पेबैक चर्च

पेबैक

एक जगह पढ़ा एक क्रिश्चन आदिवासी महिला शिक्षक ने लिखा था "चर्च हमको पैसा नहीं देता बेवकूफ बल्कि चर्च को हम पैसा,चावल,दाल आदि देते है !"
वहीं एक पेशे से डॉक्टर क्रिश्चन आदिवासी ने कहा कि "मिशनरीज ने हमारे लिए बहुत कुछ किया अब हमारे 'पेबैक' की बारी है और हम पेबैक कर रहे हैं और सबको करना भी चाहिए!" 
इसी तरह लगभग सभी कन्वर्ट ईसाइयों के चाहे वो डॉक्टर हो,इंजीनियर हो,शिक्षक हो,कोई प्रोफेशनल्स हो या कोई आम कन्वर्ट ही क्यों न हो सबका यही कहना था कि हम चर्च को देते हैं चर्च हमको नहीं देता.. चर्च ने हमारे लिए बहुत कुछ किया अब हम 'पेबैक' कर रहे हैं .. अपने कमाई का दसवां हिस्सा हम चर्च को दान देते हैं जिसे दसवांश कहते हैं। 
अब झारखंड में पहला मिशनरी प्रवेश कब हुआ ?? .. तो तारीख बताता कि पहला मिशनरी प्रवेश झारखंड में 1845 ई. में हुआ। .. तो इधर के ढेर सारे इंटेलेक्चुअलस की माने तो उनका कहना है कि आप ये सोचिये कि अगर झारखंड में मिशनरीज नहीं आते तो यहाँ के ट्राइबल्स का क्या होता? क्या स्थिति रहती? अभी जैसे है वैसे रहता  क्या ? .. मिशनरीज आये तो हमारे बेटरमेंट के लिए बहुत सारे  काम किये.. स्कूल खोले, कॉलेज खोले, एजुकेशन दिया, पढ़ना-लिखना सिखाया, हॉस्पिटल्स खोले आदि आदि ..!! .. तो झारखंड की स्तिथि उस वक्त ये रही होगी कि जितना कुछ भी मिशनरियों ने दिया या किया  उन सब का घोर अभाव था.. लोग नंगे-पुंगे, भूखे-प्यासे थे, दरिद्रता चरम पे थी, शिक्षा की तो कल्पना भी नहीं कर सकते..  तो मिशनरियों ने रोटी दिया, कपड़ा दिया, और पढ़ने-लिखने का अवसर दिया और आज परिणाम ये है कि लोग आज अच्छी कंडीशन में है और इनका अब  कर्तव्य बनता है कि ये अब मिशनरियों को 'पेबैक' करें!!

ओके… ओके … ओके .. बहुत अच्छा!!! 
एक बात और इन्हीं के माध्यम से सुन लिया जाय जो कि सही भी है.. "आरएसएस के पास इतना संपत्ति  कहाँ से है?, इनको फंडिंग कौन करता है?" .. तो जवाब भी इन्हीं का कि "इनकी फंडिंग बड़े-बड़े हिन्दू बिजनेस घराने करते हैं, छोटे-छोटे  हिन्दू बिजनेसमैन करते हैं, तमाम राज्यों के बीजेपी की सरकार करती है .. कोई आरएसएस के घर में पैसा छापने की मशीन थोड़े है कि वो इतना पैसा छाप सके!!"
ओके ब्रो.. बहुत बढ़िया … तो प्रेजेंट सिनारियो में आरएसएस की फंडिंग ऐसे होती है .. मान भी लिया।
तो उस वक़त और अब भी यूरोपीयन, अमेरिकन मिशनरीज को फंडिंग कौन देता होगा/है ???  ऑफकोर्स वहाँ की सरकारें और बिजनेस गुन्स .. लेकिन वहाँ की सरकारों और बिजनेस गुन्स के आय के स्रोत कहाँ से?? किसपे निर्भर थे ?? भारत आगमन से पूर्व उनकी आर्थिक और वैज्ञानिक(जी हाँ वैज्ञानिक) हैसियत क्या थी ??ईसाई  मिशनरियां तो वैसे बहुत पहले ही भारत आ गए थे लेकिन काम क्या ? नाम मात्र भी नहीं!! यहाँ के राजाओं के दया-दृष्टि के पात्र थे मात्र! लेकिन इसका असल काम शुरू हुआ 17वीं शताब्दी से। और 17वीं,18 वीं और 19वीं सदी में मिशनरियों के किये गए काम को ही आज के तथाकथित पढ़े-लिखे एजुकेटेड लोग  'पेबैक' की बात कर रहे हैं!!?? तो इन तीन शताब्दियों में ऐसा क्या घटित हुआ और इन मिशनरियों ने ऐसा क्या काम कर दिया कि आज 'पेबैक' की बात हो रही है??? तो जरा खुदाई करने का प्रयास करते हैं।

