ऐतिहासिक राम
साभार -गुंजन अग्रवाल
अखिल लोकनायक, अनन्तकोटि ब्रह्माण्ड-परिपालक, जगज्जन्मादिहेतु, अनुग्रह-विग्रह, सर्वकरण-समर्थ, कौसल्यानन्दन, दशरथतनय, रघुकुलशिरोमणि, सच्चिदानन्द, मर्यादापुरुषोत्तम भगवान् श्रीराम भारतीय आदर्श के मूर्तिमान् प्रतीक हैं। श्रीराम को परब्रह्म का अवतार माना गया है, जो इस जगत् में मर्यादाओं की रक्षा के लिए अवतरित हुए। इसलिए उन्हें 'मर्यादापुरुषोत्तम' अर्थात् मानव मर्यादायुक्त पुरुषोत्तम कहा जाता है। सदाचार और धर्म-संस्थापन ही उनका मुख्य उद्देश्य था। वास्तव में श्रीराम का जीवन ही भारतीय संस्कृति है। इसी कारण अटक से कटक तक और काश्मीर से कन्याकुमारी तक जिस कथा ने भारतीय जनमानस को सर्वाधिक रूप से प्रभावित किया है, वह रामकथा है। संसार की सभी प्रमुख भाषाओं में रामकथा किसी-न-किसी रूप में विद्यमान है।
अस्तु! सारांश यह है कि राम की मर्यादापुरुषोत्तमता ही उन्हें इतना लोकप्रिय बनाने में सक्षम हुई और उसी ने उन्हें विष्णु के अवतारों में परमपूज्य आसन पर प्रतिष्ठित किया। किन्तु आज उन्हीं राम की कथा सन्देह की वस्तु बना दी गई है। पाश्चात्य विद्वानों को तो रामायण की घटना का मूल तक इतिहास के रूप में अग्राह्य है। लासेन और अल्ब्रेट वेबर (1825-1901) के मत से रामायण अनार्य दक्षिण की आर्यों द्वारा विजय और वहाँ उनकी संस्कृति के प्रचार का आलंकारिक निरूपण-मात्र है। आर्थर एंटोनी मैक्डॉनल (1854-1930) और हर्मन जॉर्ज जैकोबी (1850-1937) का भी इसके विरुद्ध यह विश्वास है कि रामायण भारतीय धर्म-विश्वास की काल्पनिक अभिसृष्टि है। इस व्याख्या के अनुसार राम इन्द्र हैं और उनका रावण से युद्ध ऋग्वेद के प्राचीन इन्द्र-वृत्त का पिछला रूप है। इस प्रकार के अनेक मत, जो पाश्चात्य विद्वानों ने प्रस्तुत किए हैं, उनसे रामायण, विद्वानों की कल्पना और उड़ान की भूमि बन गया है।
पाश्चात्य विद्वानों के भी गुरु कुछ भारतीय 'विद्वान्' हैं, जो राम के देश भारतवर्ष में रहकर और राम की रोटी खाकर राम को आख्यायिक— कथामात्र मानते हैं। केवल शिलालेखों एवं ताम्रपत्रों के अंधभक्त देवदत्त रामकृष्ण भाण्डारकर (1875-1950) दम्भपूर्वक कहते हैं— 'पतञ्जलि के महाभाष्य तक में राम का नाम नहीं, न किसी प्राचीन शिलालेख में है।' बौद्ध विद्वान् भदन्त आनन्द कौसल्यायन (1905-1993) भी कुछ इसी प्रकार लिखते हैं— 'त्रिपिटक में न महाभारत का कोई उल्लेख है और न रामायण का।' (जातक, प्रथम खण्ड, भूमिका, हिंदी साहित्य सम्मेलन)। स्वानामधन्य डॉ. रामशरण शर्मा (1919-2011) इन सबसे चार कदम आगे बढ़कर लिखते हैं— 'पौराणिक अनुश्रुति के अनुसार राम का काल 2000 ई.पू. के आस-पास भले ही मान लें, पर अयोध्या में की गई खुदाई और व्यापक छान-बीन से तो यही सिद्ध होता है कि उस काल के आस-पास वहाँ कोई बस्ती थी ही नहीं।' (प्राचीन भारत, पृ. 21, रा.शै.अ. एवं प्र.प, नयी दिल्ली, 1990)।
