अरुण उपाध्याय जी की लेखनी से एक और अद्भुत ज्ञान -
संख्या नामों के अर्थ-१ से १८ अंक तक की संख्याओं के नाम प्रचलित हैं जो क्रमशः १०-१० गुणा बड़े हैं।
एक (१), दश (१०), शत (१००), सहस्र (१०००), अयुत (१०,०००), लक्ष (१००,०००), प्रयुत (१०६), कोटि (१०७), अर्बुद (१०८), अब्ज (१०९), खर्व (१०१०), निखर्व (१०११), महापद्म (१०१२), शङ्कु (१०१३), जलधि (१०१४), अन्त्य (१०१५), मध्य (१०१६), परार्द्ध (१०१७)।
कुछ उद्धरण-नवो नवो भवति जायमानः (ऋक् १०/८५/१९)
नवम् से सृष्टि आरम्भ होती है। नव अंक के बाद अगले स्थान की संख्या आरम्भ होती है।
स्थानात् स्थानं दशगुणमेकस्माद् गण्यते द्विज। ततोऽष्टादशमे भागे परार्द्धमभिधीयते। (विष्णु पुराण ६/३/४)
एकं दश शतं चैव सहस्रायुतलक्षकम्॥ प्रयुतं कोटिसंज्ञां चार्बुदमब्जं च खर्वकम्। निखर्वं च महापद्मं शङ्कुर्जलधिरेव च॥
अन्त्यं मध्यं परार्द्धं च संज्ञा दशगुणोत्तराः। क्रमादुत्क्रमतो वापि योगः कार्योऽन्तरं तथा॥
(बृहन्नारदीय पुराण २/५४/१२-१४)
एकदशशतसहस्रायुतलक्षप्रयुतकोटयः क्रमशः। अर्बुदमब्जं खर्वनिखर्वमहापद्मशङ्कवस्तस्मात्॥
जलधिश्चान्त्यं मध्यं परार्द्धमिति दशगुणोत्तराः संज्ञाः। संख्यायाः स्थानानां व्यवहारार्थंकृताः पूर्वैः॥
(लीलावती, परिभाषा १०-१२)
अयुतं प्रयुतं चैव शङ्कुं पद्मं तथार्बुदम्। खर्वं शंखं निखर्वं च महापद्मं च कोटयः॥
मध्यं चैव परार्द्धं च सपरं चात्र पण्यताम्। (महाभारत, सभा पर्व ६५/३-४)
यदर्धमायुषस्तस्य परार्द्धमभिधीयते। (श्रीमद् भागवत महापुराण ३/११/३३)
परार्द्धद्विगुणं यत्तु प्राकृतस्स लयो द्विज। (विष्णु पुराण ६/३/४)
लौकिके वैदिके वापि तथा सामयिकेऽपि यः। व्यापारस्तत्र सर्वत्र संख्यानमुपयुज्यते॥९॥
बहुभिर्विप्रलापैः किं त्रैलोक्ये सचराचरे। यत्किञ्चिद् वस्तु तत्सर्वं गणितेन विना न हि॥१६॥
(महावीराचार्य, गणित सार संग्रह १/९,१६)
एकं दश शतं च सहस्र त्वयुतनियुते तथा प्रयुतम्। कोट्यर्बुदं च वृन्दं स्थानात् स्थानं दशगुणं स्यात्।
(आर्यभट-१, आर्यभटीय २/२)
एकं दश च शतं चाथ सहस्रमयुतं क्रमात्। नियुतं प्रयुतं कोटिरर्बुदं वृन्दमप्यथ॥५॥
खर्वो निखर्वश्च महापद्मः शङ्कुश्च वारिधिः। अन्त्यं मध्यं परार्द्धं च संख्या दशगुणोत्तराः॥६॥
(शङ्करवर्मन्, सद्रत्नमाला, १/५-६)
इमा म अग्न इष्टका धेनवः सन्तु-एका च दश च, दश च शतं च, सतं च सहस्रं च, सहस्रं चायुतं चायुतं च नियुतं च, प्रयुतं च, अर्बुदं च, न्यर्बुदं च, समुद्रश्च मध्यं चान्तश्च परार्द्धश्चैता मे अग्न इष्टका धेनवः सन्त्वमुत्रा मुष्मिँल्लोके।
(वाजसनेयि यजुर्वेद १७/२)-इसमें प्रयुत के बाद कोटि, १० कोटि लुप्त हैं। न्यर्बुद के बाद खर्व, १० खर्व, शङ्कु नहीं हैं। इतने अवयवों (इष्टका = ईंट) से विश्व बना है। उत्पादन का साधन यज्ञ को गो कहा गया है जिसमें ३ तत्त्व हों-गति या क्रिया, स्थान, मिश्रण तथा रूपान्तर (उत्पादन)। अतः इन इष्टकों को धेनु (गो के अवयव) कहा है।
संख्या शब्दों के अर्थ-१,२,३,....९, १०, २०, ....९०, १००, १००० आदि संख्याओं के शब्द अति प्राचीन काल से व्यवहार में हैं। उनकी धारणा के अनुसार इन शब्दों के अर्थ हैं। प्राचीन व्याकरण तथा निरुक्त के आधार पर इनके अर्थ दिये जाते हैं। निरुक्त में शब्दों की वैज्ञानिक परिभाषा के आधार अपर व्युत्पत्ति है।