अब ऐसा नहीं था कि यूरोपियन का संपर्क भारतीय उपमहाद्वीप से नहीं था, बिल्कुल था।.. व्यापार करते थे।.. और भारी मात्रा में भारतीय सामानों की यूरोप के बाजारों में माँग होती थी। ..! ये यूरोपियन व्यापारी समुंदर के रास्ते ही सब व्यापार करते, समुंदर में ही ठहरते, माल खरीदते और चलते बनते, समुंदर में ही डच,पुर्तगाली,ब्रिटिशर्स व्यापारी वर्चस्व को लेकर लड़ते-झगड़ते, लेकिन मुख्य भारतीय भूमि में कोई आधिकारिक व्यापार की छूट नहीं थी.. लेकिन 1612 में सर टॉमस रॉ द्वारा जहांगीर की बेटी का इलाज करना और बादशाह का टॉमस के  ऊपर खुश होना और मुँह माँगी इच्छा के तौर पर टॉमस द्वारा व्यापारिक संधि ,छूट और मुख्य भूमि पे कुछ ऑफिस/ब्रांच खोलने की अनुमति मांगना और बादशाह द्वारा सहर्ष दिया जाना ही पहली पैठ बनी ब्रिटिशर्स की भारत में। और उसके बाद का इतिहास तो सब जानते ही है।
शुरुआत से ही पश्चिमी देशों का भारत की ओर रुझान क्यों रहा है? .. क्यों सब आकर्षित होते रहे भारत भूमि की ओर ?? क्या ऐसा था भारत में कि सब इनको अपने-अपने तरीके से लूटना-खसोटना और राज करना चाहते थे?? भारत नंगे-पुंगे,गरीबों, सांपखेलों,फटेहालों का देश रहता तो क्या सब इधर को आते और अपनी राजनीतिक वर्चस्व की लड़ाई में यहाँ के लोगों का कत्लेआम करते ??? .. भारत सोने की चिड़िया भला क्यों कहलाया ?? 
हमें पढ़ाया गया/जाता कि भारत एक अध्यात्मिक और कृषि प्रधान देश था लेकिन ये नहीं बताया जाता कि भारत विश्व कि 2000 से ज्यादा वर्षों तक विश्व की सबसे बड़ी आर्थिक शक्ति थी।  .. Angus Maddison , Will Durant, Paul Bairoch जैसे निर्विवाद रूप से स्थापित आर्थिक और सामाजिक इतिहासकारों ने भारत की जो तस्वीर खींची है वो बेहद ही चौंकाने वाली है। Will Durant ने सन 1930 में एक किताब लिखी 'The Case For India' .. जानकारों की माने तो Will Durant अब तक दुनिया के सबसे ज्यादा पढ़े जाने वाले लेखक है। .. इन्होंने विस्तार से भारतीय उद्योग व्यवस्था के बारे में वर्णन किया है.. और कहा है कि क्यों भारत को उद्योग को बढ़ावा दिया जाना चाहिए अपने स्वर्णिम इतिहास को पुनः दोहराने के लिए? वे लिखते है कि .. "जो लोग आज हिंदुओं की अवर्णनीय गरीबी और असहायता आज देख रहे हैं , उन्हें ये विश्वास  ही न होगा ये भारत की धन वैभव और संपत्ति ही थी जिसने इंग्लैंड और फ्रांस के समुद्री डाकुओं (Pirates) को अपनी तरफ आकर्षित किया था।"
आगे लिखा गया कि ..  " ये धन वैभव और सम्पत्ति हिंदुओं ने विभिन्न तरह की विशाल (vast) इंडस्ट्री के द्वारा बनाया था। किसी भी सभ्य समाज को जितनी भी तरह की मैन्युफैक्चरिंग और प्रोडक्ट के बारे में पता होंगे ,मनुष्य के मस्तिष्क और हाथ से बनने वाली हर रचना (creation)  जो कहीं भी exist करती होगी , जिसकी बहुमूल्यता या तो उसकी उपयोगिता के कारण होगी या फिर सुंदरता के कारण, उन सब का उत्पादन भारत में प्राचीन काल  से हो रहा है । भारत यूरोप या एशिया के किसी भी देश से बड़ा इंडस्ट्रियल और मैन्युफैक्चरिंग देश रहा है। इसके टेक्सटाइल के उत्पाद  लूम से बनने वाले महीन (fine) उत्पाद , कॉटन , ऊन लिनेन और सिल्क सभ्य समाज में बहुत लोकप्रिय थे। इसी के साथ exquisite ज्वेलरी और सुन्दर आकारों में तराशे गए महंगे स्टोन्स , या फिर इसकी pottery , पोर्सलेन्स , हर तरह के उत्तम रंगीन और मनमोहक आकार के ceramics , या फिर मेटल के महीन काम - आयरन स्टील सिल्वर और गोल्ड हो। इस देश के पास महान आर्किटेक्चर था जो सुंदरता में किसी भी देश की तुलना में उत्तम था। इसके पास इंजीनियरिंग का महान काम था। इसके पास महान व्यापारी और बिजनेसमैन थे । बड़े बड़े बैंकर और फिनांसर थे। ये सिर्फ महानतम समुद्री जहाज बनाने वाला राष्ट्र मात्र नहीं था बल्कि दुनिया में सभ्य समझे जाने वाले सारे राष्ट्रों से व्यवसाय और व्यापार करता था । ऐसा भारत देश मिला था ब्रिटिशर्स को जब उन्होंने भारत की धरती पर कदम रखा था ।"
तो ऐसा भारत मिला रहा अंग्रेजों को.. फिर इसको लूट-खसोट के अपने यूरोप के कैसे खड़ा करना है की योजना बनने लगी।
पॉल बैरोच और अंगुस मैडिसन जैसे विश्वप्रसिद्ध आर्थिक इतिहासकार गहन रिसर्च करके लिखते है कि "सन 0 AD से 1500 ई. तक भारत विश्व जीडीपी का एक तिहाई शेयरहोल्डर था, और मुगलों के आने बाद 1750 तक एक चौथाई शेयरहोल्डर था वहीं पूरे अमेरिका और ब्रिटेन की जीडीपी मिला के केवल 2% की शेयरहोल्डर थी। .. जो कि 1900 आते-आते मतलब कि डेढ़ सौ साल में ब्रिटिशर्स की हुकूमत कुछ इस तरह से रही कि ब्रिटेन अमेरिका की जीडीपी शेयरहोल्डर 43% हो गई वहीं भारत की मात्र 2%. ..!! .. शुरुआती दौर में मने 1700 ई. में भारत से आयातित सूती वस्त्रों ने ब्रिटेन के बाजार में इस तरह से धूम मचाई कि वहाँ के घरेलू ऊनी उद्योग बंद होने के कगार पे आ गए तब ब्रिटिश संसद ने  Calico Act लगा के ब्रिटेन में सूती वस्त्रों के पहनने पे रोक लगा दिया।
भारत की लगभग 20% आबादी इन्हीं देशी उद्योग पे निर्भर थी, जिनकी गुणवत्ता बेमिशाल थी और विश्व बाजार में बेहद डिमांड होती थी.. लेकिन 1750 से 1900 के बीच में अंग्रेजों ने इन सारी देशी उद्योगों को बंद करा के इतनी बड़ी आबादी को कृषि के ऊपर बोझ बना दिया। इतनी बड़ी आबादी जो हजारों साल से एक्सपोर्ट क्वालिटी के प्रोडक्टस बनाते थे और भारत चमचमाता था वे बेघर और बेरोजगार हो कर पुरी तरह कृषि के ऊपर निर्भर हो गए।… और यही बेरोजगार 2.5 से 3 करोड़ लोग अन्न के अभाव में अकाल काल के गाल में समा गए।