हम समझते हैं कि राम की ऐतिहासिकता के संबंध में आकाश-पाताल एक करने से पहले इस बात की व्यापक छान-बीन हो जानी चाहिए कि संस्कृत और इतिहास के ज्ञान से शून्य डॉ. भाण्डारकर, भदन्त कौसल्यायन एवं डॉ. शर्मा को 'इतिहासकार' की मान्यता किसने दी; क्योंकि पतञ्जलि के महाभाष्य में राम का केवल उल्लेख ही नहीं है, बल्कि उसमें वाल्मीकीयरामायण के सुन्दरकाण्ड का एक श्लोक-चरण ही आया है— 'एति जीवन्त मानकः ....' (वाल्मीकीयरामायण, सुन्दरकाण्ड, 34.6)। वैसे पूरा श्लोक इस प्रकार है— 'एति जीवन्त मानन्दो नरं वर्षशतादपि।' रही बात प्राचीन शिलालेखों में राम का नामोल्लेख न होने की, तो वह भी विचारणीय नहीं है; क्योंकि राम का जीवनकाल अत्यन्त प्राचीन है। उनके काल के पर्वतों तक का रूप बदल गया है, फिर शिलालेखों की तो बात ही क्या है! प्राचीन इतिहास के ऐसे कई प्रसिद्ध सम्राट् हैं, जिनका न कोई शिलालेख है, और न किसी प्राचीन शिलालेख में उनका नामोल्लेख ही है, फिर भी उन्हें ऐतिहासिक पुरुष माना जाता है। फिर राम के संबंध में ही ऐसा भेदभाव क्यों? यदि डॉ. भाण्डारकर की नीयत पर सन्देह किया जाए, तो हमें यह कहने का अधिकार है कि उन्होंने हमारे आदर्श पुरुष को इस प्रकार मिथ्या सिद्ध करने की चेष्टा कर हमारे साथ छल किया है। आचार्य शुक्र ने कहा है— 'न रामसदृशो राजा पृथिव्यां नीतिमानभूत' (शुक्रनीति, 5.57) (राम-जैसा नीतिमान राजा पृथिवी पर दूसरा नहीं हुआ)।
भदन्त आनन्द कौसल्यायन का मत भी गलत है, क्योंकि त्रिपिटक में राम का नामोल्लेख न होने से यह कहाँ सिद्ध होता है कि त्रिपिटक रामायण (अथवा महाभारत) से प्राचीन ग्रन्थ है? त्रिपिटक के पाँच निकायों में विस्तृत सुत्तपिटक, पाँच भागों में विस्तृत विनयपिटक एवं सात ग्रन्थों में वर्णित अभिधम्मपिटक का भी रामायण और महाभारत में कहीं कोई उल्लेख नहीं है। क्या इसी आधार पर यह साधिकार नहीं कहा जा सकता कि त्रिपिटक की समस्त सामग्री रामायण, महाभारतादि प्राचीन ग्रन्थों से ही एकत्र की गयी है? वाल्मीकीयरामायण का वह श्लोक ('यथा हि चोरः स तथा हि बुद्ध:.......' वाल्मीकीयरामायण, अयोध्याकाण्ड, 109.34), जिसमें भगवान् बुद्ध को चोर और नास्तिक कहा गया है; प्राचीन प्रतियों में न होने के कारण, और उक्त प्रकरण मे नामोल्लेख असंगत होने के कारण विद्वानों ने उसे प्रक्षिप्त माना है। अतः स्वयं बुद्ध का नाम न रामायण में आया है और न महाभारत में। कौसल्यायन जी के मतानुसार रामायण की रचना भगवान् बुद्ध के निर्वाण के पश्चात् हुई, जो सरासर असत्य और साम्प्रदायिक विद्वेष पर आधारित है। रामायण में कोसल राज्य की राजधानी कही गई है— 'अयोध्या तु नगरी राजधनी पितुर्मम।' (वाल्मीकीयरामायण, अयोध्याकाण्ड, 46.4) जबकि जैन एवं बौद्ध-ग्रन्थ अयोध्या को 'साकेत' नाम से निर्दिष्ट करते हैं। बौद्धकाल में कोसल नरेश प्रसेनजित् (19वीं शती ई.पू.) श्रावस्ती में राज्य करते थे, किन्तु रामायण में कोसल की राजधानी अयोध्या बतायी गई है। कालक्रम से लव ने अपनी राजधानी श्रावस्ती बनायी— 'श्रावस्तीति पुरी रम्या श्राविता च लवस्य च।' (वाल्मीकीयरामायण, उत्तरकाण्ड, 108.5)।
