बैटल ऑफ याप्रेस: हिटलर के सैनिकों को धूल चटाने वाले भारतीय सैनिक
लेखक :- जे0 पी0 गुप्ता
किसी भी देश के लिए उसकी सैन्य शक्ति काफी मायने रखती है. ऐसे में अगर बात भारतीय सेना की हो तो क्या कहना!
इंडियन आर्मी का नाम सुनते ही हर भारतीय का सिर फख्र से ऊंचा हो जाता है. हर मुश्किल से मुश्किल परिस्थितियों में भारतीय सैनिकों ने अपनी जाबांजी का परिचय दिया है.
उनकी बहादुरी के किस्से तब से मशहूर हैं, जब देश आज़ाद भी नहीं हुआ था.
यह समय था प्रथम विश्व युद्ध का. इस युद्ध में भारतीय सैनिकों ने अपने अदम्य साहस का परिचय देते हुए सारी दुनिया के सामने भारत का सीना चौड़ा कर दिया था. बावजूद इसके ब्रिटिश सरकार की तरफ से लड़े उन वीर जवानों को वह सम्मान नहीं मिला, जो मिलना चाहिए था.
यहां बात हो रही है प्रथम विश्व युद्ध के दौरान लड़े गये 'बैटल ऑफ याप्रेस' की, जो इतिहास के भूले पन्नों में कैद होकर रह गया.
तो आईये इतिहास के उन पन्नों में जमी धूल को हटाने की कोशिश करते हैं–
प्रथम विश्व युद्ध से कनेक्शन
बात उस जमाने की है, जब भारत अपनी आजादी के लिए अंग्रेजी हुकूमत से लगातार संघर्ष कर रहा था. इसी बीच प्रथम विश्व युद्ध की घोषणा हो गई. जर्मनी और उसकी साथी फौजों ने बेल्जियम के शहर याप्रेस पर कब्जा करने के लिए हमला बोल दिया था.
ब्रिटेन को भारी मात्रा में सैनिकों की जरूरत थी, इसलिए उन्होंने अपने तमाम उपनिवेशों से सैन्य दस्ते को लाने की योजना बनाई. उन्हीं में से एक था इंडिया, जहां से उन्होंने भारी संख्या में सैनिकों की भर्ती का प्लान बनाया.
लाखों मील दूर लड़ने के लिए भारतीय तैयार तो हो गए, क्योंकि ज्यादातर भारतीयों का मानना था कि संकट की इस घड़ी में अगर वे ब्रिटिश सरकार की मदद करते हैं, तो हो सकता है कि इस युद्ध को जीतने के बाद वह भारत को आजाद कर दें.
वे सोचते थे कि इससे भारत की आजादी के पक्ष को और मजबूती मिलेगी.
इंडियन नेशनल कांग्रेस की भी यही सोच थी. इसके बाद भारतीय सैनिक प्रथम विश्व युद्ध में अंग्रेजों की तरफ से लड़े. मगर अफसोस अंग्रेज यह युद्ध हार गए और लगभग सभी सैनिक इसमें शहीद हो गए.
जब याप्रेस पहुंचे भारतीय सैनिक
एक बड़ी संख्या में भर्ती के बाद भारतीय सैनिकों को पानी के जहाज से जर्मनी के इस इलाके में पहुंचा दिया गया, जहां युद्ध चल रहा था.
वह जगह थी याप्रेस!
कहते हैं कि जब यह लड़ाई लड़ी जा रही थी, उस वक्त कड़ाके की सर्दी पड़ रही थी. अब चूंकि, भारतीय सैनिकों ने इस परिस्थिति में लड़ने की कभी ट्रेनिंग नहीं ली थी, इसलिए मोर्चे पर खड़ा रहना उनके लिए आसान नहीं था. बावजूद इसके उन्होंने हार नहीं मानी और आखिरी सांस तक खड़े रहे.
यही नहीं, उन्होंने मजबूती से बड़ी खंदकों में घात लगाकर जर्मन सैनिकों पर हमला जारी रखा. रणभूमि में लगातार उनके साथी शहीद होते जा रहे थे, लेकिन जंग के कारण उनके पास उनके लिए आंसू बहाने तक का समय नहीं था.
हर हाल में उन्हें इस जंग को जीतना था, क्योंकि उनकी आंखों में यह सपना पल रहा था कि वह इस जीत के बाद उनका देश आजाद हो जाएगा. इसी सपने ने उन्हें हर स्थिति में दुश्मन को मुंहतोड़ जवाब देने का जज्बा दिखाया.
