अवध का किसान विद्रोह - 1920 - 21
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मैं आजादी के लिए लड़ी गयी 1857 की लड़ाई से वाकिफ था, 1942 के भारत छोड़ो, 1921 के असहयोग आंदोलन, 1930 के सविनय अवज्ञा आंदोलन से वाकिफ था। लेकिन देश मे समय समय पर हुए किसान आंदोलन और मजदूर हड़तालों से कतई बेखबर था जिनहोने आगे चलकर अंग्रेज़ो के खिलाफ संघर्ष मे महत्वपूर्ण भूमिकाएँ निभाई।
ऐसा ही एक आंदोलन अवध मे 1920 मे शुरू हुआ था। इस आंदोलन की शुरुआत तालुकदारों या जमींदारों के खिलाफ वंचित वर्ग के भूमिहीन खेतिहर मंजदूरों से शुरू की थी। सामान्य लगान की दर भी उस समय 60 से 80 प्रतिशत थी। उस पर से जब भी किसी तालुकदार को कार, हाथी, बच्चे की शादी, या बच्चे को पढ़ाई के लिए विदेश भेजना हो, सरकारी अधिकारियों के लिए पार्टी करनी हो, गिफ्ट भिजवाने हो तो उनके लिए स्पेशल टैक्स लगा दिये जाते थे। इन सबसे त्रस्त भूमिहीम किसानो ने एक साधु रामचन्द्र जी के नेतृत्व मे संघर्ष की शुरुआत की।
रामचन्द्र जी के बारे मे कहा जाता है की वो एक गिरमिटिया मजदूर थे जो फ़िजी मे मजदूर के तौर पर गए थे, और वहाँ से वापस आकर अयोध्या आ गए थे और साधू बन गए थे। उन्होने ही प्रतापगढ़ के एक गाँव मे पहली किसान सभा आरंभ की। ये आंदोलन अवध के रायबरेली , सुल्तानपुर और प्रतापगढ़ मे फैला था।
हालांकि अहिंसात्मक आंदोलन का सारा श्रेय गांधी जी को जाता है, लेकिन ऐसा नहीं है की सत्याग्रह की शुरुआत गांधी जी ने ही की थी। अवध के किसान आंदोलन पूरी तरह सत्याग्रह पर आधारित था। रामचन्द्र जी ने वंचित वर्ग से तालुकदारों के सामाजिक बहिष्कार का आव्हान किया। नतीजा ये हुआ की कोई तालुकदारों के घरो मे पानी पहुंचाने वाला न रहा, कोई उनके दाढ़ी बाल काटने वाला न रहा, कोई उन्हें नदी पार न करा रहा था। इस सामाजिक बहिष्कार का जवाब तालुकदारों ने आर्थिक बहिष्कार से दिया। उन्होने इन मजदूरों को कर्जा देना बंद कर दिया। गरीबी से त्रस्त जनता और बेहाल होती गयी। और अंत मे उनके सब्र का बांध टूट गया।
किसानो ने बाजार लूटे, जमींदारो के घर मे पड़ा अनाज लूट लिया। इस अराजकता से निपटने के लिए पुलिस ने किसानो की भीड़ पर गोली चलायी जिसमे 200 के करीब किसान मारे गए। तालुकदारों और अंग्रेज़ो के सामूहिक दमन के सामने किसान ज्यादा समय टिक न सके और ये आन्दोलन तितर बितर हो गया।
इस गोलीकांड की भी एक कहानी है। जब पहली बार रामचन्द्र जी को पुलिस पकड़ कर अदालत मे लायी थी तो इतने किसान अदालत पहुँच गए थे की जज ने घबरा कर रामचन्द्र जी को रिहा कर दिया था। दूसरी बार ऐसा न हो इसके लिए पुलिस ने रायबरेली की सई नदी के पुल को बंद कर दिया था और इकट्ठे हुए किसानो पर पहले लाठीचार्ज और फिर गोली चलाई।
इस गोलीबारी के एक मूक दर्शक पंडित जवाहर लाल नेहरू भी थे जो पुल के दूसरी ओर खड़े इस गोलीबारी के मूक गवाह थे। रामचन्द्र जी कांग्रेस नेताओ से सहयोग मांगने इलाहाबाद गए थे अपने साथ 5000 किसानो को लेकर। उनही के अनुरोध पर नेहरू रायबरेली आए थे, किसानो के हालात अपनी आंखो से देखने। नेहरू के लिए ये पहला मौका था जब उन्होने एक धनी आदमी के बेटे ने अपनी आँखों से भारत की बदहाली देखि थी। नेहरू जी ने तमाम गाँव का ट्रेन, कार और यहाँ तक की एक गाँव से दूसरे गाँव तक दौड़ लगाकर दौरा किया था। किसानों को अहिंसक रहने की अपीले की।
इस विद्रोह के 6 महीने बाद गांधी जी ने असहयोग आंदोलन शुरू किया और अवध के किसानो को संबोधित करते हुए उनसे एक साल मे स्वराज दिलाने का वादा किया। इस आंदोलन के लिए उन्होने 16-17 शर्ते राखी थीं, उनमे से एक शर्त थी मजदूर जमींदार एकता और जब तक कांग्रेस लगान की अदायगी देने पर रोक न लगाए किसान लगान देते रहें।
इस देश ने बहुत बदहाली देखी है, बहुत बुरे दिन देखे हैं। आजादी यूं नहीं मिली हैं। लाखो अनाम लोगों ने अपना योगदान दिया है। किसी ने जान देकर किसी ने जेल काटकर।
संदर्भ : बिपन चंद्र : इंडिया स्ट्रगल फॉर इंडिपेंडेंस
अखिलेश : निर्वासन
नेहरू : सिलेक्टेड वर्क्स
शरद श्रीवास्तव