स्पष्ट है कि जब कोसल की राजधानी श्रावस्ती नहीं हुई थी, उस समय रामायण की रचना हुई थी। इस तथ्य से भी यह सिद्ध है कि रामायण की रचना त्रिपिटक से हज़ारों वर्ष पूर्व हो चुकी थी। रामायण के बहुत बाद रचे जाने के कारण ही कई बौद्ध-जातकों में रामकथा आती है। केवल कथा ही नहीं, बल्कि वाल्मीकीयरामायण के कई श्लोक भी ज्यों-के-त्यों आते हैं। जातकों में भी तीनों वेदों, 18 विद्याओं को पढ़कर पूर्णता प्राप्त करने की बात कही गई है। 18 विद्याएँ पुराणों में प्रसिद्ध हैं—
अंगानि वेदाश्चत्वारो मीमांसा न्यायविस्तरः।
पुराणं धर्मशास्त्रं च विद्या ह्येताश्चतुर्दश।।
आयुर्वेदो धनुर्वेदो गांधर्वश्चैव ते त्रयः।
अर्थशास्त्रं चतुर्थं तु विद्या ह्यष्टादशैव ताः।।
—विष्णुमहापुराण, 3.6.28-29; भविष्यमहापुराण, ब्राह्मपर्व, अध्याय 1
अर्थात्, छः वेदांग, चार वेद, मीमांसा, न्याय, पुराण, धर्मशास्त्र, आयुर्वेद, धनुर्वेद, गांधर्ववेद और अर्थशास्त्र— ये 18 विद्याएँ हैं।
स्वयं कौसल्यायन जी ने 18 विद्याओं के नाम इस प्रकार गिनाए हैं— 1. स्मृति, 2. व्याकरण, 3. छन्दोविचित, 4. निरुक्त, 5. ज्योतिष, 6. शिक्षा, 7. कल्प, 8. मनोविज्ञान, 9. क्रियाविधि, 10. आयुर्वेद, 11. हस्तशिक्षा, 12. कामतन्त्र, 13. लक्षण, 14. पुराण, 15. इतिहास, 16. नीति, 17. तर्क और 18. वैद्यक।
जातककथाओं में पौराणिक आख्यानों का उपमा के लिए भी प्रयोग किया गया है। राहुमुक्त चन्द्रमा की उपमा कई स्थानों पर आई है। समुद्र-मंथन की पौराणिक कथा भी उपमा के रूप में ही आई है। दशरथजातक में बुद्ध ने पौराणिक पण्डितों की प्रशंसा की है। बुद्ध का महत्त्व बढ़ाने के लिए पौराणिक देवताओं तथा स्थानों का पर्याप्त उपयोग किया गया है। जातककथाओं में स्वर्गशिल्पी विश्वकर्मा, इन्द्र, इन्द्रलोक, स्वर्ग के देवता, नन्दन वन, पारिजात पुष्प, देवताओं की सुधर्मा सभा, सुमेरु पर्वत एवं ब्रह्मलोक भी आता है। ये पुराणों के प्रसिद्ध विषय हैं। पाण्डवपर्वत, नारदकुण्ड, आदि नाम भी उसी ओर संकेत करते हैं। उदाहरणार्थ हमने कुछ ही बातों का उल्लेख किया है। इन बातों से हम सहज ही इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि जातकों की सामग्री रामायण, महाभारत एवं पुराणों से ही एकत्र की गई है। प्रसिद्ध इतिहासकार गोविन्द चंद्र पांडेय (1923-2011) ने लिखा है, 'बौद्ध-जातक रामायण के पात्रों का वर्णन करते हैं जबकि रामायण में जातक के चरित्रों का वर्णन नहीं है।'
रही बात डॉ. रामशरण शर्मा की, तो उनके पौराणिक अध्ययन पर किसी को भी सन्देह हो सकता है, क्योंकि समस्त पुराण-ग्रन्थ राम का काल 2000 ई.पू. (4,000 वर्ष पूर्व) नहीं, बल्कि 24वाँ त्रेतायुग (लगभग 1,81,49,119 वर्ष पूर्व) बताते हैं—
चतुर्विंशे युगे रामोवसिष्ठेन पुराधसा।
सप्तमो रावणस्यार्थे जज्ञे दशरथात्मजः।।
—वायुपुराण, 98.72; मत्स्यमहापुराण, 47.245
चतुर्विंशयुगे चापि विश्वामित्रपुरः सरः।
