वेद की अपौरुषेयता और सनातनता बहुत गम्भीर विषय है। वेदों की अपौरुषेयता तथा सनातन होना परस्पर सम्बन्धित हैं। उनके लिये भाषा भी वैसी ही होनी चाहिये। लोकप्रिय बनने के लिये बौद्ध धर्म ने लोकभाषा का प्रयोग किया। पर जिस भाषा का प्रयोग था वह भाषा ही लुप्त हो गयी या नये रूप में आ गयी। तब उनको समझने में २ गुणा परिश्रम होता था-पहले पता करें कि मूल संस्कृत रूप क्या था, फिर संस्कृत का वर्तमान भाषा में अनुवाद करें। वेद दो प्रकार के हैं-शब्द वेद तथा सृष्टि वेद। सृष्टि तथा शब्दों का सम्बन्ध सनातन है अतः वेद भी सनातन हैं। यह तत्त्व अव्यय पुरुष कहलाता है। ४ अर्थों में अपौरुषेय हैं--(१) संसार को देखकर जो ज्ञान प्राप्त होता है वह वेद है। यह श्रवण आदि ५ ज्ञानेन्द्रियों द्वारा प्राप्त है अतः श्रुति ज्ञान है। इसको ग्रहण करने की योग्यता मति ज्ञान है। यह किसी विशेष घटना के बारे में है। जब उसका मूल सत्य सभी स्थान और काल में सत्य हो तो वह अवधि ज्ञान है। अतः जैन शास्त्रों में तीर्थङ्करों के अवधि ज्ञान की तुलना में वेद (श्रुति) को निम्न दिखाया गया है। (२) यह कई लोगों के ज्ञान का समन्वय है। एक शास्त्र या व्यक्ति अपूर्ण और तात्कालिक होता है, किन्तु उनका समन्वय सनातन है। ब्रह्मसूत्र का आरम्भ-शास्त्रयोनित्वात्। तत् तु समन्वयात्। (१/१/३-४)। (३) हमारा ज्ञान ५ ज्ञानेन्द्रियों द्वारा ५ प्राणों द्वारा ग्रहण होता है। किन्तु कुल ७ प्रकार के प्राण हैं जिनको मुण्डक उपनिषद् में अग्नि की ७ जिह्वा कहा है जिनसे ७ प्राण उत्पन्न होते हैं। इनमें २ अतीन्द्रिय या असत् (इन्द्रियों से परे) प्राण हैं जिनको परोरजा कहते हैं-ऋषि और पितर प्राण। अतीन्द्रिय ज्ञान को मिलाने पर अपौरुषेय होता है। (४) एक व्यक्ति या सीमाबद्ध अन्य वस्तु (छन्द) नाशवान् है, पर मूल स्रोत (ऊर्ध्व) से फल (अन्तिम निर्माण) तक का क्रम सनातन है जो अव्यय है इस क्रम या वृक्ष को जानने वाला ही वेद जानता है अर्थात् आकाश (आधिदैविक), पृथ्वी (आधिभौतिक) और शरीर के भीतर (आध्यात्मिक) का सम्बन्द वेद द्वारा स्थापित होता है जो अपौरुषेय और सनातन है। ऊर्द्ध्वमूलमधः शाखमश्वत्थं प्राहुरव्ययम्। छन्दांसि यस्य पर्णानि यस्तं वेद स वेदवित्॥ (गीता १५/१)
सृष्टि का आरम्भ आकाश से हुआ पर भाषा का निर्माण पार्थिव वस्तुओं के नाम से हुआ जो ब्रह्मा ने आरम्भ किया था। सर्वेषां तु स नामानि कर्माणि च पृथक् पृथक्। वेदशब्देभ्य एवादौ पृथक् संस्थाश्च निर्ममे॥ (मनुस्मृति १/२३)। पार्थिव वस्तुओं के कर्म अनुसार नामों के अर्थ का विस्तार आधिदैविक और आधिभौतिक अर्थों तथा पृथ्वी की ही अन्य संस्थाओं -जैसे भौगोलिक, ऐतिहासिक (प्रचलन, निपात), वैज्ञानिक, लिपि-भाषा के अनुसार हुआ। लिपि स्थायी है पर शब्दों के अर्थ भविष्य के अज्ञात अर्थों को भी रखते हैं तभी भाषा स्थायी हो सकती है। सृष्टि का निर्माण अप् (द्रव) से हुआ अतः जहां पार्थिव शब्दों का निर्माण हुआ उसे द्रविड़ कहा। जहां इसके अर्थों का विस्तार (आकाश, आत्मिक) वह कर्णाटक हुआ। इन्द्रियजन्य ज्ञान श्रुति है (अन्य ४ भी शामिल), इसका ग्रहण कर्ण से होता है अतः इसके विस्तार का स्थान कर्णाटक है। इसका प्रभाव या समन्वय जहां हुआ वह महाराष्ट्र हुआ। भक्ति द्वारा ही यह ज्ञान होता है। अहं भक्तिरिति ख्याता इमौ मे तनयौ मतौ।