नाजी सैनिकों से घिरा हुआ भारतीय दस्ता एक तरफ कड़ाके की ठंड की मार झेल रहा था, दूसरी तरफ भूख से वह बेहाल थे. ब्रिटिश उनको राशन तक मुहैया कराने में विफल साबित हुए.
नाजी सेना को 'पिलाया पानी'
सारी परिस्थितियां भारतीय सैनिकों के खिलाफ थी. बावजूद इसके वह नाजी सेना पर हावी हो चुके थे. भारतीय सैनिकों की शौर्यता के कारण ब्रिटेन खुद को जर्मनी के सामने मजबूत महसूस करने लगा था. एक पल के लिए लगा कि जर्मनी का काम भारतीय सैनिक खत्म कर देंगे.
तभी जर्मनी ने अपना आखिरी दांव चल दिया. उसने युद्ध के मैदान में क्लोरीन गैस का इस्तेमाल कर दिया. चूंकि, यह कांड अचानक हुआ था और भारतीय सैनिक के पास इसका कोई तोड़ नहीं था, इसलिए भारतीय सैनिकों को इसका खामियाजा अपनी जान देकर करना पड़ा.
भले ही अपने दांव से जर्मनी भारतीय सैनिकों को हारते हुए यह युद्ध जीत चुका था, किन्तु उसकी दबी जुबान पर भारतीयों की जाबांजी की ही बात थी.
शायद यही कारण रहा कि प्रथम विश्व युद्ध में सबसे ज्यादा वीरता पुरस्कार भारतीय सैनिकों को ही दिये गए थे. उन्हें 9000 से ज्यादा वीरता पुरस्कार मिले, जिनमें से विक्टोरिया क्रॉस की संख्या 13 थी. बताते चलें कि पहले विश्व युद्ध में अंग्रेजों की तरफ से करीब 11 लाख भारतीय सैनिकों ने लड़ाई लड़ी, जिसमें लगभग 70000 सैनिक विकलांग और 60000 सैनिक वीरगति को प्राप्त हो हुए.
ब्रिटेन ने माना लोहा, लेकिन…
बावजूद इसके हैरानी की बात यह रही कि जिस तरह से भारतीयों ने इस युद्ध में ब्रिटेन का साथ दिया, उस हिसाब से उनकी शौर्यता को भारत में उन्होंने प्रचारित नहीं होने दिया. ऐसा न करने के पीछे कई कारण थे.
पहला यह कि अंग्रेज गोरे और काले लोगों में बराबरी की बात को स्वीकार ही नहीं करते थे. उन्हें ये बात हजम ही नहीं हो रही थी कि काले लोग गोरों से कहीं ज्यादा मजबूती से लडें.
दूसरा यह कि उन्हें डर था कि अगर इनका प्रचार किया गया तो भारत में आजादी की मांग को बढ़ावा मिलेगा. तीसरा यह कि ब्रिटिश अधिकारियों ने भारतीय सैनिकों की भर्ती ग्रामीण इलाकों से की थी, जिसको वह जग जाहिर नहीं करना चाहते थे.
हालांकि, सालों बाद इस युद्ध में मारे गए सैनिकों के सम्मान में ही दिल्ली स्थित इंडिया गेट का निर्माण किया गया. याप्रेस के मेनिन गेट पर भी कई भारतीयों के नाम दर्ज किए गये. इसके अलावा 1927 में नेउवे चैपल में उनकी याद में एक स्मारक भी बनाया गया.
दिल्ली के इंडिया गेट पर बेल्जियम के राजा फ्लिप्पे और रानी मटील्डे ने भारतीय सैनिकों के इस महत्वपूर्ण योगदान के लिए उन्हें याद करते हुए एक किताब को भी लॉन्च किया साथ ही एक प्रदर्शनी भी आयोजित की गई थी.
बावजूद इसके माना जाता है कि कई सालों तक इस युद्ध के शहीदों को वह सम्मान नहीं मिल सका, जिसके वह हकदार थे.
अब एक और पोस्ट देखिये ....
157 साल बाद मिले उन भारतीयों के अवशेष जिन्हे अंग्रेजों ने जिन्दा दफ़न कर दिया था !1857 में देश की आजादी के लिए पहली लड़ाई लड़ी गई । इसके बाद पूरे देश में अलग-अलग जगहों पर आजादी को लेकर लाखों लोगों ने कुर्बानियां दी । आज हम आपको इसी से जुड़ी कुछ ऐसी ही घटनाओं के बारे में बताने जा रहे हैं, जिनसे शायद आप अंजान हो । दरअसल इतिहास में ब्लैक होल ट्रेजडी के नाम से एक घटना दर्ज है जो कलकत्ता अब कोलकाता में हुई थी । लेकिन कई इतिहासकारों का अपना-अपना अलग मत है कई इतिहासकार मानते हैं कि यह सिर्फ अंग्रेजों की चाल थी ।
लेकिन क्या है ब्लैक होल ट्रेजडी और क्या था इसका कारण ???
