आरक्षण किसकी देन है?


आरक्षण किसकी देन है? 

आरक्षण का concept पूना पैक्ट से निकला है , यह 1909 के मुस्लिम साम्प्रदायिक पृथक निर्वाचन की तरह ही देश और हिन्दुओ को तोड़ने के षड्यंत्र की एक कड़ी था । क्या जो अंग्रेज 1871 ई में क्रिमिनल ट्राइब एक्ट पास करके आदिवासियों को जन्मजात अपराधी घोषित करते है , क्या वह कभी आदिवासियों या भारतीयों का भला चाह सकते थे ???
भारत सचिव जान मार्ले और वायसराय लॉर्ड मिंटो ने 1909 में सुधार का एक मसौदा पेश किया जिसके आधार पर भारतीय परिषद अधिनियम पारित हुआ इसलिए इसे मार्ले-मिंटो सुधार भी कहते हैं।
सांप्रदायिक निर्वाचन प्रणाली 1909 के भारतीय परिषद अधिनियम के द्वारा मुस्लिमों के लिए पृथक निर्वाचन क्षेत्रों की व्यवस्था की गई, जहां मुस्लिम प्रतिनिधियों का चुनाव केवल मुस्लिम मतदाताओं को करना था। इस तरह अंग्रेजों ने भारत में बढ़ती हुई राष्ट्रवाद की भावना को कमजोर करने के लिए फूट डालो और राज करो की नीति के तहत साम्प्रदायिकता का जहर बो दिए।
इसके पूर्व इस कि मांग के लिए 1 अक्टूबर 1906 ई को आगा खा के नेतृत्व में मुसलमानों का शिष्टमंडल लार्ड मिंटो से मिलकर पृथक निर्वाचन व्यवस्था का मांग किया था । इस तरह राष्ट्रीय आन्दोलन से अपनी दुरी बनाते हुए मुसलमान अंग्रेजो के साथ अपने समीकरण सही करने की शुरू कर दिए जिसकी तरफ पहला कदम अंग्रेजों की पहल पर आंगा खान के नेतृत्व में 30 Dec ,1906 में मुस्लिम लीग की स्थापना हुई ।
मुस्लिमों के द्वारा बंगाल विभाजन का जबर्दश्त समर्थन किया गया और इसके बाद बंगाल के अनेक भागों में हिन्दू मुस्लिम दंगे भड़क उठे. । मित्रो उस आग से आज भी हिंदुस्तान जल रहा है पहले बंगलादेश , फिर पाकिस्तान अलग हुए अब हिंदुस्तान फिर एक बड़े विभाजन की ओर है यह सर्वविदित है ।
इसी तरह अंग्रेजो ने भारत सरकार अधिनियम, 1919 
मताधिकार का विस्तार किया गया। दुर्भाग्यवश सांप्रदायिक निर्वाचन मंडल को न केवल बनाए रखा गया बल्कि और बढ़ा दिया गया। अब मुसलमानों के साथ साथ सिखों, यूरोपीयों, भारतीय ईसाइयों तथा एंग्लो इंडियन को भी पृथक प्रतिनिधित्व मिला।
इसका परिणाम यह हुआ कि सिख को हिन्दू से अलग धर्म मानकर मान्यता प्रदान की गई , ध्यान रहे सिखों को अंग्रेज हिंदुस्तान में मार्शल रेस मानते थे । आज खालिस्तान की समस्या इसी 1919 अधिनियम की देन है , आज भी पंजाब में हिन्दू विरोधी और भारत विरोधी हिंसक आंदोलन चलते है ।
इसी तरह अंग्रेज प्रधानमंत्री रैम्जे मैकडोनाल्ड ने 16 अगस्त 1932 ई को 
पृथक निर्वाचन की व्यवस्था को और बढ़ाते हुए हरिजनों को भी इसमें शामिल किया गया।
बर्मा को भारत से अलग कर दिया गया।
सिंध प्रांत को बंबई से अलग कर दिया गया।
पूना समझौता (24 सितम्बर1932)
यह समझौता बी.आर.अम्बेडकर और महात्मा गाँधी के बीच पुणे की यरवदा सेंट्रल जेल में हुआ था और सरकार ने इस समझौते को सांप्रदायिक अधिनिर्णय में संशोधन के रूप में अनुमति प्रदान की |
★ ध्यान रहे दोस्तो , इस रिपोर्ट में यह भी कहा गया कि दलित वर्ग का मताधिकार लोथियन समिति की रिपोर्ट के अनुसार होगा |