रामो दशरथस्याथ पुत्रः पप्रायतेक्षणः।।
—हरिवंशपुराण, 1.41.121; ब्रह्माण्डमहापुराण, 104.11
अस्मिन्मन्वन्तरेsतीतेचतुर्विंशतिकेयुगे।।
भवतीर्यरघुकुलगृहे दशरथस्यच।
—पद्ममहापुराण, 8.66-67
शर्माजी-जैसे वरिष्ठ इतिहासकार ने खुदाई से प्राप्त अवशेषों के आधार पर राम को ऐतिहासिक या अनैतिहासिक सिद्ध करने का प्रयास किया। उनका मानना था कि चूँकि राम से सम्बंधित अवशेष नहीं मिले, अतः राम की ऐतिहासिकता नितांत संदिग्ध है। हम समझते हैं कि इस प्रकार की खोज अत्यन्त त्रुटिपूर्ण एवं भ्रामक है; क्योंकि भूगर्भविज्ञान यह कहता है कि भूमि की ऊपरी परत बराबर धूल-मिट्टी से ढकती है। इसी से प्राचीन सामग्रियाँ पुरानी होकर सड़ती हैं। लकड़ी, कपड़ा, कागज आदि तो शीघ्र सड़ता है और पत्थर, लोहा तथा दूसरी धातुओं में भी परिवर्तन होते हैं। पृथिवी की ऊपरी परत जेसै-जैसे मोटी होती जाती है, वैसे-वैसे नीचे ढकी वस्तुओं पर दबाव बढ़ता जाता है। इस प्रकार अधिक दबाव से भूमि के नीचे दबे सभी पदार्थ टूटकर एकाकार हो जाते हैं। वहाँ किसी पदार्थ का बने रहना सम्भव नहीं। इस प्रकार खुदाई से प्राप्त सामग्री एक निश्चित समय से अधिक पुरानी हो ही नहीं सकती। इस सामग्री में भी समय जितना पुराना होगा, प्राप्त पदार्थ उतने ही सड़े, दुर्बल होंगे। इसलिये यदि हमें प्राचीन काल के वस्त्र और काग़ज़ नहीं मिले तो इसका अर्थ यह नहीं कि उस समय लोग नंगे रहते थे और उस समय केवल पाषाण का ही उपयोग होता था। यदि हमें प्राचीन काल की बस्तियाँ नहीं मिलीं तो इसका अर्थ यह नहीं है कि उस समय मानव ही नहीं थे। ये 'पाषाणयुग' और 'धातुयुग' कपोल-कल्पित हैं, उस समय की बस्तियाँ पाने की आशा हम कैसे कर सकते हैं?
'धर्मनिरपेक्ष' (?) इतिहासलेखन के नाम पर छात्रों को किस प्रकार बेवकूफ बनाया जा रहा है, इसे अब और अधिक स्पष्ट करने की आवश्यकता नहीं।
श्रीराम अति प्राचीन भारतवर्ष में अवतरित हुए थे। उनका समय इतना अधिक प्राचीन है कि उसके सही-सही आकलन में कुछ कठिनाइयाँ अवश्य आ रही हैं, किन्तु इसका अर्थ यह कदापि नहीं है कि वे काल्पनिक थे। पौराणिक वंशावलियों में यथास्थान राम की जो चर्चा है, वह इतनी स्वाभाविक है कि उसे किसी भी प्रकार ठूँसा हुआ सिद्ध नहीं किया जा सकता। अतएव उनमें राम का उल्लेख उनकी ऐतिहासिकता को स्वतः सिद्ध करता है। महाभारत में भी स्थान-स्थान पर दानी, प्रतापी, विक्रांत और यज्ञकर्ता राजाओं की सूचियाँ, प्रशस्तियाँ तथा दान-स्तुतियाँ आई हैं। इनमें द्वापरयुग (8,67,102 ई.पू)-3102 ई.पू.) से बहुत पहले के राजाओं के नाम आए हैं, कौरव-पाण्डवों के निकटवर्ती पूर्वज भी इनमें सम्मिलित नहीं हैं। अतः यह सिद्ध है कि पौराणिक वंशावलियों से मेल खाती ये सूचियाँ महाभारत की रचना के समय गढ़ी नहीं गयीं, बल्कि ये वास्तविक प्राचीन सामग्री हैं, जो महाभारत में संहित-मात्र कर दी गयी हैं। इनमें से लगभग सभी सूचियों में राम का नाम विद्यमान है। ध्यान रहे, इनमें के राम एक प्रतापी राजा मात्र हैं, जिस प्रकार इनमें आनेवाले अन्य राजागण हैं। वे विष्णु के अवतार तो क्या, 'मर्यादापुरुषोत्तम' के रूप में वहाँ गिनाये गए हों, सो तक नहीं। यह बात भी उन सूचियों की प्राचीनता और राम की ऐतिहासिकता को सिद्ध करती है।