ज्ञान वैराग्यनामानौ कालयोगेन जर्जरौ॥४५॥
उत्पन्ना द्रविडे साहं वृद्धिं कर्णाटके गता। क्वचित् क्वचित् महाराष्ट्रे गुर्जरे जीर्णतां गता॥४८॥
तत्र घोर कलेर्योगात् पाखण्डैः खण्डिताङ्गका। दुर्बलाहं चिरं जाता पुत्राभ्यां सह मन्दताम्॥४९॥
वृन्दावनं पुनः प्राप्य नवीनेव सुरूपिणी। जाताहं युवती सम्यक् श्रेष्ठरूपा तु साम्प्रतम्॥५०॥
(पद्म पुराण उत्तर खण्ड श्रीमद् भागवत माहात्म्य, भक्ति-नारद समागम नाम प्रथमोऽध्यायः)
भगवान् कृष्ण काल में नवीन रूप में वेदव्यास ने संकलन (वेदानां विव्यासः) किया। यह भाषा इन्द्र ने शब्द-शास्त्र के आचार्य मरुत् की सहायता से बनायी थी जिसमें वर्णों का क्रम उच्चारण स्थान के अनुसार है। इसमें ३३ देवों के चिह्न अ से ह तक है, स्वर मिला कर ४९ मरुतों के चिह्न हैं। यह चिह्न रूप में देवों का नगर होने से देवनागरी है। इन्द्र का दिशा पूर्व से मरुत् दिशा पश्चिमोत्तर तक यह लिपि आज भी प्रचलित है। इसी क्षेत्र में सोहर भी प्रचलित है जो सौवर का अपभ्रंश है। यह शुभ अवसरों पर (वैदिक) स्वर सहित पाठ है। पं छन्नूलाल मिश्र ने एक सोहर सामवेद के प्रथम मन्त्र की तरह गाया है। अलग अलग कार्यों या विषयों का अध्ययन ६ प्रकार से होता है जिनको ६ दर्शन कहते हैं। दर्शन विश्व का वर्णन करता है, जो ३ आयाम का है। पर लिपि (दर्श वाक्) कागज पर २ आयामी सतह पार् लिखी जाती है। अतः दर्श वाक में उतने ही वर्ण होंगे जितने दर्शन के तत्त्वों के वर्ग हैं। ५ आयामी विश्व का वर्णन सांख्य के ५ x ५ = २५ तत्त्वों से होता है। अतः २५ वर्णों कि रोमन लिपि है जिसे सांख्य अत्रि ने बनाया था। शैव दर्शन के ३६ तत्त्वों के अनुरूप तन्त्र लिपि (अरबी, लैटिन, रूसी, गुरुमुखी) हैं। ४९ मरुत् के अनुसार देवनागरी (क्षेत्रज्ञ को मिला कर ५२ अक्षर) हैं। ६४ कला के अनुरूप ब्राह्मी लिपि। वेद की विज्ञान वाक् (७ संस्थाओं में अर्थ का विस्तार) १७ x १७ = १८९ वर्णों (चिह्न मिला कर) हैं। व्योम अर्थात् तिब्बत से परे चीन में सहस्राक्षरा लिपि है, जो आकाश में सर्वव्यापी इन्द्र (प्रकाश) की तरह है। -गौरीर्मिमाय सलिलानि तक्षति एकपदी सा द्विपदी चतुष्पदी। अष्टापदी नवपदी स बुभूवुषी सहस्राक्षरा परमे व्योमन्॥ (ऋक् १/१६४/४६)।
साभार अरुण उपाध्याय
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शब्द वेद और सृष्टि वेद
Reviewed by deepakrajsimple
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November 11, 2017
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