चार हज़ार साल पहले की बात है। भारतवर्ष से समुद्री व्यापारियों का एक दल ऑस्ट्रेलिया जाने के लिए निकला। माल-असबाब के साथ उन्होंने कुछ कुत्तों को भी साथ ले लिया। ये वो समय था जब भारतवर्ष आज के मुकाबले कई गुना वृहद हुआ करता था। संभवतः पृथ्वी का सबसे विशाल और सर्वशक्तिमान देश।
ऑस्ट्रेलिया में चालीस हज़ार वर्ष पूर्व से मानव रह रहे थे लेकिन वे आदिमानव से ज्यादा नहीं थे। अचानक 4000 वर्ष पूर्व ऑस्ट्रेलिया के जन-जीवन के तौर-तरीकों में बदलाव आता है। आदिवासी 'टूल टेक्नोलॉजी' में दक्षता प्राप्त कर लेते हैं। उनकी 'फ़ूड प्रोसेसिंग' में उल्लेखनीय बदलाव आता है। उनकी खेती के तरीके बदल जाते हैं और भारत से महीनों का समुद्री सफर करके लाए गए 'कुत्ते' ऑस्ट्रेलिया के घास भरे मैदानों में प्रकट होते हैं।
कुत्ते जो आज ऑस्ट्रेलियाई डिंगो प्रजाति के नाम से जाने जाते हैं। डिंगो इतनी प्राचीन प्रजाति है कि आदिमानवों द्वारा बनाए शैलचित्रों में भी वे दिखाई देते हैं। एक भारतीय प्रजाति जो प्रतिकूल वातावरण में खुद को ढाल सकी और आज तक जीवित है। भारत के ऑस्ट्रेलियाई कनेक्शन का प्रमाण केवल ये कुत्ते ही नहीं है।
2013 में एक अंतरराष्ट्रीय स्तर का शोध किया गया। ये शोध ऑस्ट्रेलिया, न्यू गुएना व फिलीपींस के मूल निवासियों पर किया गया। शोध में पाया गया कि भारतीयों और इन निवासियों के वंशाणुओं में समानता पाई गई है। वैज्ञानिक कहते हैं कि 11700 वर्ष पूर्व भूगर्भीय हलचलों के चलते कई प्राकृतिक आपदाएं आईं और उस समय की सभ्यताओं में बड़े स्तर पर पुनर्वास हुए थे। भारतीय भी इसी कालखंड में ऑस्ट्रेलिया पहुंचे थे।
भारतवर्ष के 'स्वर्णिम स्पर्श' से ऑस्ट्रेलिया आदिम अँधेरे से निकलकर सभ्यता के उजास में आया लेकिन स्वार्थी पश्चिम इसे मानने से सदा ही इंकार करता रहा है। इन दोनों प्रमाणों के अलावा तीसरा और सबसे सशक्त प्रमाण कल ही सामने आया है।1659 में डच कार्टोग्राफर जोआन ब्लायू ने ऑस्ट्रेलिया का एक नक्शा बनाया था।
इसे Archipelagus Orientalis नाम दिया गया। ये नक्शा उस समय बनाया गया था जब मशहूर खोजी कैप्टन जेम्स हुक पेसिफिक ओशियन में पहुंचे भी नहीं थे। ये नक्शा लगभग नष्ट हो चुका था। कई साल की मेहनत के बाद इसकी मरम्मत कर ली गई है। इस नक़्शे में भी भारतवर्ष दिखाई देता है। कुर्ते धोती और लम्बे केश वाले सज्जन को देखिये और उसके पास खड़े पगड़ीधारी ग्रामीण को देखिये। इसमें आपको गौमाता के भी दर्शन हो जाएंगे। पश्चिम कितना भी झुठला ले लेकिन पूर्व का उजास जानकारियों और ज्ञान के रूप में यूँ ही बाहर आता रहेगा।
✍🏻 विपुल रेगे
महाभारत के पशु
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मनुष्य का पहला पालतू पशु शायद कुत्ता था, और महाभारत की शुरुआत की कहानियों में भी कुत्तों का जिक्र आता है। जहाँ महाभारत शुरू होती है वहां परीक्षित के पुत्र जनमजेय अपने भाइयों के साथ मिलकर एक यज्ञ की तैयारी कर रहे होते हैं। आदिपर्व के इस शुरूआती हिस्से में बताया गया है कि इस यज्ञ के स्थल पर सारमेय नाम का सरमा का पुत्र यानि कुत्ता आता है। जनमजेय के भाई उसे मार कर वहां से भगा देते हैं। पिटकर वो रोता धोता जब अपनी माँ के पास आता है तो सरमा पूछती है क्यों रो रहे हो ?