जैसा कि ऊपर बात कर रहे थे कि 17वीं,18वीं और 19वीं सदी में मिशनरियों ने ऐसा क्या कर दिया कि आज लोग पेबैक की बात कर रहे हैं?? .. तो ये कालखंड  यही था.. ।
अंग्रेजों के आने के पहले भारत में जाने-माने भयंकर भयानक अकाल (Famine) कब-कब पड़े थे ?? और उसका व्यापक प्रभाव कितना रहा था ?? जहाँ से भी हो सके पता करने की कोशिश कीजियेगा। फिर ऐसा क्या रहा कि अंग्रेजों के आने बाद ही भारतीय इतिहास में सबसे बड़े-बड़े और भयावह अकाल पड़े जिसमें कि अनुमानित 6 करोड़ लोग मर गए?? .. कुछ ऐसे ही भयानक अकाल की बात करते है जो भारत के अकाल की सबसे बड़ी अकाल में से दर्ज किया गया है…
1.The Great Bengal Famine – 1770 – ये अकाल सबसे भयानक अकाल में से गिना जाता है.. इस अकाल ने 10 मिलियन लोगों को लील लिया जो कि कुल आबादी का एक तिहाई हिस्सा था।
2.Mysore Famine-1782    3.Chalisa Famine- 1783.    4.Doji Bara Famine-1791.     5.Agra Famine- 1837
6.Upper Doab Famine-1860.    7.Orrisa Famine- 1866 – जो कि बाद में मद्रास, हैदराबाद और चेन्नई तक फैला ये भी सबसे भयानक अकालों में से गिना जाता.. इस अकाल ने भी 1/3 आबादी को लील लिया।
8.Bihar Famine-1873.    9. Great Famine 1876-78 (Madras Famine or Southern India Famine) – इस अकाल ने 5.5 मिलियन लोगों को लील लिया। 
10. Ganjam Famine – 1888        11. Indian Famine – 1896,99       12. Bombay Famine – 1905 
13. Bengal Famine – 1943 – ये द्वितीय विश्वयुद्ध का समय था… इस अकाल ने 2.5 से 3 मिलियन लोगों को अपने चपेट में लिया।