एक (१)-इण गतौ (पाणिनि धातु पाठ २/३८).अ+इ+क् = इता = चला या पहुंचा हुआ। १-१ कर ही गिनती आगे बढ़ती है, या यहां से इसकी गति का आरम्भ होता है। इता अंग्रेजी में इट् (It) हो गया है। (निरुक्त ३/१०)
द्वि (२) इसका मूल है वि = विकल्प। अंग्रेजी में वि का बाइ (Bi) हो गया है जो ग्रीक, अंग्रेजी का उपसर्ग है। इसका द्विवचन रूप द्वौ का मूल शब्द है द्रुततर, अर्थात् अधिक तेज चलनेवाला। यह एक से आगे बढ़ जाता है, अगली संख्या है।
त्रि (३) द्वि में २ की तुलना है, त्रि में कई से तुलना है। यह तीर्णतम है अर्थात् १, २ दोनों को पार किया है। तीर्णतम ही संक्षेप में त्रि हो गया है। ग्रीक उपसर्ग त्रि (Tri) का भी वही अर्थ है। यह अंग्रेजी में थ्री (Three) हो गया है।
चतुर् (४)-चत्वारः = च + त्वरा (तेज). यह ३ से भी तेज है। वेदों का विभाजन त्रयी है, विभाजन के बाद मूल अथर्व भी बचा रहता है (मुण्डकोपनिषद् १/१/१-५), अतः त्रयी का अर्थ ४ वेद हैं। इसका प्रतीक पलास है जिसकी शाखा से ३ पत्ते निकलते हैं। सामान्य त्रयी मनुष्यों से यह अधिक है अतः चतुर का अर्थ बुद्धिमान् भी है। हिब्रू/ग्रीक में भी यह क्वाड्री (Quadri) = क्वा + (ड्रि) त्रि = त्रि से अधिक। इससे क्वार्ट (Quart, चतुर्थ = १/४ भाग), क्वार्टर (Quarter, चतुरस्क, ४ दीवाल से घिरा कमरा) बने हैं।
पञ्च (५)-यह पृक्त = जुड़ा हुआ से बना है। हथेली में ५ अंगुली सदा जुड़ी रहती हैं। ५ महाभूतों से विश्व बना है। समान अर्थ का शब्द है पंक्ति = पच् + क्तिन् । मूल धातु है-पचष् या पच् पाके (१/७२२)-मिलाकर पकाना, पचि (पञ्च्) व्यक्तीकरणे (१/१०५), पचि (पञ्च्) विस्तार वचने-फैलाना, पसारना। पञ्च का ग्रीक में पेण्टा (Penta) हो गया है। स्पर्श व्यञ्जनों में ५वं वर्ग प-वर्ग है। हिन्दी, बंगला, ओड़िया में प वर्ण तथा ५ अंक का चिह्न एक जैसा है।
षट् (६)-निरुक्त ४/२७) के अनुसार यह सहति (= सहन करना, दबाना) से बना है। वर्ष को भी संवत्सर इसलिये कहते हैं कि इसमें ६ ऋतुयें एक साथ रहती हैं (सम्वसन्ति ऋतवः यस्मिन् स सम्वत्सरः-तैत्तिरीय ब्राह्मण ३/८/३/३, शतपथ ब्राह्मण १/२/५/१२ आदि)। य-वर्ग का ६वां वर्ण ष है । षष्ट का सिक्स (Six) या हेक्सा (Hexa) उपसर्ग हो गया है, अरबी/पारसी में स का ह हो जाता है।
सप्त (७)-निरुक्त (३/२६) में इसके २ मूल दिये हुये हैं। सप समवाये (पाणिनि धातुपाठ १/२८४)=पूरा समझना, मिलकर रहना। सप्त = संयुक्त। अन्य धातु है सृप्लृ गतौ (१/७०९) या सृ गतौ (१/६६९)। सर्पण = खिसकना, खिसकते हुये चलने के कारण सर्प कहा जाता है। सर्पति (=चलता है) में रेफ लुप्त होने से सप्ति = घोड़ा। ७ प्रकार के अश्व या वाहक मरुत् हैं, या सूर्य की ७ किरणें हैं, अतः सप्त =७। इससे ग्रीक उपसर्ग सेप्ट (Sept) तथा अंग्रेजी शब्द सेवेन (seven) बना है।
अष्ट (८) यह अशूङ् (अश्) व्याप्तौ संघाते च (५/१८) से बना है। इसी प्रकार का अर्थ वसु का है। वसु = वस् + उ = जो जीवित रहता है या व्याप्त है। ८ वसु शिव के भौतिक रूप हैं, अतः उनको अष्टमूर्त्ति कहा गया है। गति या वायु रूप में ११ रुद्र तथा तेज रूप में १२ आदित्य उनके रूप हैं। ज्योतिष पुस्तकों में प्रायः ८ के लिये वसु शब्द का प्रयोग है। आज भी रूसी भाषा में ८ को वसु कहते हैं। अष्ट से औक्ट (Oct) उपसर्ग तथा अंग्रेजी का एट (Eight) हुआ है।