★अच्छी अंग्रेजी बोलने के कारण ही ब्रिटिश वायसराय ने लंदन में आयोजित गोलमेज सम्मेलनों में "इंडियन लेजिस्लेटिव असेंबली' के मनोनीत सदस्य दलित नेता एम.जी.राजा की वरिष्ठता की उपेक्षा करके डा.अम्बेडकर को दलित वर्गों के लिए प्रथम मताधिकार की मांग उठाने के लिए लंदन भेजना उचित समझा था। ब्रिटिश जनमत पूर्ण स्वतंत्रता की मांग उठाने वाली कांग्रेस और गांधी से बहुत नाराज था और लंदन में हो रहे गोलमेज सम्मेलन में जनाधार से अधिक महत्व अंग्रेजी में सशक्त अभिव्यक्ति को प्राप्त था। इसलिए डा.अम्बेडकर , गांधी जी की कटु आलोचना करने के कारण सम्मेलन के भीतर और बाहर विशेष लोकप्रिय हो गये थे।
इस प्रकार 1890 के बाद से भारत में शुरू हुए जातीय धार्मिक अलगाववाद की प्रक्रिया अब राजनीति में भी प्रवेश कर गयी जिससे भारतीय समाज और राजनीति का जातिकरण और साम्प्रदायीकरण शुरू हुआ इसकी परिणति अंततः धार्मिक आधार पर देश के विभाजन के रूप में सामने आई और देश मे जातीय राजनीति को आधार मिलने के साथ भारतीय जातीय व्यवस्था एक शाश्वत संस्था के रूप में खड़ी हो गई और यह खाई निरन्तर बढ़ रही है , निकट भविष्य में ढहने के आसार असम्भव लगते है ।
पूना पैक्ट के समय देश की पहली जातिवादी पार्टी शेड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन के संस्थापक भीम राव अम्बेडकर साहब और जोगेंद्र नाथ मण्डल खुल कर मुस्लिम लीग के समर्थन में आ गए । खासकर अम्बेडकर साहब ने विभाजन को सही ठहराते हुए ओटोमन एम्पायर और चेकेस्लोवाक़िया का example भी दिया था ।
और यह मांग करने लगे कि भारत को तीन भाग में बांट देना चाहिए , एक दलित राष्ट्र , मुस्लिम राष्ट्र तीसरा शेष बचे शेष हिन्दू । ध्यान रहे उस समय ओबीसी जैसा टर्म existance में नही था , उन्हें हिन्दू में ही गिना जाता था । (जनगणना 1911 )
मित्रो अंग्रेजी हुकूमत ने दलितों को पृथक मताधिकार अर्थात् दो वोट देने का अधिकार देने का निर्णय लिया । एक वोट सामान्य उम्मीदवार (शेष हिन्दू , आज के सवर्ण और ओबीसी) को और 2 दलित उम्मीदवार को। 
मित्रो मानव सभ्यता में क्या ऐसा लोकतंत्र समता , और न्याय पर आधारित कहा जा सकता है ??
क्या मित्रो आप सोच सकते है कि अम्बेडकर जैसे लोग समाज और लोकतंत्र की कितनी निम्न समझ रखते थे ?? क्या ऐसा लोकतंत्र की कल्पना करने वाला उच्च दार्शनिक दृष्टिकोण का हो सकता है ??
फ्रांस , अमेरिका , जर्मनी , कनाडा जैसे बड़े लोकतांत्रिक देशो ने या वहां के किसी भी बड़े विचारक ने पृथक मताधिकार जैसे कोई भी विचार लाये हो । यह मानव सभ्यता का सबसे अन्यायपूर्ण उपनिवेशी प्रस्ताव था जिसके समर्थन में आगाँ खान , फिर खालिस्तानी सरदार मास्टर तारा सिंह और आगे भीम राव अम्बेडकर खड़े हुए थे ।
जो भी हो मित्रो इससे एक बात तो फिर भी साफ है कि अम्बेडकर साहब गरीबो के लिए नही अपितु जो भी कर रहे थे वह महाराष्ट्र के एक जाति के लिए था क्योकि आज़ भी दलितों ही नही ओबीसी और सवर्णो का एक बहोत बड़ा तबका गरीबी में है ।