रामायण, महाभारत और पुराणों के अतिरिक्त द्वितीय श्रेणी के ग्रन्थों में भी राम के अस्तित्व का पता चलता है। भक्तशिरोमणि गोस्वामी तुलसीदास (1497-1623) का 'श्रीरामचरितमानस' (1574-1576) हिंदी का सर्वश्रेष्ठ महाकाव्य है ही, कुछ विद्वानों की धरणा है कि प्रचलित रामकथा, रामचरितमानस से ही अस्तित्व में आई है। जबकि यह बात भी सही नहीं है। तुलसीदास से पूर्व भी ईश्वरदास, विष्णुदास और सूरजदास ने सगुणराम-विषयक काव्यों की रचना की थी। उनसे भी पूर्व 'पृथ्वीराजरासो' के दशावतार वर्णनक्रम में रामावतार की चर्चा मिलती है। उनसे भी पूर्व मैथिल कवि ज्योतिरीश्वर ठाकुर (1290-1350) ने भी राम का उल्लेख किया है। उनसे भी पूर्व जयदेव (12वीं शताब्दी) ने 'गीतगोविन्द' में दशावतारवर्णन क्रम में रामावतार का उल्लेख किया है— 'वितरसि दिक्षु रणे दिक् पति कमनीयम्| दश मुख मौलि बलिम् रमणीयम्|| केशव धृत राम शरीर जय जगदीश हरे ||7||' (हे जगत् स्वामिन् श्रीहरे! हे केशिनिसूदन! आपने रामरूप धारण कर संग्राम में इन्द्रादि दिक्पालों को कमनीय और अत्यन्त मनोहर रावण के किरीट भूषित शिरों की बलि दशदिशाओं में वितरित कर रहे हैं। हे रामस्वरूप! आपकी जय हो|)
जैन-कवि विमलसूरि ने रामकथा को 'पउमचरिअ' नामक प्राकृत-भाषा के महाकाव्य में निबद्ध किया है, जिसकी रचना वर्धमान महावीर (1864-1792 ई.पू.) के निर्वाण (1792 ई.पू.) से 530 वर्ष बाद (लगभग 1262 ई.पू.) की गई थी।
महर्षि पतञ्जलि के 'महाभाष्य' में राम का उल्लेख मिलता है, यह तो हम पहले ही सिद्ध कर चुके हैं। महर्षि पतञ्जलि मगध-नरेश पुष्यमित्र शुंग के समकालीन थे। पुराणों और 'कलियुगराजवृत्तांत' में प्राप्त वंशावलियों के आधार पर पुष्यमित्र का समय 1218-1158 ई.पू. निकलता है। पतञ्जलि से भी कुछ दशक पूर्व कुशाणवंशीय कनिष्क (1294-1234 ई.पू.) के दरबारी और प्रसिद्ध नाटककार अश्वघोष भी रामकथा एवं वाल्मीकीयरामायण से भली-भाँति परिचित थे। उन्होंने अपने 'बुद्धचरितम्' में सुन्दरकाण्ड की अनेक रमणीय उपमाओं और उत्प्रेक्षणाओं को निषद्ध किया है।
अश्वघोष से भी लगभग ढाई सौ वर्ष पूर्व चन्द्रगुप्त मौर्य (1534-1500 ई.पू.) के प्रधानमंत्री चाणक्य ने अपने जगद्विख्यात ग्रंथ 'अर्थशास्त्र' में राजाओं के नाश के कारणों का उदाहरण देते हुए कहा है कि परस्त्रीहरण से रावण का नाश हुआ— 'मानाद्रावणः परदारानप्रयच्छन्, दुर्योधनो राज्यादंशं च' (अर्थशास्त्र, 1.6.8)। इस उल्लेख में समूचे रामायण का सारांश निहित है। अर्थात् चन्द्रगुप्त मौर्य के समय में रामचरित एक प्रामाणिक इतिवृत्त था, जो राजशास्त्र में उदाहरणस्वरूप उद्धृत किया जाता था।