नव (९)-मूल धातु है णु या नु स्तुतौ (२/२७) = प्रशंसा या स्तुति करना। इसी से नूतन (नया) बना है-क्षणे क्षणे यन्नवतामुपैति तदेव रूपं रमणीयतायाः। नव शब्द का अर्थ नया तथा ९ स्ंख्या दोनों है। ९ अंक के बाद अंक क्रम समाप्त हो जाता है तथा नया स्थान को ० से लिखते हैं, जहां अन्य अंक क्रम से आते हैं। अथवा नवम आयाम रन्ध्र (छेद, कमी) है जिसके कारण नयी सृष्टि होती है-नवो नवो भवति जायमानः (ऋक् १०/८५/१९)। अतः नव का अर्थ नया, ९ हुये। निरुक्त (३/१०) के अनुसार नव इन शब्दों का संक्षिप्त रूप है-न + व (-ननीया) = अनिच्छित, या न + अव(-आप्त) = अप्राप्त। नवम आयाम में रन्ध्र के भी यही २ अर्थ हैं-कमी, अनिच्छित। इससे अंग्रेजी में नानो (Nano) उपसर्ग तथा नाइन (Nine) बने हैं।
दश (१०)-निरुक्त (३/१०) में २ व्युत्पत्तियां हैं। दसु उपक्षये (४/१०३) = नष्ट होना या नष्ट करना। अंक पद्धति का यहीं अन्त होता है तथा अंक का नया स्थान शुरु होता है।। फारसी में भी दस्त (क्षय) के २ अर्थ हैं-मुख से भोजन बाहर निकलना (वमन क्रिया या पदार्थ), हाथ (ऊपरी शरीर से निकला, या कार्य बाहर निकलना)। दस्त का कार्य दस्तकारी है। अन्य मूल धातु है-दृशिर् (दृश्) प्रेक्षणे (१/७१४)=देखना। संसार १० रूपों में देखा जाता है या दस दिशाओं में देखते हैं, अतः दश, दशा (स्थिति) दिशा, सभी १० हैं।
विंशति (२०)-निरुक्त (३/१०) के अनुसार विंशति = द्वि+दश+क्तिन् = २ दश। भास के अभिषेक नाटक, नारद स्मृति (दिव्य प्रकरण) तथा पुराणों में विंशत् शब्द का भी प्रयोग है। अंग्रेजी में भी ट्वेण्टी (Twenty) का अर्थ है टू+टेन (two ten) ।
त्रिंशत् या त्रिंशति (३०) इसी प्रकार त्रिंशत् = त्रि + दश+ क्तिन् = ३ x १०। त्रिंशति का प्रयोग भी है-पञ्चतन्त्र (५/४१, ५/५३), भरद्वाज का विमान शास्त्र (पृष्ठ ७४), वराह गृह्य सूत्र (६/२९) आदि। अंग्रेजी में भी थर्टी (Thirty) का अर्थ है थ्री टेन (3x10) ।
चत्वारिंशत् या चत्वारिंशति (४०) =४ x १०। दूसरा शब्द अंग्रेजी में फोर्टी (Forty) हो गया है।
पञ्चाशत् (५०)-पञ्च + दश = ५ x १०। अंग्रेजी में फाइव टेन = फिफ्टी (Fifty)।
षष्टि (६०) =षट् +दश+ति = ६ दश द्वारा। अंग्रेजी रूप सिक्स्टी (Sixty) प्रायः समान है।
सप्तति (७०)- सप्तति + सप्त + दश + ति = ७ दश द्वारा। अंग्रेजी में भी सेवेन्टी (70) = सेवेन टेन (7x10)।
अशीति (८०)-अष्ट की तरह इसका मूल भी है-अशूङ् (अश्) व्याप्तौ संघाते च = व्याप्ति या संहति। इसी से अश या अशन = भोजन बने हैं। वेद में अशन का अर्थ भोजन, अशीति का अर्थ अन्न है जिसका भोजन किया जाय। साशनानशने अभि (पुरुषसूक्त, ऋग्वेद १०/९०/४, वाजसनेयि यजुः ३१/४, तैत्तिरीय आरण्यक ३/१२/२) अन्नमशीतिः (शतपथ ब्राह्मण ८/५/२/१७) या अन्नमशीतयः (शतपथ ब्राह्मण ९/१/१२१) अशीति छन्द अन्न की माप है। आधुनिक भौतिक विज्ञान में भी दृश्य जगत की कुल कण संख्या का अनुमान १०८६ है। अशीति = अष्ट + (दश) + ति= ८ दश। यह अंग्रेजी में एटी (Eighty) हो गया है।