जुलाई 1942 मे अम्बेडकर साहब ने लेबर पार्टी खत्म करके उसकी जगह श्ड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन (SCF) ( एक समुदाय महाराष्ट्र के महार विशेष की पार्टी) बनाई थी। वजह थी मार्च 1942 मे गठित क्रिप्स मिशन का फार्मूला।
इसके तहत मुस्लिम लीग को मुसलमानो का सरमाया मान उनके लिये अलग देश पाकिस्तान था। एसे ही अम्बेडकर साहब ने भी SCF बनाया और जोर दिया कि श्ड्यूल कास्ट भी मुसलमानो की तरह बाकि हिन्दुओ से अलग एक माइनोरिटी है। और उन्हे भी अलग देश मिलना चाहिये।
इसके लिये अम्बेडकर साहब ने लैंड सर्वे और पोपुलेशन ट्रान्सफर की तैयारी भी की।
इसी योजना के तहत SCF मुस्लिम लीग की सहयोगी पार्टी बनी। 1946 के चुनावो मे मुस्लिम बहुल और Sc बहुल इलाको ने मुस्लिम लीग को वोट दिया और पाकिस्तान को लैंड मिल गया पर अम्बेडकर साहब की पार्टी बुरी तरह से हार गई। आरक्षित सीटो पर भी कांग्रेस ही जीत गई।
इस तरह अम्बेडकर साहब का Sc के लिये अलग देश का सपना भी ध्वस्त हो गया।
श्रोतः क्रिस्टोफे जैफरेलाॅट की पुस्तक " डा अम्बेडकर एंड अनटचेबिल्टी: एनालाइजिंग एंड फाइटिंग कास्ट"
ब्रिटिश डिफेंस सेक्रेटरी ऑफ बड़ोदरा , और इंडो ब्रिटिश श्रम मंत्री , पूर्व में साइमन कमीशन के सदस्य रहे भीम राव अम्बेडकर ने जो मांग रखी , उसे पढ़ और सुनकर कोई भी राष्ट्रवादी व्यक्ति का सिर शर्म से झुक जाएगा । 
डॉक्टर अम्बेडकर ने कहा , 
" मैं जीवन भर अलग राष्ट्र के लिए अपनी जमीन के लिए लड़ता रहूंगा ।
(थॉट्स ऑन पाक वैगल हाल बॉम्बे फरवरी 1942 )
भारत वर्ष के साठ वर्षों में राजनीति का इस कदर पतन हुआ है, वह झूठे नारों और झूठे प्रतीकों पर जिंदा रहने की कोशिश कर रही है कि इस राजनीति में अम्बेडकर पर भी दलित वोट बैंक को रिझाने के लिए एक ओर विभिन्न राजनीतिक दलों के बीच, दूसरी ओर अनेक दलित नेताओं के बीच गलाकाट स्पर्धा छिड़ गयी है। लोग यह भूल गये हैं कि डा.अम्बेडकर का अनुयायी वर्ग प्रारंभ में महाराष्ट्र की महार जाति के एक वर्ग तक ही सीमित था। महाराष्ट्र के बाहर उन्हें बहुत कम लोग जानते थे। अमरीकी महिला इलिनोर जेलियद ने 1965 से 1969 तक के कालखंड में भारत में रहकर डा.अम्बेडकर पर जो शोधकार्य किया उसका शीर्षक "डा.अम्बेडकर और महाराष्ट्र का महार आंदोलन' रखा। गांधी जी ने 11 मार्च 1932 को यरवदा जेल से भारत सचिव सर सेमुअल होर को जो पत्र लिखा उसमें भी डा.अम्बेडकर को महारों का नेता बताया था।
महाराष्ट्र के दलित नेता पी.एन.राजभोज ने 7 जून, 1932 को वायसराय के निजी सचिव के नाम पत्र में लिखा कि ,
"चमार और मांग जातियों के लोग डा.अम्बेडकर को अपना नेता नहीं मानते और हम पृथक मताधिकार लेकर हिन्दू समाज से अलग नहीं होना चाहते।' 1930 के दशक में दलित वर्गों में आने वाली जातियों में शिक्षा नहीं के बराबर थी, आर्थिक दृष्टि से वे बहुत कमजोर थे और सामाजिक पिछड़ेपन का शिकार थे। डा.अम्बेडकर का नाम जानने वाले लोग तो महाराष्ट्र के बाहर निकले ही नहीं थे। यह अनुसंधान के लिए रोचक विषय है कि किस प्रकार डा.अम्बेडकर 1930 के दशक की अज्ञात स्थिति से पैगम्बर की वर्तमान स्थिति को प्राप्त कर सके?