अर्थशास्त्र से भी पूर्व का पाणिनि का 'अष्टाध्यायी' ग्रन्थ है। पाणिनि मगध-नरेश महापद्मनन्द के मित्र थे— ऐसा बौद्ध-ग्रन्थ 'मंजुश्रीमूलकल्प' (पटल 3, पृ. 611-612, राजकीय मुद्रणालय, त्रिवेन्द्रम, 1922) में उल्लेख है। पौराणिक गणना से महापद्मनन्द का समय 1634-1546 ई.पू. आता है, अतः पाणिनि का काल भी यही होना चाहिए। कुछ इतिहासज्ञों का मत है कि अष्टाध्यायी में रामायण के पात्रों का नाम नहीं है। हम समझते हैं कि इस प्रकार की खोज अत्यन्त हास्यास्पद है; क्योंकि पाणिनि एक वैयाकरण थे, वह कोई इतिहास लिखने नहीं बैठे थे; उनकी अष्टाध्यायी में रामकथा का सूत्र खोजना करोड़ों हिन्दुओं को बहकानाभर है। उसके अभावात्मक प्रमाण से इतिहास का कुछ बनता-बिगड़ता नहीं। अष्टाध्यायी में वे ही शब्द आए हैं, जिनकी उत्पत्ति तथा साधनिका में विलक्षणता है। इस बात को कोई भी वैयाकरण अच्छी तरह समझ सकता है। फिर भी प्रक्रिया की दृष्टि आए शब्दों में अष्टाध्यायी के अंतर्गत ऐसे अनेक नाम आए हैं, जो रामायण के प्रसिद्ध पात्र हैं। पात्र ही नहीं, रामायण के रचयिता तक का नाम अष्टाध्यायी में आया है। 'महादिगण' में वाल्मीकीय शब्द की सिद्धि के लिए 'वाल्मीकि' शब्द का पाठ है और वह देशवाची शब्दों के साथ नहीं, बल्कि कृषिवाची शब्दों के साथ पढ़ा गया है। रामायण के पात्रों में से 'शिवादिगण' के अन्तर्गत पाणिनि ने रावण को 'विश्रुवस्' (विश्रवा का पुत्र) शब्द से व्युत्पन्न प्रतिपादित किया है। 'नन्द्यादिगण' में राक्षस दूषण तथा विभीषण का नाम आया है। 'शरादिगण' में हनुमान के लिए 'हनु' शब्द आया है। सुमित्रा का नाम आया है। कौसल्या, कैकेयी की साधनिका हैं। 'उणादिसूत्रों' में मिथिला नगरी, लक्ष्मण, भरत, पक्षिराज सम्पाति-जैसी संज्ञाओं की सिद्धि है। इतने प्रमाणों के रहते हुए भी कोई यह कहे कि पाणिनि रामायण के पात्रों से अपरिचित थे, तो यह उसका दुःसाहस ही कहा जायेगा।
अष्टाध्यायी से भी पूर्व का भास का 'प्रतिमा' नाटक है। भास संस्कृत के प्राचीनतम नाटककार माने जाते हैं। उनकी कालजयी रचना 'स्वप्नवासवदत्ता' में मगध-नरेश शिशुनागवंशीय दर्शक (1787-1752 ई.पू.) का उल्लेख है। अतः यह विश्वास किया जाता है कि भास दर्शक अथवा उसके पिता महाराजा अजातशत्रु (1814-1787 ई.पू.) के समकालीन रहे होंगे। भास ने 'प्रतिमा' नाटक में राम का आवतारिक वर्णन करते हुए लिखा है— 'सूर्य इव गतो रामः सूर्य दिवस इव लक्ष्मणोsनुगतः। सूर्य दिवसावसाने छायेव न दृश्यते सीता।।' (प्रतिमानाटकम्, 2.7)।
महाराजा अजातशत्रु के राज्यारोहण (1814 ई.पू.) के 8वें वर्ष (1807 ई.पू.) निर्वाण को प्राप्त हुए भगवान् बुद्ध (1887-1807 ई.पू.) से लगभग पाँच सौ वर्ष पूर्व संकलित जातककथाओं में से एक 'दशरथजातक' में राम की कथा कुछ हेर-फेर से आई है। वाल्मीकीयरामायण का एक श्लोक भी इस जातक में पाली-भाषा में उल्लिखित है।
जातककथाओं से भी लगभग सात सौ वर्ष पूर्व (लगभग 3100 ई.पू.) के 'अध्यात्मरामायण' में उसके रचयिता महाभारतकार महर्षि कृष्णद्वैपायन व्यास ने श्रीराम का समय पुराण-परम्परा के विरुद्ध 28वाँ त्रेतायुग घोषित किया है—
