न तो बाह्वोर्बलमस्ति न शीर्षे नोत मध्यत:
अथ किं पापयाsमुया पुच्छे विभर्ष्यर्भकम्...
(सूक्त-58 (6) अथर्ववेद)
हे बिच्छू! तेरे हाथों में बल नहीं है, ना ही तेरे सिर में है और न शरीर के मध्य (कमर) में है।
तब क्यों अपनी परपीड़क बुद्धि के कारण पूंछ में विष भर कर रखता है?
यह सूक्त अथर्ववेद में बिच्छू के लिए कहा गया है, लेकिन भारत के वामपंथियों पर सटीक बैठता है!
वस्तुतः वामपंथी फ्रांसीसी क्रांति, बोल्शेविक क्रांति या चीनी क्रांति को रटते रटते मंदबुद्धि हो जाते हैं!
उन्हें भारत के बारे में सोचने का ज्ञान ही नहीं रहता!
यदि होता तो ये जरूर मंथन करते कि जिस मनुवाद के विरूद्ध वे लोगों को भड़काते हैं, आखिर क्या कारण है अतीत में उस मनुवाद के विरूद्ध कोई क्रांति नहीं हुई?
जहां चाणक्य जैसा राजनीतिशास्त्र और अर्थशास्त्र का ज्ञाता हुआ, जिसने तत्कालीन फ्रांस और रूस दोनों देशों की पांचगुनी आबादी और दसगुना ताकत वाले नंद साम्राज्य पर अधिकार कर लिया उस पर वामपंथी विद्वानों का एक भी शोध नहीं है!
वे शोध नहीं कर पाए क्योंकि उनकी बुद्धि स्वतंत्र नहीं रही, हमेशा स्थापित मान्यताओं के विरूद्ध षडयंत्र करने में लीन रही।
उन्हें लगा एकबार हिंदुत्व की वैचारिक ताकत टूट जाए फिर क्रांति तय है!
यहां के वामपंथी मार्क्स की मनोहर पोथी और लेनिन की रेड-रिवोल्यूशनरी में इतना उलझ गए कि भारतीय सभ्यता की विविधता और विशालता में समाहित श्रेष्ठ मानवीय मूल्यों का ही विरोध करना शुरू कर दिया।
वेदों में लक्षित प्रकृति की सामर्थ्य के साथ भारतीय जनमानस इस प्रकार रचा बसा है कि उसे बरगलाना आसान नहीं है!
बाह्य रूप से भारतीय मानस नए एवं आयातित विचारों से आकर्षित अवश्य हो सकता है किंतु आंतरिक तल पर वह पूर्ण भारतीय ही रहता है!
भारतीय मानस दुनिया का सबसे जीवंत और प्रयोगधर्मी है! इसलिए यहां व्यक्ति पूजा नहीं टिक पाती!
किसी व्यक्ति विशेष के विचारों पर अधिक दिनों तक अंधभीड़ नहीं बन सकती भारतीय मानसिकता!
सैकड़ों उदाहरण हैं!
ब्रिटिश शासन में अंग्रेजों ने गांधी को क्रांतिदूत बनाकर पेश किया लेकिन उसी के समांतर सुभाष चन्द्र बोस भारतीय "ओज" के वाहक स्वरूप बन कर उभर गए!
उसी काल में भगत सिंह ने पूरे भारत को झकझोर दिया!
अंग्रेज निराश होने लगे उन्हें गांधी में विशेष रूचि नहीं रह गई, इसलिए कांग्रेस की ओर से अंग्रेज उदासीन हो गए और भारत छोड़ने का तैयारी करने लगे!
जाते जाते जिन्ना पर उन्होंने दांव खेला, उन्हें लगा मुसलमान एकमार्गी होता है, इसलिए जिन्ना को नया पैगंबर बनाने की कोशिश हुई, लेकिन अंग्रेज और कम्युनिस्ट यहां भी चूक गए!
वे भूल गए कि भारतीय उपमहाद्वीप का मुसलमान भी भारतीय ही है।
नतीजा हुआ कि पाकिस्तान की आम आवाम पृथक देश की मांगपूर्ती के बाद जिन्ना को भूल गई!
चंद लोगों का राजनैतिक झुंड भले जिन्ना को क़ायदे आजम फाजम घोषित करता रहा, आम जनमानस में जिन्ना का नामोनिशान नहीं बचा!
सुनो कामरेड, यह जीवंत धरती है यहां कोई बहरूपिया या कपोल कल्पित व्यक्तित्व पैंगबर, ईसा, चे-ग्वारा, लेनिन और माओ नहीं बन सकता!
न ही यहां प्रायोजित क्रांति सफल हो सकती है!
यह भारतभूमि है यहां आवश्यकता के हिसाब से महाभारत हो जाता है, चाणक्य और चंद्रगुप्त की जोड़ी भी बन जाती है तो कभी #वैशाली_गणराज्य स्थापित हो जाता है!
लेकिन नक्सलबाड़ी आंदोलन परवान नहीं चढ़ता क्योंकि भारत के शरीर में एंटीबायोटिज्म भी है जो कम्युनिज्म नामक बीमारी को पनपने ही नहीं देता!
इसलिए तुम यहां की मुख्यधारा में लौट आओ यही तुम्हारी सुरक्षा की गारंटी है अन्यथा आज तो लेनिन का स्टैच्यू ही ढहा है, कल को तुम्हारा भी कर्मकांड हो सकता है।
Hr. deepak raj mirdha
yog teacher , Acupressure therapist and blogger
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बिच्छु और वामपंथ
Reviewed by deepakrajsimple
on
March 07, 2018
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