यहां दोस्तो एक खास बात बताना चाहता हूँ कि उस समय भीमराव अंबेडकर को चर्मकार , पासी , मीणा , जाटव जैसी जातियां आज जो शोषण का रोना रोती है , और अम्बेडकर भक्त बन बैठी है । वह अम्बेडकर को अपना नेता नही मानती थी । उस समय ये जातीया अपने को ब्राह्मण और क्षत्रिय वर्ग में शामिल करवाने का आवेदन कर रही थी ऐसी हज़ारो प्रत्यावेदन आज भी अभिलेखागार में उपलब्ध है । उस समय चर्मकार जाती के नेता पी एन भोजराज हुआ करते थे , क्योकि वह अंग्रेजी नही बोल पाते थे इसलिए अंग्रेजो ने उन्हें डिप्रेस्ड क्लास वर्ग का नेता के रूप में नही चुना था ।
1871 से ही तथाकथित निचली जातियों और वनवासी पहाड़ी जनजातियों को हिन्दू जनसंख्या से अलग करने का कुचक्र प्रारंभ हो गया था। वनवासियों के लिए "एनीमिस्ट" नामकरण चलाने की कोशिश की गई किन्तु उन्हें प्रकृति पूजा के आधार पर हिन्दू समाज से अलग सिद्ध करना बहुत कठिन था। अत: इस विषय को लेकर ब्रिटिश जनगणना अधिकारियों में आपसी मतभेद हमेशा बना रहा और एक ही जनजाति की संख्या विभिन्न जनगणनाओं में बदलती रही। हिन्दू समाज की तथाकथित निम्न या अस्पृश्य जातियों को एकसूत्र में पिरोने की दृष्टि से 1901 में एक नया शब्द फेंका गया "डिप्रेस्ड क्लासेज"। इस शब्द को अंग्रेजी पढ़े-लिखे समाज सुधारकों ने तुरन्त अपना लिया। 1906 में बम्बई प्रान्त में "डिप्रेस्ड क्लासेज लीग" नामक मंच की स्थापना भी हो गई। 1906 में ही मुस्लिम प्रतिनिधिमण्डल ने उनकी गणना हिन्दू समाज से अलग करने की मांग उठा दी। 1901 की जनगणना में "सामाजिक वरीयता के सिद्धान्त" की प्रतिक्रिया में जो बवंडर खड़ा हुआ और ब्राह्मण-क्षत्रिय वर्णों में सम्मिलित होने की जो होड़ कथित डिप्रेस्ड क्लास द्वारा प्रारंभ हुई उससे परेशान होकर ब्रिटिश शासकों ने मई 1910 में आदेश जारी किया कि 1911 की अगली जनगणना में "सामाजिक वरीयता" के आधार पर जातियों का वर्गीकरण न किया जाए। किन्तु साथ ही तथाकथित निचली जातियों को हिन्दू समाज से अलग करने हेतु 12 जुलाई 1910 को एक नया आदेश जारी किया गया कि इन जातियों को "डिप्रेस्ड क्लासेज" शीर्षक के अन्तर्गत अलग से गिना जाय। इसे 1906 की मुस्लिम मांग की पूर्ति के रूप में भी देखा जा सकता है और 1871 से चली आ रही ब्रिटिश नीति का मुस्लिम कंधों पर सवार होकर क्रियान्वयन। किन्तु इस आदेश का जाग्रत राष्ट्रवाद ने सुरेन्द्र नाथ बनर्जी जैसे नेताओं के नेतृत्व में इतना कड़ा विरोध किया कि ब्रिटिश सरकार को 10 दिसम्बर, 1910 का अपना यह आदेश वापस लेने की सार्वजनिक घोषणा करनी पड़ी। यहां उल्लेखनीय है कि 1910 में पहली बार वेलंटाईन चिरोल नामक एक अंग्रेज लेखक ने लाल-बाल-पाल की त्रिमूर्ति द्वारा प्रवर्तित सांस्कृतिक राष्ट्रवाद को "हिन्दू पुनरुत्थानवाद" नाम दे दिया जो आगे चलकर मुस्लिम पृथकतावाद और वर्तमान सेकुलरवादियों की प्रिय ढाल बन गई।
साम्राज्यवाद के सामने एक समस्या यह थी कि "डिप्रेस्ड क्लासेज" शब्द फेंक तो दिया पर उसके अन्तर्गत किन जातियों को रखा जाय, किनको नहीं। आखिर, अस्पृश्यता की विभाजन रेखा इस सीढ़ीनुमा अखंड संरचना में कहां खींची जा सकती है? अस्पृश्यता की विभाजन रेखा को खोजने के लिए वे अंधेरे में टटोल रहे थे। 1911 के जनगणना आयुक्त ई.ए. गेट ने सभी जनगणना अधिकारियों को एक परिपत्र भेजकर अस्पृश्य जातियों की पहचान के लिए दस सूत्र प्रदान किये,