हम आपको बताएंगे असल में कहां हुई थी ब्लैक होल ट्रेजडी------
पहली घटना ब्लैक होल की जो कलकत्ता में बताई जाती है, लेकिन उसकी सच्चाई को लेकर कई इतिहासकारों के अलग-अलग अपने मत है । घटना की सच्चाई भी संदेह के घेरे में है, आपको बताते हैं कलकत्ता के ब्लैक होल की घटना
ब्लैक होल (काल कोठरी) नाम की घटना इतिहास में पश्चिम बंगाल में दर्ज है। 1756 में यह घटना फोर्ट विलियम नाम के एक किले में हुई थी । उस दौरान बंगाल के नवाब सिराजउददौला ने 20 जून 1756 ई. को 146 अंग्रेज़ बंदियों को जिनमें स्त्रियां और बच्चे भी शामिल थे । उन्हें एक 18 फुट लंबे और 14 फुट चौड़े कमरे में बंद करवा दिया था। जब 23 जून को सुबह कोठरी को खोला गया तो, उसमें 23 लोग ही जीवित मिले । उन जीवित रहने वालों में हालवैल भी थे, जिन्हें ही इस घटना को बताने वाला माना जाता है।
दरअसल इसका कारण यह है- कि फोर्ट विलियम किला बंगाल में ईस्ट इंडिया कंपनी के बिजनेस को बचाए रखने के लिए बनाया गया था । उन दिनों बंगाल में फ्रांस की सेना के हमले का खतरा भी था इसलिए फोर्ट विलियम किले को ज्यादा ताकतवार बना दिया गया, और वहां अंग्रेजों ने अपने सैनिकों को भी तैनात कर दिया । इसी कारण बंगाल के नवाब सिराजउददौला नाराज हो गए और उन्होंने इसे अपने भीतरी मामले में अंग्रेजों की राजनीतिक हस्तक्षेप माना ।
नवाब ने इसे बंगाल की आर्थिक आजादी के लिए भी खतरा माना, अंग्रेजों को ऐसा करने पर अंजाम भुगतने की चेतावनी दे डाली, लेकिन अंग्रेजों ने उनकी चेतावनी पर कोई ध्यान नहीं दिया । इससे नाखुश होकर सिराजउददौला ने ईस्ट इंडिया कंपनी के खिलाफ युद्ध करने का फैसला किया। युद्ध में बंदी बनाए गए लोगों के साथ यह सलूक किया गया था ।
हालांकि इस घटना की विश्वसनीयता को इतिहासकारों ने संदिग्ध माना है, और इतिहास में इस घटना का महत्व केवल इतना ही है, कि अंग्रेज़ों ने इस घटना को आगे के आक्रामक युद्ध का कारण बनाए रखा। मतलब साफ है कि अंग्रेजों ने अपनी सारी दुश्मनी इस घटना के बाद ही निकालनी शुरू की ।
जे.एच.लिटिल आधुनिक इतिहासकार के अनुसार- हालवैल और उसके उन साथियों ने इस झूठी घटना को अपने तरीके से फैलाया और इस मनगढ़न्त कहानी को रचने की साजिश की। हालवैल कलकत्ता का एक सैनिक अधिकारी था जो कलकत्ता के तत्कालीन गवर्नर डेक को कलकत्ता का उत्तरदायित्व सौंपकर सिराजुद्दौला से डरकर भाग गया था । इतिहासकार अलग-अलग संख्या में कैदियों और युद्ध की घटनाओं को पेश करते हैं, स्टेनली वोलपोर्ट के अनुसार 64 लोगों को कैद किया गया था, और 21 को जेल में बंद किया गया था ।
ब्लैक होल ट्रेजडी की दूसरी घटना है पंजाब के अमृतसर जिले की अजनाला तहसील की, जहां पर अभी हाल ही में खुदाई में शहीदों के कंकाल और ब्रिटिश काल के सिक्के मिले हैं ।
1857 में आजादी की पहली लड़ाई में अंग्रेजी फौज में तैनात भारतीय सैनिकों ने विद्रोह का बिगुल फूंका। कहा जाता है कि अंग्रेजी फौजों ने सीमावर्ती इलाके अजनाला में 282 सिपाहियों को कुंए में दफन कर दिया था। 157 साल बाद सिपाहियों की अस्थियां अजनाला से बरामद हुई हैं। अब इतिहास के उन सबूतों के तलाश में हुई खुदाई में शहीदों की हड्डियां, सिक्के और गोलियां मिलनी शुरू हो गई हैं। अजनाला में हुई खुदाई में लोगों को उन शहीदों की अस्थियों के साथ ब्रिटिश काल के 70 सिक्के, गोलियां और शहीद सिपाहियों की दूसरी निशानियां भी मिली हैं । 157 साल बाद इन शहीदों के 80 फीसदी अवशेष निकाले जा चुके हैं।
