में व्याकृत किया जिसको व्याकरण कहा गया।
बृहस्पते प्रथमं वाचा अग्रं यत्प्रैरत नामधेयं दधानाः।
यदेषां श्रेष्ठं यदरिप्रमासीत्प्रेणा तदेषां निहितं गुहाविः॥ (ऋग्वेद १०/७१/१)
यही ब्रह्मा द्वारा कर्मों तथा संस्थाओं के अनुसार नामकरण है जो वेद पर आधारित है-
सर्वेषां तु स नामानि कर्माणि च पृथक् पृथक्। वेद शब्देभ्य एवादौ पृथक् संस्थाश्च निर्ममे॥ (मनु स्मृति १/२१)
७ संस्थाओं के कारण ७ प्रकार की लिपि हुई-यास्सप्त संस्था या एवैतास्सप्त होत्राः प्राचीर्वषट् कुर्वन्ति ता एव ताः। (जैमिनीय ब्राह्मण उपनिषद् १/२१/४)
साभार अरुण उपाध्याय
Hr. deepak raj mirdha
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