1. जो जाति ब्राह्मणों का वर्चस्व नहीं मानती
2. जो ब्राह्मणों या हिन्दू गुरुओं से मंत्र नहीं लेती
3. वे वेदों को प्रमाण नहीं मानती
4. जो प्रमुख हिन्दू देवी-देवताओं की पूजा नहीं करती
5. जो ब्राह्मणों को पुरोहित नहीं बनाती
6. अच्छे ब्राह्मण जिनका पौरोहित्य नहीं करते
7. जिनका हिन्दू मंदिरों में प्रवेश वर्जित है
8. जिनके स्पर्श या छाया से प्रदूषण होता है
9. जो अपने मुर्दों को गाड़ते हैं
10. जो गोमांस खाते हैं और गाय को माता नहीं मानते।
1917 में बंगाल सरकार ने गुप्त रूप से 31 समूहों की "दलित वर्गों" के अन्तर्गत पहचान करायी। इनमें से 21 निचली जातियां 6 पहाड़ी व वनवासी जातियां तथा 4 अपराधी जातियां थीं। ब्रिटिश सरकार ब्राह्मण से दूरी के आधार पर "डिप्रेस्ड क्लासेज" खोज रही थी, जबकि तथाकथित डिप्रेस्ड जातियां ब्राह्मण वर्ण में गिने जाने की मांग कर रही थीं। 1921 और 1931 की जनगणना रपटें ऐसे प्रतिवेदनों के उल्लेख से भरी पड़ी हैं। 1915 से भारत में गांधी जी के आगमन के बाद से राष्ट्रवाद ने विशाल जनान्दोलन का जो रूप धारण किया उससे जातिवादी चेतना का राष्ट्रवादी चेतना में तेजी से उन्नयन व विगलन हुआ।
जाति, जनपद और भाषा की संकुचित चेतनाओं को गहरा करने और उन्हें परस्पर प्रतिस्पर्धी बनाने में मुख्य भूमिका निभाई ब्रिटिश जनगणना नीति ने। 1864-65 से कुछ प्रान्तों में प्रारम्भ हुई जनगणना को ब्रिटिश शासकों ने 1871 में अखिल भारतीय दसवर्षीय जनगणना का रूप दे दिया। उसी परम्परा का हम आज भी पालन कर रहे हैं। 1980 के दशक में पंजाब में सिख पृथकतावाद के हिंसक विस्फोट से चौंक कर हमने इस पृथकतावाद की जड़ों को खोजने की दृष्टि से जब राष्ट्रीय अभिलेखागार में दस्तावेजों का आलोकन किया तो पाया पृथक सिख पहचान को स्थापित करने में ब्रिटिश जनगणना नीति का ही मुख्य योगदान है। उन्होंने ही सिख पहचान को दशम गुरु गोविन्द सिंह द्वारा 1699 में रचित खालसा पंथ के पंच ककार जैसे बाह्र लक्षणों में समाहित करके सिख समाज को गुरु नानक देव से गुरु तेगबहादुर तक के नौ गुरुओं की आध्यात्मिक परंपरा एवं उनके स्रोत गुरु ग्रन्थ साहब व दशम ग्रन्थ से अलग कर दिया।
ब्रिटिश जनगणना रपटों में हिन्दू शब्द को उसके भू-सांस्कृतिक अर्थों से काटकर इस्लाम और ईसाई मत जैसे संगठित उपासना पंथों की पंक्ति में खड़ा कर दिया गया, यद्यपि प्रत्येक जनगणना अधिकारी ने हिन्दू शब्द की व्याख्या करते समय यह स्वीकार किया कि हिन्दू शब्द किसी विशिष्ट उपासना पद्धति का परिचायक नहीं है। इस अर्थान्तरण के साथ ही उन्होंने हिन्दू शब्द से द्योतित समाज की परिधि को भी छोटा करना प्रारंभ कर दिया। परिधि- संकुचन की इस प्रक्रिया के आधार पर हिन्दू की व्याख्या करते हुए 1891 के जनगणना आयुक्त सर अर्थल्स्टेन बेन्स ने अपनी रपट में लिखा, "सिख, जैन, बौद्ध, एनीमिस्टिक (अर्थात् जनजातियां) तथा इस्लाम, ईसाइयत, पारसी एवं यहूदी मतानुयायियों को अलग करने के बाद जो बचता है वह "हिन्दू" शब्द के अन्तर्गत आता है।