इतिहासकार सुरिंदर कोछड़ ने इस कुंए को तलाशा और इसकी खुदाई करवाई। खुदाई में 50 खोपड़ियां, 40 से ज्यादा साबुत जबड़े, 500 से ज्यादा दांत, कुछ ब्रिटिश गोलियां, ईस्ट इंडिया कंपनी के एक-एक रुपये के 47 सिक्के, सोने के चार मोती, सोने के तीन ताबीज, दो अंगुठियां और अन्य सामान मिला है । सुरिंदर कोछड़ का कहना है ब्रिटेन की सरकार से सैनिकों की जानकारी मांगी जाएगी। जिससे शहीदों के परिवार वालों का पता लगवाया जा सके। शहीद सैनिकों की हड्डियों को हरिद्वार और गोइंदवाल साहिब में प्रवाहित किया जाएगा।
गुरुद्वारा कमेटी के अध्यक्ष अमरजीत सिंह सरकारिया के अनुसार 30 जुलाई 1857 को मेरठ छावनी से भड़की विद्रोह की चिंगारी लाहौर की मियांमीर छावनी तक जा पहुंची थी। ईस्ट इंडिया कंपनी के खिलाफ लाहौर में 26 रेजीमेंट के 500 सैनिकों ने भी विद्रोह कर दिया था। तब अंग्रेजों ने 218 सैनिकों को मार दिया और 282 सिपाहियों को गिरफ्तार कर अजनाला ले आया गया था। यहां 237 सैनिकों को मारकर और कईयों को जिंदा ही कुएं में दफन कर दिया गया।
कुएं की खुदाई का काम इस कुएं के बारे में शोध करने वालों इतिहासकारों और गुरुद्वारा शहीदगंज-शहीदांवाला खूह कमेटी के द्वारा सुयंक्त रूप से कराया गया है। अजनाला में कुएं में दफन 1857 के स्वतंत्रता संग्राम के 282 शहीदों की अस्थियों निकालने के लिए हुई खुदाई के दूसरे दिन ही करीब 100 और शहीदों की अस्थियां निकाल ली गईं। खुदाई के दौरान 1857 के शहीदों के अस्थि-पंजर और अवशेष मिले ।
कुएं में एक साथ सटे सात शहीदों के कंकाल देखकर पता चलता है कि जब अंग्रेजों ने कुएं में 237 शवों के 45 जिंदा सैनिकों को फेंका होगा तो उन्होंने खुद को बचाने के लिए काफी संघर्ष किया होगा। मिले कंकालों से साफ जाहिर हो रहा है कि कुएं में जीवित सैनिकों ने एक-दूसरे के कंधे पर चढ़कर कुएं से बाहर निकलने का रास्ता बनाने की कोशिश की थी लेकिन वे सफल नहीं हो सके। गुरुद्वारा कमेटी के इतिहासकारों के मुताबिक कुएं से बरामद कंकालों से कई नए ऐतिहासिक तथ्य उजागर हुए हैं।
अगर तथ्यों और मिले साक्ष्यों को देखा जाए तो असल ब्लैक होल अजनाला में ही हुआ लगता है कि क्योंकि साल 2014 में हुई अजनाला में खुदाई के दौरान यह सारी चीजें निकली है । वहीं दूसरी ओर फोर्ट विलियम की जेल में बंद कैदियों की मौत को लेकर इस तरह के कोई साक्ष्य उपलब्ध नहीं हैं । इसी तरह ऐसी सैंकड़ों नहीं बल्कि हजारों कहानियां इतिहास के गर्भ में हैं जिनके बारे में अधिकांश लोगों को कुछ भी नहीं पता है ।
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दैनिक भारत पेज से
Hr. deepak raj mirdha
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February 12, 2018
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