संस्कृत के कुछ विश्व-व्यापी शब्द
संस्कृत को विश्व भाषा कहते हैं। यह किस अर्थ में है? भारत के भीतर ही विभिन्न क्षेत्रों के विशेष संस्कृत शब्द हैं। भौगोलिक, ऐतिहासिक तथा वैज्ञानिक कारणों से शब्दों के प्रचार या प्रयोग में विविधता है। मनुस्मृति में लिखा है-वेद शब्देभ्य एवादौ पृथक् संस्थाश्च निर्ममे। कई स्थानों पर 7 संस्था कही गयी है। शब्दों के मूल अर्थ आधिभौतिक थे जब ब्रह्मा ने सबका नाम कर्मों के अनुसार दिया था-सर्वेषां तु स नामानि कर्माणि च पृथक् पृथक्। बाद में इन अर्थों का विस्तार आकाश की आधिदैविक सृष्टि तथा शरीर के भीतर आध्यात्मिक विश्व के लिए हुआ। आधिभौतिक विश्व जो पृथ्वी पर दीखता है उसमें भी विज्ञान की परिभाषा के अनुसार अलग अलग अर्थ हो जाते हैं। इसको वृद्धि कहा गया है। भागवत माहात्म्य हर भागवत प्रवचन के पहले कहा जाता है। उसके अनुसार ज्ञान की उत्पत्ति द्रविड़ में हुई तथा वृद्धि कर्णाटक में हुई। आज भी कर्णाटक में ही वैदिक शोध अधिक होता है। विजयनगर स्थापना के समय जब हरिहर तथा बुक्क राय अपनी तथा राज्य के अस्तित्व के बारे में ही चिन्तित थे, उनकी पहली चेष्टा थी सायण द्वारा वेद की व्याख्या करवाना। वेद प्रकृति (निसर्ग) का ज्ञान है जो श्रुति आदि 5 माध्यमों से मिलता है, अतः उसे श्रुति कहते हैं। श्रुति कर्ण द्वारा होती है। अतः उसकी जहाँ वृद्धि हुई वह कर्णाटक है। उसका प्रसार जहाँ तक हुआ वह महः (आवरण, महल) क्षेत्र महाराष्ट्र है।
उत्पन्ना द्रविड़े साऽहं वृद्धिं कर्णाटके गता।
क्वचित् क्वचित् महाराष्ट्रे गुर्जरे जीर्णतां गता।।
शब्दों के अतिरिक्त लिपि संस्था भी है। 6 प्रकार के दर्शन के अनुसार 6 प्रकार के दर्श-वाक् या लिपि भी होगी। दर्शन के जितने
तत्त्व हैं उतने ही लिपि के अक्षर होंगे। 10 आयाम के विश्व में 5 आयाम यान्त्रिक विश्व के वर्णन के लिए पर्याप्त हैं। उसके अतिरिक्त चेतना के 5 स्तरों के अनुसार 5 और आयाम होंगे। चेतना वह है जो चिति (चित्र, प्रारूप) कर सके। पहले एक पुर के संगठन रूप में होने का भाव है वह पुरुष है। दो पिण्डों में सम्बन्ध ऋषि (रस्सी) आयाम है। पिण्डों का सीमा बद्ध होना नाग आयाम है। परिवर्तन कमी या रन्ध्र के कारण होता है जो नवम आयाम है-नवो नवो भवति जायमानः। दशम आयाम है रस या आनन्द जो विश्व का सर्वव्यापी मूल स्रोत है। इनके अनुसार लिपियों के अक्षर होंगे-(1+4) का वर्ग, (2+4) का वर्ग, (1+2+4) का वर्ग, 8 का वर्ग, (8+9) का वर्ग तथा सहस्त्र। यह अस्य वामीय सूक्त में निर्दिष्ट है-
गौरीर्मिमाय सलिलानि तक्षति एकपदी सा द्विपदी चतुष्पदी।
अष्टापदी नवपदी सा बुभूवुषी सहस्राक्षरा परमे व्योमन्।।
हमारे लिए व्योम त्रिविष्टप् या तिब्बत है जिसके परे चीन जापान की सहस्राक्षरा लिपि है।
लिपि भेद के अनुसार भी शब्दों के अर्थ या वाक्य रचना बदलती है।
