भारत की ३ काशी


पूरा भारत दक्षिण से देखने पर अधोमुख त्रिकोण है। प्राचीन काल से दक्षिण को नक्शा में नीचे दिखाया जाता है। तन्त्र में अधोमुख को शक्ति त्रिकोण कहा जाता है।  ऊर्ध्व मुख शिव त्रिकोण है। श्री यन्त्र में 4 शिव तथा 5 शक्ति त्रिकोण हैं (सौन्दर्य लहरी, 31)। शक्ति या स्त्री का मूल रूप कुमारी है। अतः त्रिकोण का मूल या अधोमुख शीर्ष कन्या कुमारी है। कुमारी से आरम्भ होने के कारण भारत की मुख्य भूमि को पुराणों में कुमारिका खण्ड कहा गया है। सम्भवतः भारतवर्ष के सभी 9 खण्ड शिव-शक्ति त्रिकोण थे। 
काशी ज्ञान का स्रोत है। इसकी स्थिति मस्तिष्क के आज्ञा चक्र में इड़ा-पिड़्गला-सुषुम्ना के त्रिकूट पर है। भारत के भू, भुवः, स्वः लोकों में तीन काशी हैं। त्रिविष्टप में तीन विटप ब्रह्मा, विष्णु, शिव के हैं जहाँ का जल ब्रह्मपुत्र, सिन्धु तथा गंगा से निष्कासित होता है। इन नदियों के स्रोतों का मिलन त्रिविष्टप = तिब्बत के  स्वः लोक का काशी है। ऊपर मस्तिष्क जैसे भाग में होने से यह कैलास है।
मध्य लोक हिमालय तथा विन्ध्य के बीच का मैदानी क्षेत्र है। सूर्य वंशी दिलीप को रघुवंश  (2/42) में मध्यम लोकपाल कहा गया है। यह कृषि रूपी मूल यज्ञ का केन्द्र होने से तेज तथा शक्ति का केन्द्र है। अतः यहाँ की काशी का वही नाम है। इसके त्रिकण्टक हैं-वरुणा, गंगा, असि (दुर्ग)। दक्षिण भारत व्यापार या धन प्रधान होने से द्रविड़ है। अतः यहाँ की काशी को काञ्ची  (स्वर्ण) कहते हैं। यहां के त्रिकण्टक तीन समुद्र हैं।

कुछ प्रश्न-
(1) भारत के किन राजाओं को अश्वपति या गजपति कहते थे? 
अनुमान-महाभारत में कलिंग की गज सेना तथा उससे भीमसेन का युद्ध विख्यात है। आज भी प्राचीन कलिंग के  पुरी से राजमहेन्द्री तक के राज परिवारों की उपाधि गजपति है। असम तथा कर्णाटक में हाथी अधिक पकडे जाते थे पर वहां के राजा गजपति नहीं थे। युद्ध के बाद भीमसेन को पूर्व भारत का राजा नियुक्त किया था। बंगाल के अन्तिम राज परिवार की उपाधि भी सेन थी।
 अश्वपति केकय तथा उत्तर ओडिशा में थे। ओडिशा के अश्वपति के पास आरुणि उद्दालक शिक्षा के लिए गये थे। उनके नाम पर ऊदला सबडिवीजन तथा कृष्ण यजुर्वेद की औदलकठ शाखा है। इनकी अश्वसेना के अधिकारी हयशाल थे,  जो यहाँ नहीं बल्कि कर्णाटक के होयसल हुए। उससे भोंसले हुआ (शिवाजी का वंश)