कारण पता चलने पर वो कहती है, जरूर तुमने हविष्यान्न इत्यादि में कहीं मूंह डाल दिया होगा, इसलिए तुम्हें मारकर भगाया। जब पता चलता है कि बेवजह सिर्फ वहां होने के कारण पीट दिया गया है तो सरमा यज्ञ स्थल पर जाती है और पूछती है कि अकारण ही उसके पुत्र को क्यों पीटा गया ? लेकिन जनमेजय और उनके भाईयों ने जवाब नहीं दिया। तब सरमा ने उनसे कहा, 'मेरा पुत्र निरपाध था, तो भी तुमने इसे मारा है अतः 'तुम्हारे ऊपर अकस्मात ऐसा भय उपस्थित होगा, जिसकी पहले से कोई सम्भावना न रही हो।' इस शाप से घबराकर जनमजेय पाप शमन हेतु यज्ञ करने, एक अच्छा पुरोहित ढूँढने निकलते हैं।
महाभारत के शुरुआत के इस हिस्से में परीक्षित के पुत्र सर्प यज्ञ की तैयारी में हैं, यानि महाभारत को जिस हिस्से के लिए जाना जाता है वो बीत चुका होता है। महाभारत चूँकि फ़्लैश बैक जैसा चलता है, इसलिए आप इस पहले हिस्से को महाभारत का आखरी हिस्सा भी कह सकते हैं। काफी पुराने इस दौर से ही भारत में कुत्ते पालने की परंपरा रही है, इस वजह से भारत में आज भी कई अच्छी नस्ल के कुत्ते होते हैं। विदेशी प्रभाव और इसाई हमलों के दौरान कानूनों को बदलने से रही पाबंदियों के कारण कई नाम अल्सेशियन या डालमीटीयन, जर्मन शेफर्ड जैसे प्रसिद्ध नहीं हैं।
ऐसी प्रसिद्ध नस्लों में से एक कन्नी भी है, ये दक्षिण भारतीय नस्ल होती है। तमिल में कन्नी का मतलब कंवारी कन्या होता है। इस नामकरण के पीछे कारण ये है कि वफादार, मजबूत काठी के इस शिकारी कुत्ते को अक्सर शादी में लड़की के साथ ही विदा किया जाता था। खरीदने-बेचने के बदले शादी के उपहार में मिलने की वजह से धीरे धीरे इसका (और बकरी का) भी नाम कन्नी पड़ गया। इसी की एक करीबी नस्ल चिप्पीपरई भी होती है। दक्कन से दिल्ली तक के इलाकों में एक कारवानी नाम की और दूसरी रामपुर हाउंड नाम की नस्लें भी होती हैं। दक्षिण भारत के राजपाल्यम और कोम्बाई नस्ल के कुत्तों को भी अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई में इस्तेमाल किये जाने का जिक्र आता है।
सेना में उनके इस्तेमाल के कारण ही इसाई हमलावरों ने उनके पाले जाने पर लाइसेंस-परमिट लागू किया। भारतीय शस्त्र कलाओं की तरह ये भी अज्ञात होने लगे। आज ज्यादातर दक्षिण भारत को हाथियों के पालन के लिए जाना जाता है। इसका एक बड़ा कारण ये है कि हाथी दक्षिण भारतीय मंदिरों के सभी आयोजनों में दिखते हैं। कई बार जंगलों से लकड़ियाँ लाने में भी इनका इस्तेमाल होता है। सड़क निर्माण में भी दक्षिण भारत में हाथियों का इस्तेमाल होता दिखता है। महाभारत के समय में दक्षिण भारत नहीं बल्कि उत्तर-पूर्व को हाथियों के इस्तेमाल के लिए जाना जाता है।
राजसूय यज्ञ के दिग्विजय में व्यास की सलाह थी कि पूर्व के लोग मल्ल युद्ध में कुशल हैं और वो अक्सर हाथियों पर से लड़ते हैं, इसलिए उस क्षेत्र की और भीम को भेजा जाना चाहिए। इसी राजसूय यज्ञ की तैयारी में भीम का जरासंध से युद्ध हुआ था। वहां से आगे वो शिशुपाल के क्षेत्र में जाते हैं, लेकिन वो शिशुपाल से लड़े नहीं थे, बल्कि शिशुपाल का आतिथ्य तीस दिन तक स्वीकार किया था। दसरण नाम के योद्धाओं से उनके लड़ने का जिक्र है, बाद में इन्हीं के राजा सुधर्म भीम की सैनिक टुकड़ियों के प्रमुख थे। आगे उनके भगदत्त से लड़ने का जिक्र आता है।