रामायण में हनुमानजी को 9 भाषाओं का विद्वान् कहा गया है। पता नहीं उस समय भारत में इतनी भाषा थी या कुल भाषा में केवल 9 जानते थे। रावण भारत की स्थानीय भाषायें नहीं जानता था। अतः वह सीता जी से शुद्ध संस्कृत में बात करता था। सुन्दर काण्ड में हनुमानजी चिन्ता करते हैं कि सीता जी से संस्कृत में बात करने पर उनको रावण का आदमी समझेंगी। अतः उन्होंने अयोध्या मिथिला के बीच की भाषा का प्रयोग किया (उस समय की मैथिली या भोजपुरी)।
कई वैज्ञानिक शब्द पूरी दुनिया में एक ही थे। नार्वे स्वीडन का उनकी अपनी भाषा में नाम देखा तो वह शुद्ध संस्कृत में है-नोर्गे (नर्क), स्वर्गे (स्वर्ग)। हमारे यहाँ गर्म है, अतः ऊंचा पहाड़ स्वर्ग है जैसे त्रिविष्टप् (तिब्बत)। समुद्र तल से नीचे मृत सागर या नरक है। ठण्डे स्थान में पहाड़ी जगह नर्क तथा समतल भूमि स्वर्ग है। उत्तर ध्रुव पृथ्वी का सिर है-नक्शा या ग्लोब में। सिर के ठीक दक्षिण या नीचे स्कन्ध (स्कैण्डिनेविया) है। भारत में समुद्र तट को वेला भूमि कहते हैं। रूस का समुद्र तट भी बेलारूस है। पहाड़ पर रास्ता बनाते हैं तो ऊपर की तरफ breast wall तथा नीचे की तरफ retaining wall बनाते हैं। समुद्र तल से नीचे उलटा है जैसे द्वारका में। नीचे वक्षः (ओखा) या breast wall तथा ऊपर धरां-धरा (retaining wall) है। साइबेरिया का पूर्व भाग भी समुद्र तल से नीचे है। वहाँ का तट भी ओखा या ओखोट्स्की है। रूस में भी ऋग्वेद के अध्ययन का केन्द्र रीगा था जैसे उत्तर बिहार के सीतामढी में रीगा है।
स्त्री के लिये दम शब्द पश्चिम एशिया या यूरोप में ही प्रचलित था (फ्रेंच में Dame)। अतः संस्कृत में पत्नी-पति का दम्पति हो जाता है।
भारत का पूर्व भाग प्राग्ज्योतिषपुर (असम) या ओडिशा के पूर्व तट पर बहुत से उदयगिरि हैं। पश्चिम तट पर सूर्यास्त (सूरत), रत्नागिरी हैं। एशिया का पश्चिम तट सीरिया भी शाम देश था। यूरोप के उत्तर पश्चिम तट पर भी राटरडम (रात्रि धाम), एम्स्टर्डम (तारा धाम) है।
ऋग्वेद में पत्नी के 4 नाम सभी भारत में नहीं मिलते। इनके बारे मे पतञ्जलि ने महाभाष्य में कहा है कि पृथ्वी पर 7 द्वीप हैं-हर जगह खोजें। कहीं न कहीं उसका प्रयोग मिल जायेगा। पत्नी का एक नाम ववाता है जिसका अर्थ घर का मालिक है। यह पुरानी अरबी में था। आजकल केवल केन्या में इस अर्थ में प्रयुक्त होता है। एक पाला-गली = दूती नाम है। पिता और पति परिवार के बीच सम्बन्ध-दो पाला के बीच गली। पता नहीं पुराने विश्व में यह कहाँ प्रचलित था। इस अर्थ में तोता भी कहा है अर्थात् तोता की तरह बोलते रहना है। तोता भी भारतीय संस्कृत में नहीं था।
अवलेह, लेह्य, लेहन, लेलिह्यसे
च्यवनप्राश आपने कभी-न-कभी खाया होगा। खाया क्या, चाटा होगा। आपने देखा होगा कि च्यवनप्राश के डब्बों पर 'अवलेह' लिखा रहता है। पहला चित्र देखिये, 'Awaleha' लिखा है। क्या है यह अवलेह? 'अवलिह्यते जिह्वाग्रेण आस्वाद्यते इति अवलेहः'। कर्म में घञ् प्रत्यय है। अर्थात् जो औषधि जिह्वा के अग्रभाग से चाटी जाये वह अवलेह है। सुश्रुत संहिता आदि आयुर्वेद के ग्रन्थों में अनेक अवलेहों के नाम प्राप्त होते हैं।