कहते हैं एक आन्दोलन बरसों पहले चला था | उस जमाने में कहते हैं लोगों को अंग्रेजी सरकार लोगों से सर पर मल ढूलवाती थी | ऐसे लोगों को उस जमाने में ही नहीं अभी भी समाज से बाहर रखा जाता है | उनकी सीवर, नाले साफ़ करने वाली तस्वीरें दिखा दिखा कर एक समुदाय आज भी काफी चंदा-भीख बटोर लाता है | जब इसके खिलाफ पिछला राजनैतिक आन्दोलन चला तो कईयों ने ये काम करने से इनकार कर दिया |
जिन्होंने काम करने से इनकार किया था उनकी कितनी सामाजिक या आर्थिक उन्नति हुई ये तो नहीं पता | मुझे नहीं लगता कि इस किस्म का कोई शोध भारत में हुआ है | लेकिन जिसने ये काम करना शुरू किया उसका क्या हुआ ये फ़ौरन दिख जाता है | एक सवर्ण, बल्कि सवर्ण ही क्यों ब्राह्मण हैं विन्देश्वरी पाठक | आपने सुलभ शौचालय के नाम के साथ ही उनका नाम भी सुना ही होगा |
नामी हस्ती है, अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर सम्मानित तो हैं ही | बाकी शहरों के अलावा पटना के पाटलिपुत्र कॉलोनी में उनका बड़ा सा बंगला है जो हमने देखा है | गुजरात के तथाकथित दलित आन्दोलन में भी मुझे किसी नए व्यापारी के अगले दस बीस वर्षों में करोड़पति हो जाने के निश्चित लक्षण दिखते हैं |
बाकी रहा हिन्दुओं का संत समुदाय जो कि किसी चातुर्मास के नाम पर वहां जाकर सांत्वना देने के बदले अपनी जिम्मेदारी से मूंह चुराए बैठा है | तो उनके लिए "चू" से शुरू होने वाला जो मूर्खता की पराकाष्ठा जैसा अर्थ देने वाला शब्द है वो पहले ही बन चुका है | वेटिकन और अरबी फण्ड से चलने वाले गिरोहों के खिलाफ ये लोग नहीं उतरे | इतिहास भी साक्षी है, और इस कायरता का वर्तमान भी गवाह रहेगा |
आनंद कुमार
एकता में बल है जैसी कहावतें शायद आपने सुनी हो | लेकिन ग्रामीण अंचलों को देखें तो "एकता" शब्द का अपभ्रंश ही इस्तेमाल होता है | बिहार – उत्तर प्रदेश के ज्यादातर इलाकों में "एका" शब्द ही इस्तेमाल होता है |
अंग्रेजी शासन काल में उत्तर प्रदेश के हरदोई, बहरैच और सीतापुर जिलों में किसानों की समस्याएं बहुत बढ़ गई | उनके टैक्स तय दरों से करीब पचास फीसदी ज्यादा वसूले जा रहे थे | टैक्स वसूली के लिए तैनात ठेकेदार काफ़ी शोषण भी करते, इसके अलावा बटेदारी पर भी शुल्क था | इन सबों से परेशान किसान "एका आन्दोलन" के तहत इकठ्ठा हुए |
तय किया गया की वो शुल्क तो देंगे, मगर तय शुल्क, नियत समय पर ही देंगे | खेत से बेदखल किये जाने पर भी खेत नहीं छोड़े जायेंगे | बंधुआ मजदूरी से इनकार कर देने का भी फैसला लिया गया | यहीं पर पंचायत के फैसलों को मानने का और अपराधियों को आश्रय ना देने का भी फैसला लिया गया |
एक ख़ास चीज़ इस आन्दोलन से जुड़ी ये थी की इसके नेता कोई बड़े लोग नहीं थे | मदारी पासी जैसे कई तथाकथित "छोटी जात" के नेता ही इस आन्दोलन के अगुवा थे | शुरूआती दौर में कांग्रेस और खिलाफत आन्दोलन के नेताओं ने समर्थन दिया था लेकिन पुलिस दमन के शुरू होने के बाद किसी ने इन छोटे किसानो का साथ नहीं दिया था | असहयोग आन्दोलन की छाया में कहीं ये "एका आन्दोलन" दब गया |
मार्च 1922 आते आते ये आन्दोलन पूरी तरह कुचल दिया गया | बाद के साहित्यकारों / इतिहासकारों ने भी इनके बारे में नहीं लिखा | आज सिविल सेवाओं की तैयारी करने वालों को छोड़ दें तो शायद ही कोई मदारी पासी और एका आन्दोलन के बारे में बता पायेगा |
तमाम वामपंथी साहित्यकार / इतिहासकार जब हमारे स्वतंत्रता सेनानियों का नाम भूलते रहे तो जो जनता ने किया था वो "सहिष्णुता" थी | हमने माना की हर आन्दोलनकारी का नाम लिखा तो नहीं ही जा सकता | लेकिन मदारी पासी जैसे छोटी जाती वाले 1921 के आन्दोलनकारियों को भूलकर जब सिर्फ़ अपने इस्लामिक साम्राज्य की स्थापना के लिए लड़ रहे टीपू का महिमामंडन होता है तो सवाल तो उठेंगे !
बाकि लोग कहते हैं की टीपू सुलतान को भूलकर मदारी पासी जैसे छोटी जाती वाले को याद करना "असहिष्णुता" है तो जरूर सही ही कहते होंगे |
Hr. deepak raj mirdha
yog teacher , Acupressure therapist and blogger
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अवध का किसान विद्रोह
Reviewed by deepakrajsimple
on
November 09, 2017
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