नवति (९०)-नवति = नव + (दश) + ति = ९ दश। यह अंग्रेजी में नाइण्टी (Ninty) हो गया है।
शत (१००)- निरुक्त (३/१०) के अनुसार दश + दश (१० x १०) के २ बीच के अक्षर लेने से शद = शत हो गया है। सूर्य का तेज १०० योजन (१०० सूर्य व्यास) की दूरी पर शान्त हो जाता है, या मनुष्य भी १०० वर्ष के बाद शान्त (मृत) हो जाता है। शान्त से शत हुआ है। एषा वा यज्ञस्य मात्रा यच्छतम्। (ताण्ड्य महाब्राह्मण २०/१५/१२)-मनुष्य का यज्ञ (जीवन) १०० वर्ष चलता है, इन्द्र १०० वर्ष राज्य करने कॆ कारण शतक्रतु हैं। तद्यदेतँ शतशीर्षाणँ रुद्रमेतेनाशमयंस्तस्माच्छतशीर्षरुद्रशमनीयँ शतशीर्षरुद्रशमनीयँ ह वै तच्छतरुद्रियमित्याचक्षते परोऽक्षम्। (शतपथ ब्राह्मण ९/१/१/७) अंग्रेजी में शान्त = हण्ड = हण्डर (Hunder) या हण्ड्रेड (Hundred)।
सहस्र (१०००)-इसका अर्थ है सह + स्र = साथ चलना। प्रायः १००० व्यक्ति एक साथ रहते हैं (गांव या नगर के मुहल्ले में १ से १० हजार तक), या सेना में १००० लोग साथ रहते या चलते हैं। आदि काल से सेना की इकाई में १००० व्यक्ति साथ रहते थे, मुगलों ने ५ या १० हजार के मनसब दिये थे। महाराष्ट्र का हजारे या असम का हजारिका उपाधि का यही अर्थ है। किसी भी व्यक्ति को प्रायः १००० लोग ही जानते हैं। इन सभी अर्थों में सहस्र का अर्थ १००० है। फारसी में सहस्र का हस्र हो गया है जिसका अर्थ प्रभाव या परिणाम है। इससे हिन्दी में हजार हुआ है। सेना की व्यवस्था करने वालों को हजारी, हजारे (महाराष्ट्र) या हजारिका (असम) कहा जाता था। सूर्य का तेज १००० व्यास तक होता है जिसे सहस्राक्ष क्षेत्र कहा गया है। पर इसका कुछ प्रभाव उससे बहुत दूर तक भी है, वह ब्रह्माण्ड (आकाशगंगा) के छोर पर भी विन्दु मात्र दीखता है, अतः सहस्र का अर्थ अनन्त भी है। गीक में हजार (मिरिअड) तक ही गिनती थी अतः अनन्त को भी मिरिअड) ही कहते थे। किसी संख्या का अनुमान भी हम प्रायः ३ दशमलव अंक तक करते हैं, अर्थात् १००० में एक की शुद्धि रखते हैं। बड़ी संख्या जैसे देश का बजट भी हजार से कम रुपयों में नहीं लिखा जाता। अतः सहस्र का अर्थ 'प्रायः' भी होता है। पुरुरवा का शासनकाल ५६ वर्ष था, उसे प्रायः ६० वर्ष (षष्टि सहस्र वर्ष) कहा गया है। शासनकाल की एक और विधि है जिसे अंक कहा जाता है, जिसका आज भी ओडिशा के पञ्चाङ्गों में व्यवहार होता है। राजा के अभिषेक के बाद जब भाद्रपद शुक्ल द्वादशी आती है उसे शून्य मानकर वहां से गिनती आरम्भ करते हैं, अतः इस दिन को शून्य (सुनिया) कहते हैं। उसके आद के वर्षों में १, २, आदि अंक होते हैं। इस दिन वामन ने बलि से लेकर त्रिलोकी का राज्य इन्द्र को दिया था। इससे पूर्व इन्द्र राज्य-शून्य थे, उसके बाद अशून्य हुये। एक विधि में सभी अंक गिनते हैं, अन्य विधि में ०, ६ से अन्त होने वाले अंक छोड़ देते हैं। अतः पुरुरवा का ५६ वर्ष का राजत्व ६४ वर्ष भी लिखा जा सकता है जो कुछ अन्य पुराणों में है।
लक्ष (१०५)-मूल धातु है लक्ष दर्शनाङ्कयोः (१०/५, आत्मने पदी १०/१६४) = देखना, चिह्न देना, व्याख्या, दिखाना आदि। अतः सभी दृश्य सम्पत्ति लक्ष्मी तथा अदृश्य विमला (बिना मल का) है-
श्रीश्च ते लक्ष्मीश्च पत्न्यौ (उत्तरनारायण सूक्त, वाज. यजु. ३१/२२) ।