अश्वगन्धा औषधि का नाम आपने सुना होगा। काम भारतीय दर्शन में तृतीय पुरुषार्थ है; कामसूत्र की फलश्रुति के अनुसार धर्म, अर्थ, तथा काम की रक्षा वात्स्यायन के कामशास्त्र का उद्देश्य है। काम पुरुषार्थ की रक्षा में अश्वगन्धा औषधि बहुत उपयोगी है। इसके अनेक अन्य लाभ हैं। अश्वगन्धा को 'लेह्य' कहा जाता है, दूसरा चित्र देखिये। 'लेहनीय इति लेह्यः'। अर्थात् जो चाटने योग्य है वह लेह्य है। 'ऋहलोर्ण्यत्' (३.१.१२४) से योग्य अर्थ में 'ण्यत्' प्रत्यय है।
सुश्रुत संहिता में छः प्रकार के भोजन बताए गए हैं: चूष्य, पेय, लेह्य, भोज्य, भक्ष्य और चर्व्य। गीता में चतुर्विध अन्न की चर्चा है। भगवान् कहते हैं, "अहं वैश्वानरो भूत्वा प्राणिनां देहमाश्रितः, प्राणापानसमायुक्तः पचाम्यन्नं चतुर्विधम्" (१५.१४) अर्थात् "मैं प्राणियों के देहों में आश्रित वैश्वानर बनकर प्राण और अपान से युक्त हो चार प्रकार के अन्नों को पचाता हूँ"। चार प्रकार के अन्न अर्थात् भक्ष्य (जो चबाया जाए यथा रोटी-चावल), भोज्य (जो निगला जाए यथा दूध), लेह्य (जो चाटा जाए यथा चटनी), और चोष्य (जो चूसा जाए जैसे गन्ना)।
भक्ष्य, भोज्य, लेह्य, और चोष्य से सम्बन्धित क्रियाएँ हैं भक्षण, भोजन, लेहन, और चोषण। 'लिह्यते इति लेहनम्'। भक्षण, भोजन, लेहन, और चोषण: सबका अपना-अपना आनन्द है। 'लेहन' का समानान्तर हिन्दी शब्द है 'चाटन'। इसी प्रकार 'चटनी' और 'चाट' शब्द भी हैं। जो चाटी जाये वो चटनी है। मेरी प्रिय चटनी इमली की है (तीसरा चित्र), आपकी इष्ट चटनी कौनसी है? और जिस प्रकार के भोजन में चाटने योग्य पदार्थों का भरपूर प्रयोग हो वे 'चाट' हैं। गोलगप्पा और दही-पापड़ी खाया हैं न?
अब अन्त में फिर गीता पर आइये। एकादश अध्याय में अर्जुन श्रीकृष्ण के विश्वरूप (चौथा चित्र) का वर्णन करते हुए कहते हैं कि 'लेलिह्यसे ग्रसमानः समन्ताल्लोकान्समग्रान्वदनैर्ज्वलद्भिः' (११.३०)। शङ्कराचार्य ने कहा 'लेलिह्यसे आस्वादयसि' अर्थात् "आप चाट रहे हैं"। परन्तु यह अर्थ कुछ न्यून है। वास्तविक अर्थ रामानुजाचार्य ने कहा है, 'लेलिह्यसे पुनः पुनः लेहनं करोषि' अर्थात् "आप बार-बार चाट रहे हैं"। आया न लेहन शब्द? वस्तुतः 'लेलिह्यसे' यङन्त रूप है, अतः यहाँ बार-बार (पुनः पुनः) या अत्यधिक (भृशम्) का भाव है। इसीलिये रामानुजाचार्य का पक्ष यहाँ अधिक युक्त है। इससे आप यह जानिये कि अधिक से अधिक भाष्यों के अध्ययन से लाभ ही होगा, आपका संप्रदाय कोई भी हो।
तो अवलेह, लेह्य, लेहन, लेलिह्यसे में क्या समान है? इन सबमें 'लिह् आस्वादने' धातु है जिसका अर्थ है चाटना। इसके लट् लकार में रूप बनते हैं लेढि लीढः लिहन्ति, लेक्षि लीढः लीढ, लेह्मि लिह्वः लिह्मः। मध्यमपुरुष एकवचन में 'लेक्षि' रूप है। इसीलिये गुरुदेव (स्वामी रामभद्राचार्य) के भाष्य में 'लेलिह्यसे' का अर्थ दिया है 'अतिशयेन लेक्षि'।
साभार नित्यानंद मिश्रा
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