फिर आजाद भारत में कितनी ही बार ढंग की बारिश नहीं हुई तो कितने लोग मरे?? या उस अकाल को किस तरह से निरस्त किया गया ? आजादी के सत्तर साल बाद एक भी इस तरह का सो कोल्ड Famine क्यों नहीं पड़ा ? क्या अकाल अंग्रेजों का इंतजार कर रही थी?? और अंग्रेजों के जाते ही अकाल पड़ने बन्द हो गए?? और इन दौरान ही  मिशनरियों को सबसे ज्यादा सेवा करने की क्यों पड़ी ?? ऐसे क्रिटिकल सिचुएशन में इन मिशनरियों को इतने सारे धन उपलब्ध करवाने वाले कौन थे जो सेवा के नाम पे खर्च कर रहे थे और उस सेवा से कितनों को बचा पाये??  ये अंग्रेज और मिशनरी तो यहाँ फटेहाल की स्तिथि में आये थे तो फिर ऐसा क्या हो गया कि सबसे ज्यादा भयानक अकाल इन्हीं के काल में हुआ और पूरा यूरोप अमेरिका विश्व शक्ति के तौर पर उभर कर सामने आए और ये मिशनरीज इन्हीं दौरान भारत की सबसे ज्यादा भूमि कब्जाने में सफल हो पाई जो कि अब तक भी रेलवे के बाद सबसे ज्यादा है?!  और इन्होंने ऐसी कौन सी सेवा और हेल्प कर दी कि आज पेबैक की बात कर रहे हैं?? 
तो सीधा-सीधी बात ये कि ये मिशनरीज कहाँ के ? ऑफकोर्स यूरोप के! .. तो इनको फंडिंग करने वाले कौन ? ऑफकोर्स ब्रिटिश शासन और बिजनेस गुन्स .. और इनको पैसा देने वाले कौन तो वो भारत जो करोड़ों बेरोजगार गरीबों को अकाल के  गाल में डाल कर उनको चूस-चूस कर खरबों पाउंड ड्रेन कर यूरोपीय कोष को भरने वाले। .. और उन खरबों पाउंड्स में से कुछ भीख इन मिशनरियों को जो सेवा के नाम पे यीशु की शरण में ला के अंग्रेजों के ही चरण-भाट बनने को मजबूर कर देने वाली। .. मने की बात वही हुई कि तुम हमारी पहले जम के मारो फिर मलहम-पट्टी करने आ जाओ।