हमारे देखने की सीमा अपने आकार का प्रायः १०० हजार भाग होता है, अतः इस संख्या को लक्ष कहते हैं। मनुष्य से आरम्भ कर ७ छोटे विश्व क्रमशः १-१ लक्ष भाग छोटे हैं-
वालाग्रशतसाहस्रं तस्य भागस्य भागिनः। तस्य भागस्य भागार्द्धं तत्क्षये तु निरञ्जनम्॥ (ध्यानविन्दु उपनिषद्, ५)
मनुष्य से प्रायः लक्ष भाग का कोष (Cell) है जो जीव-विज्ञान के लिये विश्व है। उसका लक्ष भाग परमाणु है जो रसायन शास्त्र या क्वाण्टम मेकानिक्स के लिये विश्व है। पुनः उसका लक्ष भाग परमाणु की नाभि है जो न्यूक्लियर फिजिक्स के लिये विश्व है। उसका लक्ष भाग जगत् या ३ प्रकार के कण हैं-चर (हलके, Lepton), स्थाणु (भारी, Baryon), अनुपूर्वशः (दो कणों को जोड़ने वाले, Meson ) । उसका लक्ष भाग देव-असुर हैं जिनमें केवल देव से ही सृष्टि होती है, जो ४ में १ पाद है। उससे छोटे पितर, ऋषि हैं जिसका आकार १०-३५ मीटर है जो सबसे छोटी माप है। यह भौतिक विज्ञान मे प्लांक दूरी कही जाती है।
कोटि (१०७)-कोटि का अर्थ सीमा है, धनुष का छोर या छोर तक का कोण है। भारत भूमि की दक्षिणी सीमा धनुष्कोटि है। मनुष्यके लिये विश्व की सीमा पृथ्वी ग्रह है जिसका आकार हमारे आकार का १०७ गुणा है अतः १०७ को कोटि कहते हैं। पृथ्वी की सीमा सौरमण्डल उससे १०७ गुणा है। सौर मण्डल रूपी पृथ्वी (उसके गुरुत्वाकर्षण मे घूमने वाले पिण्डो) की सीमा ब्रह्माण्ड उससे १०७ गुणा है। ब्रह्माण्ड सबसे बड़ी रचना या काश्यपी पृथ्वी है जिसकी सीमा पूर्ण विश्व है जो इसी क्रम में १०७ गुणा होगा।
रविचन्द्रमसोर्यावन् मयूखैरवभास्यते। स समुद्र सरित् शैला पृथिवी तावती स्मृता॥३॥
यावत् प्रमाणा पृथिवी विस्तार परिमण्डलात्। नभस्तावत् प्रमाणं वै व्यास मण्डलतो द्विज॥४॥ (विष्णु पुराण २/७/३-४)
सूर्य-चन्द्र का प्रकाश जहां तक है उसे पृथ्वी कहा जाता है तथा उन सभी में समुद्र, नदी, पर्वत कहे जाते हैं। पृथ्वी ग्रह में तीनों हैं। सौर मण्डल में यूरेनस तक की ग्रह कक्षा से जो क्षेत्र बनते हैं वे द्वीप हैं तथा उनके बीच के क्षेत्र समुद्र हैं। यह लोक भाग है जिसकी सीमा को लोकालोक पर्वत कहा जाता है। उसके बाद १०० कोटि योजन (योजन = पृथ्वी व्यास का १००० भाग) व्यास क्षेत्र नेपचून कक्षा तक है। ब्रह्माण्ड में भी उसका केन्द्रीय थाली आकार का घूमने वाला क्षेत्र आकाशगंगा (नदी) कहते हैं। (मनुष्य तुलना से) पृथ्वी का जो आकार (व्यास, परिधि) है, (हर) पृथ्वी के लिये उसका आकाश उतना ही बड़ा है। अर्थात्, मनुष्य से आरम्भ कर पृथ्वी, सौर मण्डल, ब्रह्माण्ड तथा विश्व क्रमशः १०७ गुणा बड़े हैं। अर्बुद (१०८) अब्ज (१०९)-निरुक्त (३/१०) में इसकी ऊत्पत्ति अम्बुद = अर्बुद कही है। अरण तथा अम्बु-दोनों का अर्थ जल है। (शतपथ ब्राह्मण १२/३/२/५-६) के अनुसार १ मुहूर्त्त में लोमगर्त्त (कोषिका, अर्बुद) की संख्या प्रायः १०८ तथा स्वेदायन (स्वेद या जल की गति) १०९ है। आजकल हिन्दी में अर्बुद (अरब) का अर्थ १०९ (१०० कोटि) होता है। अब्ज का पर्याय वृन्द है जिसका एक अर्थ जल-विन्दु है।
पुरुषोऽयं लोक सम्मित इत्युवाच भगवान् पुनर्वसुः आत्रेयः, यावन्तो हि लोके मूर्तिमन्तो भावविशेषास्तावन्तः पुरुषे, यावन्तः पुरुषे तावन्तो लोके॥ (चरक संहिता, शारीरस्थानम् ५/२)