यह जो बचा खुचा हिन्दू समाज है उसे भी जातीय, भाषायी एवं क्षेत्रीय प्रतिस्पर्धा में उलझा कर खंड-खंड करने का प्रयास ब्रिटिश जनगणना नीति के द्वारा आगे बढ़ता रहा। इस दिशा में हंटर के काम को हर्बर्ट रिस्ले ने आगे बढ़ाया। रिस्ले के आग्रह पर ब्रिटिश सरकार ने पूरे भारत में जातियों एवं नस्लों की सूचियां व जानकारी एकत्र करने के लिए रिस्ले की अधीनता में एक सर्वेक्षण विभाग की स्थापना की, जिसने सिर, नाक आदि प्राकृतिक मानव अंगों के आधार पर नस्ल निर्धारण की अधुनातन यूरोपीय विद्या का भारत में प्रयोग किया और प्रत्येक भारतीय जाति में कितना आर्य, कितना अनार्य अंश है इसका निर्णय करने वाली एक विशाल ग्रंथ श्रृंखला का निर्माण कराया। क्षेत्रश: "कास्ट्स एण्ड ट्राइब्स" की ये सूचियां आज भी भारतीय विश्वविद्यालयों में शोध के मुख्य सन्दर्भ ग्रन्थ हैं। हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय, शिमला के पूर्व कुलपति स्व. डा. एस.के. गुप्त के निर्देशन में भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद् (आई.सी.एच.आर.) ने ब्रिटिश जनगणना नीति के दस्तावेजीकरण पर एक बृहत प्रकल्प अंगीकार किया। प्रो. एस.के. गुप्त की अकस्मात् अनपेक्षित अकाल मृत्यु के बाद भी वह प्रकल्प आगे बढ़ता रहा। चार शोधार्थियों ने तीन-साढ़े तीन वर्ष तक कठिन परिश्रम करके 1871 से 1941 तक की जनगणना रपटों का गहन अध्ययन करके ब्रिटिश नीति पर प्रकाश डालने वाले हजारों दस्तावेज ढूंढ निकाले। किन्तु भारत का बौद्धिक क्षेत्र भी संकीर्ण दलीय राजनीति का बन्दी बन गया है। अत: 2004 के सत्ता परिवर्तन के बाद आई.सी.एच.आर. पर काबिज माक्र्सवादी मस्तिष्क ने ऐसे मूलगामी निरापद राष्ट्रोपयोगी प्रकल्प पर भी रोक लगा दी।
खैर, इन जनगणना रपटों का अध्ययन करने से जो बात उभर कर सामने आई वह यह थी कि एक ओर तो ब्रिटिश जनगणना अधिकारी इस्लाम, ईसाई आदि उपासना पंथों को संगठित रूप देने का प्रयास कर रहे थे, दूसरी ओर हिन्दू समाज में जाति, भाषा और क्षेत्र की विविधता पर बल देकर आन्तरिक कटुता और प्रतिस्पर्धा के बीज बोने में लगे थे। एक ओर तो वे अंग्रेजी शिक्षित हिन्दू मस्तिष्क में यह धारणा बैठा रहे थे कि जातिभेद ही भारत की अवनति और पराधीनता का मुख्य कारण है इसलिए जाति विहीन समाज रचना ही उनका लक्ष्य होना चाहिए, दूसरी ओर वे जनगणना के द्वारा जाति संस्था को सुदृढ़ एवं परस्पर प्रतिस्पर्धी बनाने का प्रयास कर रहे हैं। इस विषय को लेकर ब्रिटिश जनगणना अधिकारियों के बीच समय-समय पर आन्तरिक बहस भी हुई जिसमें एक पक्ष का कहना था कि सभ्यता के आधुनिक स्वरूप परिवर्तन के कारण जाति संस्था अप्रासंगिक एवं शिथिल हो रही है अत: उस पर इतना आग्रह करने का औचित्य क्या है? पर सरकार की अधिकृत नीति जाति के आधार पर शैक्षणिक, आर्थिक एवं सामाजिक जानकारी का वर्गीकरण करना थी।
सन् 1871 में पहली दसवर्षीय जनगणना की विभिन्न प्रान्तीय रपटों को पढ़ने से विदित होता है कि एक ओर तो प्रत्येक जनगणना अधिकारी जाति की गणना की कठिनाइयों का रोना रो रहा है, दूसरी ओर जाति को ही जनगणना का मुख्य आधार मान कर चल रहा है। उदाहरणार्थ, पश्चिमी उत्तर प्रदेश, जिसे उन दिनों "उत्तर-पश्चिमी प्रान्त" (एन.डब्ल्यू.पी.) कहा जाता था, के 1871 के जनगणना अधिकारी डब्ल्यू.सी. प्लाउडेन ने अपनी रपट में लिखा "जाति का प्रश्न इतना उलझा हुआ है और इस विषय पर सही जानकारी प्राप्त करना इतना कठिन है कि मैं आशा करता हूं कि अगली बार जाति सम्बंधी जानकारी इकट्ठा करने का कोई प्रयास नहीं किया जाएगा।" कुछ वर्ष बाद 1878 में उसने लिखा कि, "जाति के विषय पर जो कुछ जानकारी हम एकत्र कर पाये हैं वह उस पर किए गए परिश्रम की तुलना में कुछ नहीं है। मैं सलाह दूंगा कि जब तक हम इसका अच्छा प्रबन्ध करने की स्थिति में न हों हमें "जाति" के कालम को पूरी तरह निकाल देना चाहिए।"