भगदत्त के बहुत बूढ़े होने और आम तौर पर युद्धों से परहेज करने का जिक्र आता है। महाभारत काल में जो गिने चुने चुने योद्धा वैष्णवास्त्र का इस्तेमाल कर सकते थे उनमें से भगदत्त भी एक थे। भगदत्त अपने सुप्रतीक नाम के हाथी पर से लड़ते थे और महाभारत में उन्होंने अर्जुन पर वैष्णवास्त्र चलाया भी था। कृष्ण के रथ पर होने के कारण वैष्णवास्त्र किसी काम नहीं आया और भगदत्त और उनकी हाथियों की सेना बारहवें दिन के युद्ध में अर्जुन के हाथों मारी गई। नरका वंश और प्रग्जोतिशपुर (अभी का उत्तरपूर्वी भारत) के शासन उनके पुत्र वज्रदत्त ने उनके बाद संभाला था।
महाभारत से पहले के समय था भारत में बाघों का जिक्र भी नहीं आता है। योद्धाओं की तुलना सिंह से तो होती है लेकिन बाघ से नहीं होती। बाद में भारत के सबसे लम्बे समय तक शासन करने वाले राजवंश, अहोम राजाओं के नाम में भी सिंघा ही होता था। करीब करीब इसी समय में दुर्योधन के लिए नरव्याघ्र शब्द का इस्तेमाल होता दिख जाता है। शेर की तुलना में बाघ बेहतर शिकारी होता है, शेर शक्तिसंपन्न होने पर भी आलसी माना जाता है। बाघों के भारत में उत्तर पूर्व से प्रवेश के साथ ही शेर का क्षेत्र सिमटने लगा। ब्रिटिश शासकों और इसाइयों के शेर के शिकार के शौक के कारण उत्तर पूर्वी क्षेत्र से सिमटते हुए शेर अंग्रेजों के जाने तक, सिर्फ गुजरात में बचे। बाघों की भारतीय प्रजाति को लुप्त करने में भी ब्रिटिश योगदान उल्लेखनीय है।
पालतू पशुओं में गाय का महत्वपूर्ण होना भी महाभारत के काल में ही दिखना शुरू हो जाता है। युद्ध के लिए उकसाने में गायों को चुरा ले भागना अक्सर सुनाई दे जाता है। परशुराम की कहानी में भी गाय छीनने के लिए युद्ध शुरू होता है। जैसे आज सीमा (बॉर्डर) पर नो मैन्स लैंड होता है, कुछ वैसा ही उस समय की गोचर भूमि के लिए भी होता होगा। एक बार गोचर भूमि के इलाके में ही पांडवों को चिढ़ाने आये दुर्योधन को बाँध लिया जाता है और कर्ण युद्ध से भाग खड़ा होता है। बाद में चित्ररथ नाम के यक्ष से पांडव ही दुर्योधन को छुड़ाते हैं। पांचाल नरेश द्रुपद और विराट से युद्ध के लिए भी गायें ही चुराई जाती हैं।
इसी काल में रथों की महत्ता भी दिखाई देती है। एक ख़ास रथ का जिक्र पांडवों-कौरवों-यदुवंशियों के पूर्वज, राजा नाहुष के पुत्र, ययाति के समय ही मिलना शुरू हो जाता है। सभी दिशाओं में चलने वाले इस रथ को उन्होंने किसी निरपराध ब्राह्मण पर चढ़ा दिया था, तब ययाति से रथ छीन गया। ये काफी कुछ आज के ड्राइविंग लाइसेंस सीज़ होने जैसा मामला लगता है। ययाति का यही रथ बाद में जरासंध के पास था, लेकिन उसके पुत्र को ये नहीं मिला था। जरासंद के पुत्र के जिक्र में उसके अंगरक्षक यानि एकलव्य का जिक्र तो आता है मगर किसी ख़ास रथ की चर्चा नहीं है।