तो अकाल पे आते है… 
अब ऐसा नहीं था कि भारत में अल्प-वृष्टि नहीं होती थी या सूखा नहीं पड़ता था लेकिन उसका इतना व्यापक और भयानक प्रभाव नहीं हुआ जितना ब्रिटिश काल में हुआ। .. कारण कि 20% आबादी जो घरेलू उद्योग पे आश्रित थी उन उद्योगों को चौपट कर दिया गया और इन्हें कृषि के ऊपर बोझ बना दिया गया।… फिर भारी लगान लगा दिया गया। .. ऐसा नहीं था कि अकाल के दौरान अन्न नहीं था लेकिन इन बेरोजगार लोगों के पास इतना पैसा नहीं था कि अन्न खरीद के खा सके।
Florence Nightingale की माने तो Famine(अकाल) दो तरह के होते हैं .. 1. Grain Famine (अनाज की कमी के कारण अकाल) .. और 2. Money Famine (पैसे की कमी के कारण अकाल) ! .. तो अंग्रेजों ने लोकल मैन्युफैक्चरिंग यूनिट को बंद करा के सभी को कृषि की ओर मुड़ने पे मजबूर कर दिया जो कि कम रिस्की नहीं था .. और ये जान बूझ कर ही किया गया एक 'Mass Massacre' के लिए। .. कृषि की ओर मुड़े कृषकों से लगान कुछ इस कदर वसूला जाने लगा कि कृषकों के पास अपने खुद के खाने के लिए पैसे नहीं बचने लगे। … भारत से अफीम,जूट, नील,चावल,गेहूँ और कपास ऐसे मुख्य चीजें थी जिससे ब्रिटिशर्स को भारी मात्रा में विदेशी पूंजी प्राप्त होती थी .. इनको यूरोप के बाजारों में बेहद ही कम मूल्य पे बेचा जाता था ताकि वहाँ कीमत को स्थिरता प्रदान की जा सके। .. किसी अकाल से निपटने के लिए सबसे जरूरी जो चीज है वो है पैसा.. लेकिन पैसे को ब्रिटिश सैनिकों के कहीं न कहीं पे हो रही युद्ध पे खर्च कर दिया जाता था।.. और जबरदस्ती वसूला भी जाता था चाहे कोई मरे ही क्यों न! 