'पुराहं ब्रह्मणा प्रोक्ता ह्यष्टाविंशतिपर्यये।
त्रेतायुगे दाशरथि रामो नारायणोsव्ययः।।'
—अध्यात्मरामायण, 5.1.48
महर्षि कृष्णद्वैपायन व्यास-विरचित महाभारत के वनपर्व में भी रामोपाख्यान प्राप्त होता है, इसके विपरीत रामायण में महाभारत का कोई उल्लेख प्राप्त नहीं होता। इससे भी सिद्ध होता है कि रामायण, महाभारत से बहुत पहले लिखा जा चुका था।
महर्षि कृष्णद्वैपायन, वैवस्वत मन्वन्तर के 28वें चतुर्युग के (28वें) वेदव्यास थे (विष्णुमहापुराण, 3.3.19), जिन्होंने अपने काल में वेदों का संकलन-संपादन किया। इस काल में संपादित ऋग्वेद में भी अन्य राजाओं के साथ राम का भी नाम आया है—
प्र तद्दुःशीमे पृथवाने वेने प्र रामे वोचमसुरेमघवत्सु।
ये युक्त्वाय पञ्च शतास्मयु पथा विश्राव्येषाम्।।'
—ऋग्वेद, 10.93.14
वहीं दान-स्तुति के प्रसंग में महाराजा दशरथ के दान की प्रशंसा की गयी है—
चत्वारिंशद्दशरथस्य शोणाः सहस्रस्याग्रे श्रेणिंनयन्ति।
मदच्युतः कृशनावतो अत्यान्कक्षीवन्त उदमृक्षन्त पज्राः।।'
—वही, 1.126.4
अब तक जो बातें सामने आई हैं, उनका सारांश यह है कि राम की चर्चा 13वीं शती ई.पू. से लेकर कम-से-कम 3200 ई.पू. तक के वाङ्मय में असंदिग्ध रूप से विद्यमान है। जिस व्यक्ति के अस्तित्व के विषय में इतने सारे प्रमाण मौजूद हों, वह व्यक्ति कल्पनाप्रसूत हो, यह नितांत असम्भव है। किसी कल्पनाप्रसूत चरित्र के संबंध में न तो इतने सारे प्रमाण मिल सकते हैं, और न वह इतने लम्बे समय तक जीवित रह सकते हैं। वाल्मीकीयरामायण के अनुशीलन से यह स्पष्ट हो जाता है कि कथानक की ऐतिहासिकता के संबंध में आदिकवि को कोई सन्देह नहीं था। इसलिए महर्षि कृष्णद्वैपायन ने भी रामायण और महाभारत को 'इतिहास' कहा है। उत्तरवर्ती कवियों ने भी ऐसा ही माना है। प्रसिद्ध नाटककार भवभूति (8वीं शती) ने उत्तररामचरित में कहा है— 'अथ स भगवान् प्राचेतसः प्रथमः मनुष्यंषु। शब्द ब्रह्मजं सादृशं विवर्तमितिहासं प्राणिनाय।'
श्रीराम को 24वें त्रेतायुग (1,81,49,119 वर्ष पूर्व) हुए थे। वाल्मीकीयरामायण (सुन्दरकाण्ड, 4.27-28) में रावण की राजधानी लंका में पाये जानेवाले 4 दाँतोंवाले हाथियों का उल्लेख है। 'Encarta Encyclopædia' के अनुसार 4 दाँतोंवाले हाथी 'Mastodontoidea' कहलाते थे जो इस पृथ्वी पर 3.8 करोड़ वर्ष पूर्व से लेकर 1.5 करोड़ वर्ष पूर्व के मध्य तक विद्यमान थे। इनके लुप्त हो जाने पर 'Mastodons' नामक दो दाँतोंवाले हाथी आये। इस प्रमाण से भी सिद्ध होता है कि 4 दाँतोंवाले हाथी, जो 1.5 करोड़ वर्ष पूर्व ही लुप्त हो गये, वे श्रीराम के समय (1,81,49,119 वर्ष पूर्व) अवश्य ही विद्यमान थे। यह तथ्य भी श्रीराम की ऐतिहासिकता का एक पुष्ट प्रमाण है। वर्ष 2002 में अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी 'नासा' ने उपग्रह से श्रीरामसेतु के चित्र लेकर उसे मानवनिर्मित बतलाया और यह भी कहा कि यह पुल 17,50,000 वर्ष पूर्व बनाया गया था। जिस समय नासा का बयान आया था, उस समय भारत की वामपंथी पत्र-पत्रिकाएँ श्रीरामसेतु को मिथ्या सिद्ध करने में जुटी थीं। बाद में न जाने किस दबाव में नासा ने अपना वक्तव्य वापिस ले लिया और अपनी वेबसाइट से श्रीरामसेतु से सम्बंधित चित्र हटा लिया। ऐसा क्यों किया गया, यह भी जांच का विषय है।