1871 में मद्रास के जनगणना अधिकारी डब्ल्यू.आर. कोर्निश ने अपनी रपट में लिखा कि "जाति के विषय में जनता के भी किन्हीं दो वर्गों या उपवर्गों में मतैक्य नहीं है। जिन यूरोपीय अधिकारियों ने इस ओर थोड़ा भी ध्यान दिया है उनमें भी जाति की पहचान के बारे में भारी मतभिन्नता है। स्थिति इतनी खराब थी कि मद्रास की 1881 की जनगणना में, जातियों की संख्या 1871 की 3208 से बढ़कर 1881 में 19044 पहुंच गई।
यह सब जानते-बूझते भी ब्रिटिश शासन ने जनगणना में जाति संस्था को ही मुख्य आधार माना। जिन डब्ल्यू.सी. प्लाउडेन ने 1871 में पश्चिमी उत्तर प्रदेश के जनगणना अधिकारी के नाते भावी जनगणना में जाति का कालम निकाल देने की सलाह दी थी, उन्हें ही जब 1881 में पूरे भारत का जनगणना अधिकारी घोषित किया गया तो उन्होंने जाति सम्बंधी जानकारी के एकत्रीकरण को ही भावी शोध की मुख्य आधारशिला बताया। और भारत सरकार की ओर से तमाम स्थानीय अधिकारियों को आदेश भेजा गया कि वे जाति सम्बंधी जानकारी के एकत्रीकरण, वर्गीकरण एवं विश्लेषण की समुचित व्यवस्था करें।
प्रारंभ से ही जाति सम्बंधी जानकारी के एकत्रीकरण में सामाजिक ऊंच-नीच को मुख्य आधार माना गया, जिसके कारण विभिन्न जातियों के बीच प्रतिस्पर्धा को बढ़ावा मिला। बंगाल प्रान्त के जनगणना अधिकारी ने लिखा कि उच्च सामाजिक स्थिति पाने के लिए विभिन्न जातियों की ओर से प्राप्त प्रतिवेदनों का वजन लगभग डेढ़ मन (60 सेर या 120 पौंड) हो गया था।
हिन्दू समाज में जाति संस्था की पहचान का आधार क्या हो, इस बारे में भी ब्रिटिश जनगणना अधिकारियों में काफी मतभेद था। पंजाब के जनगणना अधिकारी डेंजिल इब्बेप्सन और संयुक्त प्रान्त के जनगणना अधिकारी जे.सी. नेसफील्ड इस विषय के विशेषज्ञ के रूप में उभरे थे। डब्ल्यू.सी. प्लाउडेन ने इन दोनों के साथ बैठकर इस विषय पर काफी लम्बा और गहन विचार-मंथन किया। नेसफीलड का मानना था कि केवल पेशे के आधार पर ही जाति की पहचान होना चाहिए। किन्तु आधुनिक शिक्षा व नए उद्योगों के उदय के कारण पेशों की परंपरागत दीवारें ढहने लगी थीं, जिसके कारण किसी जाति की पहचान को स्थायित्व देना कठिन हो गया था। पेशा परिवर्तन के कारण सामाजिक ऊंच-नीच की परम्परागत धारणाएं शिथिल हो रही थीं। अल्फ्रेड लायल की चिन्ता थी कि वनवासियों और नीची जातियों का तेजी से ब्राह्मणीकरण हो रहा है। जिसके फलस्वरूप जातियों का मानचित्र पूरी तरह बदल सकता है। इसके साथ ही अंग्रेजी शिक्षित समाज में राष्ट्रीय भावना की आधुनिक शब्दावली रूप प्रगट होने लगा था। 1867 का हिन्दू मेला, बंकिम चन्द्र चटर्जी का बंगला भाषा पर आग्रह, 1876 में सुरेन्द्र नाथ बनर्जी का भारत भ्रमण और 1885 में अखिल भारतीय कांग्रेस का जन्म जैसी घटनाएं ब्रिटिश शासकों के लिए राष्ट्रीय जागरण का खतरा बन गई थीं। जातिवाद को राष्ट्रवाद की काट के रूप में कैसे इस्तेमाल किया जा सकता यही मुख्य चिन्ता बन गई थी। 