= पुरुष तथा लोक की माप एक ही है। लोक (विश्व) में जितने भाव-विशेष हैं उतने ही पुरुष में हैं।
एभ्यो लोमगर्त्तेभ्य ऊर्ध्वानि ज्योतींष्यान्। तद्यानि ज्योतींषिः एतानि तानि नक्षत्राणि। यावन्त्येतानि नक्षत्राणि तावन्तो लोमगर्त्ताः। (शतपथ ब्राह्मण १०/४/४/२)
= इन लोमगर्त्तों से ऊपर में ज्योति (ज्योतिष्) हैं। जितनी ज्योति हैं उतने ही नक्षत्र हैं। जितने नक्षत्र हैं उतने ही लोमगर्त्त हैं। शरीर में लोम (रोम) का गर्त्त (आधार) कोषिका हैं। आकाश में ३ प्रकार के नक्षत्र हैं-(१) सौर मण्डल की नक्षत्र कक्षा (सूर्य सिद्धान्त १२/८०) के अनुसार यह पृथ्वी (या पृथ्वी से दीखती सूर्य) कक्षा का ६० गुणा है जिसके बाद बालखिल्य आदि हैं। पर यह दीखते नहीं हैं।
भवेद् भकक्षा तीक्ष्णांशोर्भ्रमणं षष्टिताडितम्। सर्वोपरिष्टाद् भ्रमति योजनैस्तैर्भमण्डलम्॥८०॥
दीखने वाले (ज्योति) २ प्रकार के नक्षत्र हैं-(२) ब्रह्माण्ड (आकाशगंगा) में तारा, (३) सम्पूर्ण विश्व में ब्रह्माण्ड। ये दोनों विन्दु मात्र दीखते हैं। इनकी संख्या उतनी ही है जितनी शरीर में लोमगर्त्त या वर्ष में लोमगर्त्त (मुहूर्त्त का १०७ भाग) हैं।
पुरुषो वै सम्वत्सरः॥१॥ दश वै सहस्राण्यष्टौ च शतानि सम्वत्सरस्य मुहूर्त्ताः। यावन्तो मुहूर्त्तास्तावन्ति पञ्चदशकृत्वः क्षिप्राणि। यावन्ति क्षिप्राणि, तावन्ति पञ्चदशकृत्वः एतर्हीणि। यावन्त्येतर्हीणि तावन्ति पञ्चदशकृत्व इदानीनि। यावन्तीदानीनि तावन्तः पञ्चदशकृत्वः प्राणाः। यावन्तः प्राणाः तावन्तो ऽनाः। यावन्तोऽनाः तावन्तो निमेषाः। यावन्तो निमेषाः तावन्तो लोमगर्त्ताः। यावन्तो लोमगर्त्ताः तावन्ति स्वेदायनानि। यावन्ति स्वेदायनानि, तावन्त एते स्तोकाः वर्षन्ति॥५॥ एतद्ध स्म वै तद् विद्वान् आह वार्कलिः। सार्वभौमं मेघं वर्षन्त वेदाहम्। अस्य वर्षस्य स्तोकमिति॥६॥ ((शतपथ ब्राह्मण १२/३/२/५-६)
= १ वर्ष में १०,८०० मुहूर्त्त हैं। १ मुहूर्त्त दिवस (१२ घण्टा) का ३० वां भाग है। मुहूर्त्त के क्रमशः १५-१५ भाग करने पर-क्षिप्र, एतर्हि, इदानी, प्राण, अन (अक्तन), निमेष, लोमगर्त्त, स्वेदायन-होते है। जितने स्वेदायन हैं उतने ही स्तोक (जल-विन्दु) हैं। यह भारी वर्षा में जलविन्दु की संख्या है। स्वेद या जल-विन्दु का अयन (गति) उतनी दूरी तक हैं जितना प्रकाश इस काल में चलता है (प्रायः २७० मीटर)। हवा में गिरते समय उतनी दूरी तक इनका आकार बना रहता है।
अतः १ मुहूर्त्त =१५७ लोमगर्त्त =१.७१ x १०८ (अर्बुद)
= १०८ स्वेदायन=२.५६ x १०९ (अब्ज या वृन्द)
खर्व (१०१०) निखर्व (१०११)-ऊपर के उद्धरण के अनुसार आकाश में ब्रह्माण्ड या ब्रह्माण्ड में तारा संख्या १०८०० x १०७ है, जितने वर्ष में लोमगर्त्त हैं। किन्तु यह पुरुष के रूप हैं जो भूमि से १० गुणा होता है-
सहस्रशीर्षा पुरुषः सहस्राक्षः सहस्रपात्। स भूमिं विश्वतो वृत्त्वाऽत्यत्तिष्ठद्दशाङ्गुलम्॥ (पुरुष सूक्त १)
अतः भूमि (ब्रह्माण्ड) में तारा संख्या इसका दशम भाग १०११ है। खर्व का अर्थ चूर्ण या कण रूप है। विश्व के लिये ब्रह्माण्ड एक कण है, ब्रह्माण्ड के लिये तारा कण है।