इसके अतिरिक्त वाल्मीकीयरामायण में वर्णित भारत के भूगोल पर व्यापक शोध कार्य हुआ है। राम के वनगमन मार्ग पर भी खूब खोजबीन की गई है। राम जिस मार्ग से होते हुए लंका गए थे, उस मार्ग पर अवस्थित नगर और ग्राम आज भी उसी नाम से अथवा मामूली परिवर्तन से आज भी वहीँ पर विद्यमान हैं। क्या यह रामायण की ऐतिहासिकता को पुष्ट करनेवाला प्रमाण नहीं है ? यहाँ तक कि श्रीलंका में आज भी रामायणकालीन स्थान मौजूद हैं, वहां की सरकार ने उनको पर्यटन-स्थल के रूप में विकसित किया है। श्रीलंकावाले रामायण को ऐतिहासिक घटना मानते हैं, किन्तु राम के देश में ही रामायण को मिथ्या माना जाता है। यहाँ राम को काल्पनिक सिद्ध करने के लिए वामपंथी और धर्मांतरित इतिहासकारों एक एक वर्ग एड़ी-चोटी का ज़ोर लगा रहा है। राम की ऐतिहासिकता के विरुद्ध तर्क जुटाकर कई पुस्तकें लिखी गई हैं। इस देश की भूतपूर्व सरकार ने उच्चतम न्यायालय में श्रीराम की ऐतिहासिकता को चुनौती देकर कहा कि राम को ऐतिहासिक सिद्ध करनेवाले प्रमाण मिल जाने पर हम अयोध्या में उनके जन्मस्थान पर मंदिर बनने दे देंगे। इससे बड़ा दुर्भाग्य और क्या हो सकता है?
भारत के अतिरिक्त नेपाल, लाओस, कंपूचिया, मलेशिया, कंबोडिया, इंडोनेशिया, बांग्लादेश, भूटान, श्रीलंका, बाली, जावा, सुमात्रा और थाईलैंड, आदि देशों की लोकसंस्कृति व ग्रंथों में आज भी राम जीवित हैं। रामकथा आज भी भारत के जनजीवन के साथ जुड़ी हुई है और जीवन के हर प्रसंग पर रामकथा की मिलती-जुलती घटना को लोग याद करते हैं। किसी आदर्श गृहिणी को देखकर हम 'माता सीता' से तुलना करते हैं। किसी आज्ञाकारी सेवक की तुला 'हनुमान्' से करते हैं, विश्वासयोग्य मित्र को 'सुग्रीव' कहते हैं, दिन-राम सोनेवाले निद्राप्रेमी को 'कुम्भकर्ण' कहते हैं, रंग में भंग करनेवाली बुरी नीयतवाली औरत को देखकर 'मंथरा' से उसका रिश्ता जोड़ देते हैं। आदर्श भाई को देखकर 'भरत' का स्मरण करते हैं। भातृप्रेम को देखकर 'राम लक्ष्मण की जोड़ी' कहते हैं। गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर (1861-1941) कहते हैं— 'राम एक ही काल में हमारे लिए देवता भी हैं और मनुष्य भी। रामायण, जो एक ही काल में हमारी भक्ति और प्रीतिभाजन हुई है, यदि केवल कवियों की कपोल-कल्पना होती, तो वह हमारे लोक-व्यवहार में कभी न आ सकती थी। इस प्रकार के ग्रन्थ को यदि विदेशी समालोचक अपने काव्यों के विचार के आदर्श के अनुसार अप्राकृत कहेंगे तो उनके देश के सहित तुलना करने पर भारतवर्ष की एक और विशेषता प्रकट होती है। रामायण में भारतवर्ष ने जो चाहा है, वही पाया है।'
गुँजन अग्रवाल
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