वारेन हेस्टिंग्ज द्वारा कलकत्ता में स्थापित "कलकत्ता मदरसा" का प्रिंसिपल बनाकर एक अंग्रेज फारसीदां कैप्टन (ली) को 1854 में इंग्लैंड से भारत भेजा गया। कैप्टन ली ने चार वर्ष तक मुस्लिम मानस एवं आकांक्षाओं का गहरा अध्ययन करके 1858 में गवर्नर जनरल को एक गुप्त नोट भेजा, जिसमें उन्होंने लिखा कि सही या गलत, अधिकांश भारतीय मुसलमान स्वयं को भारत की मिट्टी से जन्मे नहीं मानते। वे स्वयं को विदेशी आक्रांताओं का वंशज मानते हैं। उनकी इस मानसिकता का हमें लाभ उठाना चाहिए। यही मानसिकता सर सैयद के लेखन और कार्यों में पूरी तरह अभिव्यक्त हुई। नोबल पुरस्कार विजेता विद्यासागर नायपाल भी अपनी दो बहुचर्चित पुस्तकों "अमंग दि बिलीवर्स" एवं "बियोन्ड बिलीफ" में इसी निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि इस्लाम में मतान्तरित व्यक्ति अपने देश, इतिहास और संस्कृति से पूरी तरह कटकर सातवीं शताब्दी के अरब इतिहास और संस्कृति में विलीन हो जाता है।
इसके विपरीत हिन्दू मानस को भारत भक्ति से ओतप्रोत पाया। "भारत माता" का भाव हिन्दू चेतना में गहरा संस्कारित था। इसी भाव को अठाहरवीं शताब्दी में मुस्लिम दासता के विरुद्ध "सन्तान विद्रोह" के "वन्देमातरम्" युद्ध गीत के रूप में बंकिम चन्द्र चटर्जी ने मुखरित किया। अंग्रेजी शिक्षा में पहल करने वाले जिन बंगालियों के पूर्ण अंग्रेजीकरण का भ्रम पाल कर वे चल रहे थे उन्हीं बंगालियों ने 1866 से ही स्वदेशी का मंत्र जाप प्रारंभ कर दिया। 1856 में ही महर्षि देवेन्द्र नाथ ठाकुर के सहयोगी अक्षय कुमार दत्त ने स्वदेशी शिक्षा की आवश्यकता पर बल देना आरम्भ कर दिया। 1866 में राजनारायण बोस ने विकास के स्वदेशी माडल की पूरी रूपरेखा प्रकाशित कर दी। 1867 में उन्होंने नबगोपाल मित्र के सहयोग से "स्वदेशी मेला" का श्रीगणेश किया। उल्लेखनीय है कि "स्वदेशी मेला" को "हिन्दू मेला" या "राष्ट्रीय मेला" भी कहा जाता था। अर्थात् उस समय का प्रबुद्ध हिन्दू मन "स्वदेशी" "हिन्दू" व "राष्ट्रीय" को एक ही समझता था। उसकी यह दृष्टि ब्रिटिश शासकों से छिपी न रह सकी। 1880 में सर जान सीले ने इंग्लैंड में एक भाषण माला में स्पष्ट शब्दों में प्रतिपादित किया कि भारत में राष्ट्रीयता की आधारभूमि हिन्दू समाज या ब्राह्मणवाद में ही विद्यमान है अत: भारत में ब्रिटिश शासन के स्थायित्व के लिए आवश्यक है कि हिन्दू मन की सामाजिक विजय के उपाय खोजे जाएं। सर जान सीले की प्रसिद्ध पुस्तक "एक्सपेंशन आफ इंग्लैंड" के इन अंशों को प्रसिद्ध देशभक्त लाला हरदयाल ने "सोशल कान्क्वेस्ट आफ हिन्दू रेस" शीर्षक से प्रकाशित किया था। 
श्रोतः 
(1)क्रिस्टोफे जैफरेलाॅट की पुस्तक " डा अम्बेडकर एंड अनटचेबिल्टी: एनालाइजिंग एंड फाइटिंग कास्ट"
(2) देवेंद्र स्वरूप - पूर्व प्राध्यापक दिल्ली यूनिवर्सिटी 
(3) पुस्तक वर्षिपिंग फाल्स गॉड - (भारत के प्रसिद्ध पत्रकार , लेखक, बुद्धिजीवी एवं राजनेता हैं। वे विश्व बैंक में अर्थशास्त्री थे (1968-72 और 1975-77) ; भारत के योजना आयोग में सलाहकार थे; इण्डियन एक्सप्रेस एवं
टाइम्स ऑफ इण्डिया नामक अंग्रेजी पत्रों के सम्पादक)
(4) ब्रिटिश एंसीयक्लोपीडिया
(5) अन्य स्त्रोत 

आरक्षण किसकी देन है? आरक्षण किसकी देन है? Reviewed by deepakrajsimple on February 25, 2018 Rating: 5

No comments:

Powered by Blogger.