रथों के मामले में कृष्ण से लड़ने ले के लिए शाल्व भी तपस्या से एक ख़ास रथ ही प्राप्त करता है। अर्जुन को अग्नि से रथ मिला होता है, कृष्ण के रथ का जिक्र होता है। रथ और सारथि महत्वपूर्ण होते थे, ये अर्जुन और उत्तर के एक दुसरे के सारथि होने, कृष्ण से और शल्य से रथ चलाने के निवेदन में भी दिख जाता है। व्यूहों की संरचना या रथ चलाना स्त्रियों को भी आता था। उलूपी-चित्रांगदा में, सुभद्रा को चक्रव्यूह की रचना सिखाने में या अर्जुन के बदले उसी से रथ चलाने के कृष्ण के निर्देश में भी ये दिख जाता है। रथों के महत्वपूर्ण होने का मतलब होता था घोड़ों का भी महत्वपूर्ण हो जाना।
गायों, घोड़ों के नाम जब इतने महत्वपूर्ण हों कि वो अब के समय तक चले आयें तो पशु की एक कृषिप्रधान समाज में महत्ता भी नजर आ जाती है। सभी जाने माने रथों में इस दौर में चार या उस से अधिक घोड़े जुते होते हैं। सूर्य के रथ में सात और रामायण काल के दशरथ के नाम भी रथ घुसा हुआ नजर आता है। महाभारत और अन्य वेदान्त के ग्रंथों में कई बार मन को भी अश्व के समान बताया जाता है। महाभारत के काल में आर्यों के रथों और घोड़ों पर भारत में प्रवेश का झूठ भी आम तौर पर चलता रहा था। आर्यन इन्वेशन की इस थ्योरी को नकार दिया गया था क्योंकि ये तर्कों के सामने टिकती नहीं थी। मध्य भारत के गोंड इलाके की गुफाओं के भित्ति चित्र भी बताते हैं कि घोड़ों को काफी पहले से भारत में पाला जाता था।
कृष्ण के रथ के चार अश्व थे, शैब्य, सुग्रीव, मेघपुष्प और बलाहक। आज के दौर की जगन्नाथ पुरी रथ-यात्रा तक भी उन घोड़ों के वही नाम चले आये हैं। जगन्नाथ पुरी पर इस्लामिक आक्रमणों और ईसाईयों के इसे आम भारतीय समाज से अलग करने के प्रयास ज्यादा कामयाब नहीं हुए। आश्चर्यजनक रूप से पुरी में घोड़ों के नाम तो जिन्दा रहे लेकिन बाद के भारत में देश का बिलकुल दूसरा सिरा घोड़ों के लिए जाना जाने लगा। अश्विनेय नाम से महाभारत में जाने जाने वाले नकुल-सहदेव में से नकुल को दक्षिण की दिग्विजय इसलिए सौंपी गई थी क्योंकि व्यास का मानना था कि उस ओर के योद्धा अश्व सञ्चालन और तलवार जैसे मुक्त और मुक्तामुक्त अस्त्र-शस्त्रों के सञ्चालन में कुशल थे।
पशुओं का इस काल तक इलाज भी होने लगा था उनकी बीमारियाँ पहचानी जाती थीं, ये इस बात से पता चलता है कि नरकासुर से युद्ध के बाद विराट से बात करते हुए नकुल बता रहे होते हैं कि वो घोड़ों की सभी बीमारियाँ पहचान, और उसका इलाज कर सकते हैं। इनके अलावा महाभारत जंगल, पर्यावरण और वन्य जीवों की भी चर्चा करता है, लेकिन उनके बारे में फिर कभी।
साभार आनंद कुमार
Hr. deepak raj mirdha
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कुत्ता, वंशाणु और नक्शा
Reviewed by deepakrajsimple
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November 09, 2017
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