महापद्म (१०१२)-पृथ्वी पद्म है, सबसे बड़ी पृथ्वी ब्रह्माण्ड महा-पद्म है, इसमें १०१२ लोमगर्त्त हैं, अतः यह संख्या महापद्म है।
शङ्कु (१०१३)-शङ्कु के कई अर्थ हैं- पृथ्वी पर अक्षांश, दिशा, समय या सूर्य क्रान्ति की माप के लिये १२ अंगुल का स्तम्भ खड़ा करते हैं जिसे शङ्कु कहते हैं (त्रिप्रश्नाधिकार)। इसका आकार शीर्ष पर विन्दु मात्र है तथा यह नीचे वृत्ताकार में चौड़ा होता गया है। चौड़ा आधार स्वयं स्थिर रह सकता है, वृत्ताकार होने पर यह समान रूप से निर्द्दिष्ट विन्दु के सभी दिशा में होगा। इस स्तम्भ का आकार शङ्कु कहलाता है। ग्रहों की गति जिस कक्षा में है वह वृत्त या दीर्घवृत्त है, जो शङ्कु को समतल द्वारा काटने से बनते हैं। ब्रह्माण्ड केन्द्र के चारों तरफ तारा कक्षा भी शङ्कु-छेद कक्षा (वृत्तीय) में हैं। इसी कक्षा ने इनको धारण किया है, अतः शङ्कु द्वारा विश्व का धारण हुआ है। सबसे बड़ा शङ्कु स्वयं ब्रह्माण्ड है, जो कूर्म चक्र (ब्रह्माण्ड से १० गुणा बड़ा-आभामण्डल) के आधार पर घूम रहा है। इसका आकार पृथ्वी की तुलना में १०१३ गुणा है। शङ्कु या शङ्ख का अर्थ वृत्तीय गति भी है। इसी से शक्वरी शब्द बना है-ब्रह्माण्ड के परे अन्धकार या रात्रि है, शक्वरी = रात्रि। शक्वरी का अर्थ सकने वाला, समर्थ है-यह क्षेत्र ब्रह्माण्ड की रचना करने में समर्थ है। इसका आकार अहर्गण माप में शक्वरी छन्द में मापा जाता है जिसमें १४ x ४ = ५६ अक्षर होते हैं। ५६ अहर्गण = पृथ्वी २५३ (५६-३)। कूर्म चक्र का भी यही अर्थ है-यह करने में समर्थ है। इस क्षेत्र जैसे आकार वाला जीव भी कूर्म (कछुआ) है। यह किरण का क्षेत्र होने से इसे ब्रह्मवैवर्त्त पुराण, प्रकृति खण्ड, अध्याय ३ में गोलोक कहा गया है।
ब्रह्मवैवर्त पुराण, प्रकृति खण्ड, अध्याय ३-अथाण्डं तु जलेऽतिष्टद्यावद्वै ब्रह्मणो वयः॥१॥
तन्मध्ये शिशुरेकश्च शतकोटिरविप्रभः॥२॥ स्थूलात्स्थूलतमः सोऽपि नाम्ना देवो महाविराट्॥४॥
तत ऊर्ध्वे च वैकुण्ठो ब्रह्माण्डाद् बहिरेव सः॥९॥
तदूर्ध्वे गोलकश्चैव पञ्चाशत् कोटियोजनात्॥१०॥नित्यौ गोलोक वैकुण्ठौसत्यौ शश्वदकृत्रिमौ॥१६॥
शतपथ ब्राह्मण (७/५/१/५)-स यत्कूर्मो नामा एतद्वै रूपं कृत्वा प्रजापतिः प्रजा असृजत, यदसृजत अकरोत्-तद् यद् अकरोत् तस्मात् कूर्मः॥
नरपति जयचर्या, स्वरोदय (कूर्म-चक्र)-मानेन तस्य कूर्मस्य कथयामि प्रयत्नतः।
शङ्कोः शतसहस्राणि योजनानि वपुः स्थितम्॥
ताण्ड्य महाब्राह्मण (११/१०) शङ्कुभवत्यह्नो धृत्यै यद्वा अधृतं शङ्कुना तद्दाधार॥११॥
तद् (शङ्कु साम) उसीदन्ति इयमित्यमाहुः॥१२॥
ऐतरेय ब्राह्मण (५/७)-यदिमान् लोकान् प्रजापतिः सृष्ट्वेदं सर्वमशक्नोद् तद् शक्वरीणां शक्वरीत्वम्॥
जलधि (१०१४)-ब्रह्माण्ड में तारा गणों के बीच खाली आकाश में विरल पदार्थ का विस्तार वाः या वारि कहा गया है, क्योंकि इसने सभी का धारण किया है (अवाप्नोति का संक्षेप अप् या आप्)। यह वारि का क्षेत्र होने से इसके देवता वरुण हैं।
यदवृणोत् तस्माद् वाः (जलम्)-शतपथब्राह्मण (६/१/१/९)
आभिर्वा अहमिदं सर्वमाप्स्यसि यदिदं किञ्चेति तस्माद् आपोऽभवन्, तदपामत्वम् आप्नोति वै स सर्वान् कामान्। (गोपथ ब्राह्मण पूर्व १/२)
यच्च वृत्त्वा ऽतिष्ठन् तद् वरणो अभवत् तं वा एतं वरणं सन्तं वरुण इति आचक्षते परोऽक्षेण। (गोपथ ब्राह्मण पूर्व १/७)