 और फिर ऐसे ही साल दर साल एक से एक बड़े अकालों से भारत जूझता रहा। .. एक साथ जब लाखों आदमी मरने लगे तो कुछ ब्रिटिशर्स लेखकों ने इसके विरुद्ध आवाज उठाया , उनमें से एक William Digby था.. उन्होंने आवाज उठाया कि ब्रिटिश शासन को इस तरह की नीति नहीं अपनानी चाहिए और अकाल राहत के लिए कुछ कानून और कदम उठाने चाहिए.. इसके विरुद्ध में Lord Lytton ( 1877-79) जो वायसराय था ने कहा था " Let the British public foot the bill for its 'cheap sentiment,' if it wished to save life at a cost that would bankrupt India". .. (हिंदी में – ब्रिटिश प्रजा बिल को लात मारे एक घटिया सेंटिमेंट के लिए, यदि किसी की जान किसी भी कीमत पे बचाने की  होती है तो ऐसे में इंडिया दिवालिया हो जायेगा!" .. और आगे फिर आदेश पारित करता है कि "there is to be no interference of any kind on the part of Government with the object of reducing the price of food".
और इस तरह से जब भारत के लोग भूखे मर रहे थे तब ये अंग्रेज देश के प्रमुख बंदरगाहों से अपने देश को यहाँ से बोरी के बोरी अनाज सप्लाई कर रहे थे.. जिन अनाजों से लाखों का जीवन बच सकता था उन अनाजों को यूरोपीय बाजारों में भेजा जा रहा था ताकि वहाँ उनका मार्केट न गिर जाए और उनके नागरिकों को ज्यादा महंगाई का सामना न करना पड़े। .. उस दौरान की ऐसी-ऐसी तस्वीरें है कि देख के ही आँखों से सैलाब फूट जाता है, सिर्फ अस्थि पंजर लोग , भूख-प्यास के मारे असहाय !! 
और इनकी लाशों के ऊपर से यूरोप की चमचमाती बलखाती उफान मारती अर्थव्यवस्था.. और उन अर्थव्यवस्था के चंदे से फलित-पोषित होते ईसाई-मिशनरियां!! .. हमारी लाशों के ऊपर से बने पैसे को और उनकी प्रदत की हुई गरीबी के ऊपर सेवा के नाम पे उड़ेलते ये ईसाई मिशनरियां जिनका काम केवल जय येशु।। 
और इनके ही इतिहासकार हमें भूखे नंगों का देश, साँपों का देश, कृषि प्रधान देश आदि-आदि नामों से संबोधित किया। .. 2000 साल से जो विश्व जीडीपी का 35% से 25% कवर करता था उसके उत्पादक कौन लोग थे ?? ब्राह्मण थे?? क्षत्रिय थे?? वैश्य थे?? या कौन थे?? 
ऊपर की हालातों से जो 20% लोग बेरोजगार हुए, जिनकी जीविका उद्योग थी वही लोग मरे और जो बचे वो गरीब हुए और इन्हें ही 1921 में Depressed Class बनाया अंग्रेजों ने फिर 1935 में Scheduled Cast. 

और आज यही शेड्यूल पढ़े-लिखे सो कॉल्ड एजुकेटेड लोग जो हलेलुइया के शरण में गए वही आज 'पेबैक' की बात कर रहे हैं और अंग्रेजों के उत्तम संतान होने का दम्भ भी भरते हैं।

पेबैक कर रहे हो करो शौक से करो लेकिन अब इतना जरूर याद रखना कि किसे पेबैक कर रहे हो ? .. भूख-प्यास से तड़प-तड़प के मरे आपके पूर्वज आपके पेबैक का हिसाब-किताब जरूर जानना चाहेंगे कि बेटा किसे और क्यों पेबैक दे रहे हो!!

साभार संघी गंगवा
खोपोली से।



Hr. deepak raj mirdha
yog teacher , Acupressure therapist and blogger
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पेबैक चर्च पेबैक चर्च Reviewed by deepakrajsimple on October 27, 2017 Rating: 5

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