भारत के वैदिक नाम-
वेद और तन्त्र के अनुसार विन्दु या इन्दु से हिन्दू हुआ है। यह मूल वैदिक  धारणा लगती है। बाद में चिन्तन कर लगा कि यह आध्यात्मिक,  आधिदैविक, आधिभौतिक सभी स्तरों पर सत्य है।
आकाश में शून्य (असत्) से सृष्टि हुई जिसका प्रतीक विन्दु है। विन्दु का प्रसार सोम या इन्दु है। यह चन्द्र विन्दु है। इसका पुरुष-प्रकृति के भेद का द्वैत विसर्ग है जिससे सृष्टि होती है। 
पृथ्वी पर सभ्यता का केन्द्र भारत था। हिम युगके चक्र से हिमालय द्वारा सुरक्षित रहने के कारण यहाँ स्थायी सनातन सभ्यता रही। हिमालय तीन विष्टप (विटप के मूल की तरह हजारों स्रोतों से जल ग्रहण) में बंटा है, अतः त्रिविष्टप (तिब्बत) कहते हैं। जिस क्षेत्र का जल सिन्धु नदी से निकलता है वह विष्णु विटप है। इस अर्थ में कश्मीर पृथ्वी का स्वर्ग है। जिस क्षेत्र का जल गंगा द्वारा समुद्र तक पहुंचता है वह शिव विटप या शिव जटा है। पूर्व भाग का जल ब्रह्मपुत्र से निकलता है,  वह ब्रह्म विटप है। ब्रह्मपुत्र के परे ब्रह्म देश (बर्मा) अब महा-अमर = म्याम्मार है। इन तीनों क्षेत्रों का केंद्र विन्दु सरोवर है जिसे मान सरोवर भी कहते हैं। कुल मिलाकर दो समुद्रों में विसर्ग होता है। सिन्धु नदी का विसर्ग स्थल सिन्धु समुद्र तथा गंगा का विसर्ग स्थल गंगा सागर है। यही ब्रह्मा का कमण्डल भी है जिसमें गंगा विलीन होती है। कर-मण्डल का संक्षेप कमण्डल है। इसका बंगला उच्चारण कोरोमण्डल है जो भारत के पूर्व समुद्र तट का नाम है।
मस्तिष्क में भी विन्दु चक्र बाहरी प्रेरणा का स्रोत है जहां चोटी रखते हैं। इसका मस्तिष्क के दाहिने और बांये भागों में विसर्ग होता है जिनको मानस के दो हंस कहा गया है। इन हंसों के आलाप से 18 प्रकार की विद्या होती है।
समुन्मीलत् संवित् कमल मकरन्दैक रसिकं,
भजे हंस द्वन्द्वं किमपि महतां मानस चरम्।
यदालापाद् अष्टादश गुणित विद्या परिणतिः,
यदादत्ते दोषादू गुणमखिलमद्भ्यः पय इव।।
(सौन्दर्य लहरी 38)
हुएनसांग ने लिखा है कि भारत तीन अर्थों में इन्दु कहा जाता था-
उत्तर से देखने पर अर्ध चन्द्राकार हिमालय इसकी सीमा है।
हिमालय चन्द्र की तरह ठण्डा है।
जैसे चन्द्रमा पूरे विश्व को प्रकाश देता है उसी प्रकार भारत विश्व को ज्ञान का प्रकाश देता है।
हुएनसांग के अनुसार ग्रीक लोग इन्दु का उच्चारण इण्डे करते थे।
पुराणों में भी लिखा है (जैसे मत्स्य,  विष्णु) कि भारत तथा जम्बू द्वीप दोनों की उतरी सीमा धनुषाकार है।
दक्षिण से देखने पर यह अधोमुख त्रिकोण है जिसे शक्ति त्रिकोण कहते हैं। भारतभारतवर्ष के 9 खण्डों में यह मुख्य होने के कारण कुमारिका है जो शक्ति का मूल रूप है।
विश्व सभ्यता के केन्द्र रूप में यह अजनाभ वर्ष है। अज = विष्णु की नाभि का कमल मणिपुर है जिसके बाद ब्रह्म देश है। भौतिक रूप से यह विष्णु के नाभि कमल से ब्रह्मा की उत्पत्ति है।
कुछ स्थान नामों का मूल-
अलीगढ़ का पुराना नाम बारन था। भारत में कई बारंग या बारन  (बहिरंग) हैं । मुख्य किले के निकट एक सहायक छोटा किला होता था जिसे बहिरंग कहते थे। कोटा  (= किला, राजस्थान), से 25 किलोमीटर दूर बारन है । ओडिशा में कटक (=किला) तथा भुवनेश्वर के बीच बारंग है । ओडिशा में गढ़ नाम के जितने स्थान हैं, उनके निकट बहाराणा  (बहिरंग) है । दिल्ली किले का बहिरंग को मुस्लिम लेखक बारन लिखते थे। यह नाम फर्रूखसियर तक चलता रहा। सैयद बन्धुवों ने इस किले को दखल कर अलीगढ़ नाम दिया।
पोरबन्दर मूल नाम ही है । बन्दर का अर्थ पत्तन  है जहाँ जहाज का लंगर गिराते थे । वननिधि का अर्थ समुद्र है, उसमें चलने वाला वानर। वानरों का स्थान वानर या बन्दर। ईरान के बन्दर-अब्बास से बोर्नियो के बन्दर श्री भगवान तक बहुत से समुद्र तट के बन्दर हैं ।
विशाखापत्तनम के 2 नाम हैं । नदी के उद्गम से कई स्रोत मिल कर नदी की धारा बनाते हैं। पुनः समुद्र में मिलने के पहले धारा का विभाजन शुरू होता है जिसे धारा का उलटा राधा कहते हैं। गंगा का राधा क्षेत्र फरक्का से शुरू होता है तथा इसका शासक कर्ण था। अतः उसे राधेय कहते थे। विशाखा नक्षत्र को भी राधा कहते हैं। ज्योतिष में गणना के लिये विषुव वृत्त तथा कक्षा वृत्त के मिलन विन्दु को शून्य स्थान मानते हैं-यहाँ से गोलीय त्रिभुज आरम्भ होता है। यहाँ से कैंची की तरह दो वृत्तों की शाखायें निकलती हैं, अतः इस विन्दु के नक्षत्र को कृत्तिका  (कैंची) कहते हैं। इसके विपरीत विन्दु पर दोनों शाखायें मिलती हैं जिसके नक्षत्र को विशाखा (द्विशाखा) कहते हैं। कालाहांडी जिले के थुआमुल रामपुर के एक स्थान से दो नदियों निकलती हैं- नागावली और वंशधारा। दोनों समुद्र तक समान्तर चलती हैं और कहीं नहीं मिलती। इन दो नदी शाखाओं के बीच का स्थान विशाखा है। जहाज ठहरने का स्थान होने के कारण पत्तन है। इसका अन्य नाम विज॔गम है जो केरल में तिरुवनन्तपुरम के निकट समुद्र तट का भी नाम है । जंगम का अर्थ है चलने वाला। जहाँ आयात निर्यात के कारण अधिक आवागमन होता है वह विजंगम है। जंगम का उलटा गंजम है, जहाँ सामान का भण्डार हो। विशाखापत्तनम के निकट ओडिशा का गंजाम जिला है। भारत में थोक बाजार के जितने स्थान हैं उनको गंज कहते थे।
पटना के कई भागों के अलग अलग नाम थे । नदी का पत्तन स्थान पटना है जैसे गुजरात में सोमनाथ के निकट पाटन। यहाँ का बड़ा बाजार वृहद् हट्टी था जिसे अभी बिहटा कहते हैं। सरकारी घर पटल (सेक्टर) में विभाजित थे । वह भाग पाटलिपुत्र था। सैनिक छावनी को दानापुर कहते थे-दान का अर्थ है काटना  (दो अवखण्डने)। छावनी में काटने के हथियार होते हैं। विश्वविद्यालय का स्थान कुसुमपुर था जिसका फारसी अनुवाद फुलवारी शरीफ हो गया है। छात्र फूल की तरह होते हैं-अंकुर से बढ़ कर प्रफुल्लित होते हैं। इसी अर्थ में किण्डर गार्टेन फ्रेंच में कहते हैं। विश्वविद्यालय के निकट खगोल वेधशाला जहाँ थी उसे आज भी खगोल  ही कहते हैं।

भारत में अभ्यास हो गया है कि हम अपनी भाषा और क्षेत्र बिलकुल नहीं देखते हैं। केवल यही देखते और समझते हैं कि अंग्रेजों ने क्या लिखा है। अपनी तरह भारतीयों को भी विदेशी सिद्ध करने के लिये सिन्ध में खुदाई कर उसके मनमाने अर्थ निकाले। आज तक नयी नयी कल्पनायें हो रही हैं। केवल महाराष्ट्र नाम और उसके विशेष शब्दों अजिंक्या, विट्ठल आदि पर ध्यान दिया जाय तो भारत का पूरा इतिहास स्पष्ट हो जायगा। इन शब्दों का मूल समझा जा सकता है पर यह क्यॊं महाराष्ट्र में ही हैं यह पता लगाना बहुत कठिन है। जो कुछ हमारे ग्रन्थों में लिखा है, उसका ठीक उलटा हम पढ़ते हैं। इन्द्र को पूर्व दिशा का लोकपाल कहा है, उसके बारे में अब कहते हैं कि यह आर्यों का मुख्य देवता था जो पश्चिम से (अंग्रेजों की तरह) आये थे। कहानी बनायी है कि पश्चिम उत्तर से आकर आर्यों ने वेद को दक्षिण भारत पर थोप दिया। पर पिछले ५००० वर्षों से भागवत माहात्म्य में पढ़ते आ रहे हैं कि ज्ञान विज्ञान का जन्म दक्षिण से हुआ और उसका उत्तर में प्रसार हुआ।
अहं भक्तिरिति ख्याता इमौ मे तनयौ मतौ। ज्ञान वैराग्यनामानौ कालयोगेन जर्जरौ॥४५॥
उत्पन्ना द्रविडे साहं वृद्धिं कर्णाटके गता। क्वचित् क्वचित् महाराष्ट्रे गुर्जरे जीर्णतां गता॥४८॥
तत्र घोर कलेर्योगात् पाखण्डैः खण्डिताङ्गका। दुर्बलाहं चिरं जाता पुत्राभ्यां सह मन्दताम्॥४९॥
वृन्दावनं पुनः प्राप्य नवीनेव सुरूपिणी। जाताहं युवती सम्यक् श्रेष्ठरूपा तु साम्प्रतम्॥५०॥
(पद्म पुराण उत्तर खण्ड श्रीमद् भागवत माहात्म्य, भक्ति-नारद समागम नाम प्रथमोऽध्यायः)
यह समझने पर भारत और वैदिक परम्परा के विषय में समझा जा सकता है। सृष्टि का मूल रूप अव्यक्त रस था। ब्रह्माण्ड (गैलेक्सी) में इसका रूप अप् (जल जैसा) हुआ। तरंग-युक्त अप् सलिल या सरिर (शरीर, पिण्ड रूप) है। निर्माण-रत अप् को अम्भ कहते हैं, इसके साथ चेतन तत्त्व शिव मिलने से साम्ब (स + अम्भ)-सदाशिव है। भारत में दक्षिण समुद्र तट से ज्ञान का आरम्भ हुआ। द्रव से उत्पन्न होने के कारण यह द्रविड़ हुआ। सृष्टि का आरम्भ आकाश से हुआ, पर भाषा का आरम्भ पृथ्वी से हुआ। कर्म और गुण के अनुसार ब्रह्मा ने नाम दिये थे, इन अर्थों का आकाश (आधिदैविक) और शरीर के भीतर (अध्यात्म) में विस्तार करने से वेद का विस्तार हुआ। आगम की २ धारा हैं। प्रकृति (निसर्ग) से निकला ज्ञान वेद निगम है। उसका प्रयोग गुरु से सीखना पड़ता है, वह आगम है। अतः निगम वेद श्रुति कहा है। श्रुति का अर्थ है शब्द आदि ५ माध्यमों से प्रकृति के विषय में ज्ञान। इसका ग्रहण कर्ण से होता है, अतः जहां भौतिक अर्थों का आकाश और अध्यात्म में विस्तार हुआ वह क्षेत्र कर्णाटक है। ब्रह्म की व्याख्या के लिये जो लिपि बनी वह ब्राह्मी लिपि है। इसमें ६३ या ६४ अक्षर होते हैं क्योंकि दृश्य जगत् (तपः लोक) का विस्तार पृथ्वी व्यास को ६३.५ बार २ गुणा करने से मिलता है (आधुनिक अनुमान ८ से १८ अरब प्रकाश वर्ष)। इस दूरी ८.६४ अरब प्रकाश वर्ष को ब्रह्मा का दिन-रात कहा है। ध्वनि के आधार पर इन्द्र और मरुत् ने इसका वर्गीकरण किया वह देवनागरी लिपि है। इसमें क से ह तक के ३३ वर्ण ३३ देवों का चिह्न रूप में नगर (चिति = city) है। १६ स्वरों को मिलाने पर ४९ मरुत् हैं। ध्वनि रूप में लिपि का प्रचार का दायित्व जिस पर दिया गया उसे ऋग्वेद (१०/७१) में गणपति कहा है। इस रूप में वेद का जहां तक प्रभाव फैला वह महाराष्ट्र है। महर् = प्रभाव क्षेत्र। उसके बाद गुजरात तक वेद का प्रचार हुआ। कालक्रम में लुप्त हो गया था। भगवान् कृष्ण का अवतार होने पर पुनः उत्तर भारत से प्रचार हुआ। वर्तमान रूप कृष्णद्वैपायन व्यास द्वारा निर्धारित है।
महर् = प्रभाव क्षेत्र दीखता नहीं है। पृथ्वी दीखती है पर इसका गुरुत्व क्षेत्र नहीं दीखता है। अतः महः को अचिन्त्य कहा है। महाराष्ट्र में अचिन्त्य = अजिंक्या नाम प्रचलित है। उसका केवल भाव हो सकता है, अतः भाऊ सम्मान सूचक सम्बोधन है।
पश्चिम दिशा के स्वामी वरुण को अप्-पति कहा है अतः पश्चिमी भाग महाराष्ट्र में अप्पा साहब सम्मान सूचक शब्द है। विट् = विश् या समाज का संगठन जहां होता है वह विट्-स्थल = विट्ठल है। विश् का पालन कर्त्ता वैश्य है।

अरुण उपाध्याय जी की पोस्ट से संकलित.


Hr. deepak raj mirdha
yog teacher , Acupressure therapist and blogger
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भारत की ३ काशी भारत की ३ काशी Reviewed by deepakrajsimple on November 09, 2017 Rating: 5

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