इस अप्-मण्डल का विस्तार पृथ्वी की तुलना में १०१४ है, अतः १०१४ = जलधि। जलधि का अर्थ सागर है, १०१४ एक सामान्य सागर में जलविन्दुओं की संख्या है। कैस्पियन सागर (सबसे बड़ी झील) का आकार ५००० वर्ग कि.मी. ले सकते हैं, औसत गहराई १कि.मी.। एक जल विन्दु का आयतन १/३० घन सेण्टीमीटर है, इससे गणना की जा सकती है। आकाश का वारि-क्षेत्र (ब्रह्माण्ड) सौर पृथ्वी से १०७ गुणा है, जो पृथ्वी ग्रह का १०७ गुणा है। अतः जलधि को जैन ज्योतिष में कोड़ाकोड़ी (कोटि का वर्ग) या सागरोपम कहा गया है।
समुद्राय त्वा वाताय स्वाहा (वाज. यजु. ३८/७)-अयं वै समुदो योऽयं (वायुः) पवतऽएतस्माद् वै समुद्रात् सर्वे देवाः सर्वाणि भूतानि समुद्रवन्ति। (शतपथ ब्राह्मण १४/२/२/२)
मनश्छन्दः... समुद्रश्छन्दः (वाज. यजु. १५/४)-मनो वै समुद्रश्छन्दः। (शतपथ ब्राह्मण ८/५/२/४)
अन्त्य (१०१५), मध्य (१०१६), परार्द्ध (१०१७)-जलधि (१०१४) की सीमा (अन्त) १०१५ है, अतः यह अन्त्य है। मध्य (१०१६) अन्त्य तथा परार्द्ध के बीच (मध्य) में आता है। पृथ्वी-व्यास का १००० भाग लेने पर १ योजन है, अतः यह आकाश का सहस्र-दल पद्म है। इस योजन में ब्रह्माण्ड का आकार १०१७ है, यह सबसे बड़ी रचना परमेष्ठी की माप है, अतः इसे परा या परार्द्ध कहते हैं। वैदिक माप में पृथ्वी परिधि का आधा अंश (७२० भाग) = ५५.५ कि.मी. १ योजन है। इस माप से ब्रह्माण्ड की कक्षा परा (१०१७) योजन का आधा है, अतः इसे परार्द्ध योजन कहते हैं। यह माप वेद में उषा के सन्दर्भ में है। उषा सूर्य से ३० धाम आगे चलती है। भारत में १५० का सन्ध्या-काल मानते हैं। यह सभी अक्षांशों के लिये अलग-अलग है, पर विषुव रेखा के लिये इसका मान स्थिर होगा जो धाम योजन या १/२ अंश का चाप होगा।
सदृशीरद्य सदृशीरिदु श्वो दीर्घं सचन्ते वरुणस्य धाम ।
अनवद्यास्त्रिंशतं योजनान्येकैका क्रतुं परियन्ति सद्यः ॥ (ऋक्, १/१२३/८)
इस माप में परम गुहा (परमेष्ठी, ब्रह्माण्ड) की माप परा (१०१७) योजन का आधा है-
ऋतं पिबन्तौ सुकृतस्य लोके गुहां प्रविष्टौ परमे परार्धे ।
छायातपौ ब्रह्मविदो वदन्ति पञ्चाग्नयो ये च त्रिणाचिकेताः ॥ (कठोपनिषद् १/३/१)
साभार
अरुण उपाध्याय
Hr. deepak raj mirdha
yog teacher , Acupressure therapist and blogger
www.deepakrajsimple.blogspot.com
www.swasthykatha.blogspot.com
www.deepakrajsimple.in
deepakrajsimple@gmail.com
www.youtube.com/deepakrajsimple
www.youtube.com/swasthykatha
facebook.com/deepakrajsimple
facebook.com/swasthy.katha
twitter.com/@deepakrajsimple
call or whatsapp 8083299134, 7004782073
yog teacher , Acupressure therapist and blogger
www.deepakrajsimple.blogspot.com
www.swasthykatha.blogspot.com
www.deepakrajsimple.in
deepakrajsimple@gmail.com
www.youtube.com/deepakrajsimple
www.youtube.com/swasthykatha
facebook.com/deepakrajsimple
facebook.com/swasthy.katha
twitter.com/@deepakrajsimple
call or whatsapp 8083299134, 7004782073
संख्या नामों के अर्थ
Reviewed by deepakrajsimple
on
February 27, 2018
Rating:
No comments: